नरेश मेहता के प्रबंध काव्यों में मानवीय संवेदना: आधुनिक सन्दर्भ

रेखा सैनी

आधुनिक प्रबंध काव्यों के रचनात्मक आयाम उनके कवियों की सार्थक रचनाधर्मिता के ही प्रमाण है । इन प्रबंध काव्यों का प्रमुख सरोकार युगीन चेतना व मानवीय संवेदना की सशक्त अभिव्यक्ति है । मानवीय व्यक्तित्व, मानवीय प्रकृति व मानवीय सत्ता के संघर्ष व जिजीविषा के मूल्यांकन को प्रबंध काव्यकारों ने विविध रूपों में व्यक्त किया है । पारम्परिक कथाबंधों का नयी अर्थवत्ता के साथ ग्रहण इन आधुनिक प्रबंध काव्यों का महत्वपूर्ण आयाम है । ‘‘इसके अन्तर्गत अतीत के क्रम में वर्तमान को स्थापित करते हुए, परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समकालिकता का मूल्यांकन कर जीवनगत महत्वपूर्ण तथ्य एवं निष्कर्ष प्ररूतुत किये है ।’’[1]

संवेदना ही वह तत्व है जो कि कवि को काव्य रचना हेतु अग्रसर करती है । संवेदन जितना तीव्र होगा, उतना ही उसका तेज असर होगा और उसकी अभिव्यक्ति भी उसकी शक्ति व क्षमता के साथ हो सकेगी ।’’[2] अतः साहित्यकार एक संवेदनशील सृजक है । वह मानवीय अनुभूति को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखता हैं । नरेश मेहता जी का प्रबंध काव्य इसका प्रमाण है । आधुनिक कवि श्रीनरेश मेहता ने प्रबंध काव्यों में मानव के उन चिंरतन भावों की अभिव्यक्ति की है, जो युग परिवर्तन के साथ अपना स्वरूप व संदर्भ तो बदलते जा रहे है, लेकिन इनकी महता व प्रकृति आज भी शाश्वत उपस्थिति का संकेत करती है । नरेश मेहता के प्रबंध काव्य ‘संशय की एक रात’, ‘प्रवाद पर्व’ रामकथा आधारित तथा ‘महाप्रस्थान’ महाभारतीय कथा आधारित है । इन काव्यों का प्रमुख प्रतिपाद्य मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति है । इनका काव्य पाठक को संवेदना से जोड़कर सत्य की अनुभूति कराता है । मेहता जी की रचनाएं पाठक के संवेदन को गहराई और विस्तार प्रदान करती है ।

परम्परागत प्रबंध काव्यों की बाह्यता व स्थूलता को त्यागकर नरेश मेहता ने आधुनिेक चेतना के सूक्ष्म व संश्लिष्ट रूप को ही रचनाओं का आधार बनाया है । सम्पूर्ण कथा के स्थान पर किसी प्रसंग, घटना अथवा संदर्भ विशेष को लेकर ही प्रबंध रचनाएँ अधिक हो रही है । वैचारिक स्थापनाएँ, मनोगत भावों का अन्तर्द्वन्द, आधुनिक भाव दशाएँ आदि की प्रस्तुति ज्यों-ज्यों बढ़ती जा रही है, प्रबंधों की कथागत स्थिति भी स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ रही है ।’’[3] आधुनिक मानव की संवेदनाओं की अभिव्यंजना हेतु कवि नये प्रयोग करता है । युग जीवन के यथार्थ को चित्रित व अभिव्यक्त करना आधुनिक प्रबंध काव्यों का मूल उद्देश्य है ।

नरेश मेहता के प्रबंध काव्य ‘संशय की एक रात’ की रात में न तो ऐतिहासिक राम है और न भविष्य प्रणेता कहे जा सकते है । वे आज के कवि के लिए आधुनिक व्यक्ति की संशयात्मक मानसिकता व संकल्प-विकल्प की द्वन्द्वात्मक स्थिति को अभिव्यक्त करने का माध्यम है । राम के माध्यम से नरेश मेहता ने मानवीय संवेदन को स्पष्ट किया है । लक्ष्मीकान्त वर्मा इस सन्दर्भ में लिखते हैं- ‘‘आधुनिक विसंगतियों का राम में आरोपण तथा उनके माध्यम से अपने युगों की समस्याओं के समाधान के रूप में विपरीत मूल्यों, बोधों ओैर मान्यताओं के बीच एक सही दृष्टि अपनाने की प्रेरणा ही मूल अभीष्ट है ।’’[4] राम जब सीता की मुक्ति चाहते है युद्ध से पूर्व युद्ध जन्य विध्वंस के बारे में पूर्व विचार कर चिंतामग्न है । उस समय स्थिति का चित्रण इस काव्य में हुआ है । विभिन्न समस्याओं की अन्तर्द्वन्दता से जुझता राम स्वयं को सामूहिक निर्णय को सौपने पर भी पूर्ण आश्वस्त नही हो पाता । यही मानवीय संवेदना और वैयक्तिक विसंगति यहां स्पष्ट है जो आधुनिक मानव की भी विसंगति है-

“दो सत्य/दो संकल्प/दो-दो आस्थाएँ/व्यक्ति में ही अप्रमाणित व्यक्ति पैदा हो रहा है ।“[5]

***

“यदि मै मात्र कर्म हूँ/तो यह कर्म का संशय है/ यदि मैं मात्र क्षण हूँ तो यह क्षण का संशय है/

यदि मैं मात्र घटना हूँ / तो यह घटना का संशय है ।“[6]

अतः स्पष्ट है कि मानव की नियति संशयात्मक है । इस काव्य में मन की इस संशयात्मक संवेदना को अभिव्यक्ति मिली है । जो आाधुनिक मानव की मानसिक स्थिति, मनोव्यथा, आत्मसंशय की अभिव्यक्ति है । ‘‘मानस संवेदना और अनुभूति के आधार पर मूल्यों का अन्वेषण करता है । इस कृति के माध्यम से नरेश मेहता ने राम को एक प्रज्ञा प्रतीक के रूप में आधुनिक मानव का प्रतिनिधि बनाकर युगीन संशय वैषम्य और विंसगतियों के द्वारा युगानुरूप नयी धारणाए और नए मूल्य खोजने की चेष्टा की है आधुनिकता संस्कृति का एक नया दौर है । इस दौर में राम का मिथक अलग-अलग संवेदनात्मक और विचारात्मक संदर्भों से जुड़कर अभिव्यक्त हुआ है, नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’ में प्रस्तुत किया है । ‘संशय की एक रात’ मूल्यों और मान्यताओं के उहापोह को प्रस्तुत करने वाला काव्य है । परस्पर संघर्ष, विपरीत मूल्यों और मान्यताओं को समकालीन मूल्यों की कसौटी पर कसते हुए एक फेर-बदल किया है ।’’[7]

नरेश मेहता का ‘महाप्रस्थान’ प्रबंध काव्य महाभारत के युद्धोपरांत पाँडवों द्वारा द्रौपदी सहित स्वर्गारोहण हेतु प्रस्थान के प्रसंग पर आधारित है । इस प्रबंध काव्य में मेहता जी ने मानवीय संवेदनाओं को महाभारतीय समाज और युद्ध की पृष्ठभूमि में चित्रित किया है । ‘‘प्रत्येक मनुष्य के भीतर आरत्रिक रामायण सम्पन्न होती है तो आक्षण अपनक परिवेश में वह महाभारत का साक्षात करता है । अपनी प्रकृति, संस्कार, गुण, धर्म तथा स्वत्व के अनुरूप् हर इन कथा गाथाओं में हम अपना पक्ष निर्धारित करते है ।’’[8] राजव्यवस्था, युद्ध जनित परिस्थितियां व उसके कारण, राज्य की गरिमा के समक्ष मानव का अस्तित्व, जीवन मूल्य आदि भी काव्य में अभिव्यक्त हुए है । ‘‘युधिष्ठिर के महाप्रस्थापिक आख्यानक के माध्यम से कवि ने जिन संदर्भों को उठाया है उसमें चाहे अन्धे धृतराष्ट्र की कुटिलता हो या भीष्म और द्रोण जैसे आचार्यों का असत्य का पक्षधर होना हो या दुर्योधन का कुटिल दंभ अठारह दिन का महायुद्ध जिसमें विजयी और पराजित सभी अकिंचन से हो गए । आज के संदर्भ में उतना ही प्रांसगिक है ।’’[9] आधुनिक सन्दर्भ में ‘महाप्रस्थान’ जिस कथ्य को चित्रित करता है वह विशिष्ट होते हुए भी साधारण मानव की संवेदनाओं की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति ही कही जा सकती है । उदाहरणार्थ-

‘‘किसी भी साम्राज्य ये बड़ा है/ एक बंधु/ एक अनाम मनुष्य! /मुझे मनुष्य में विराजे देवता में/ सदा विश्वास रहा है ।’’[10]

‘‘सारे मानवीय दुःखों का आधार/ यह राज्य है/ राज्य व्यवस्था है और राज्य व्यवस्था का दर्शन है ।’’[11]

राज्य के नहीं धर्म के नियमों पर समाज आधारित है/ राज्य पर अंकुश बने रहने के लिए/ धर्म और विचार को/ स्वतंत्र रहने दो पार्थ!’’[12]

मेहता जी ने महाप्रस्थान में व्यक्ति की आन्तरिक भावाभिव्यक्ति, सुख-दुःख, धर्म, व्यवस्था, नियम, समाज आदि को आधुनिक स्वरूप प्रदान किया है । मानव मन की उद्गार, संवेदना को सहजता से अभिव्यक्त किया है । ‘‘राज्य व्यवस्था की अमानवीय क्रूरता निरंकुशता युद्धों की विनाशकारी भयावहता और व्यक्ति की महत्ता पर कवि ने सम्यक प्रकाश डाला है । इस पर्व में मूल महाभारत और व्यक्ति की महत्ता पर कवि ने सम्यक प्रकाश डाला है ।’’[13] इस कृति के चिन्तन का मूल केन्द्र बिन्दु युधिष्ठिर है जिसके द्वारा कवि ने तत्कालीन संवेदना और स्थिति को स्पष्ट किया है साथ ही समकालीन बोध भी प्रस्तुत किया है इस प्रकार युधिष्ठिर मूल्यान्वेषी व्यक्ति है ।

‘प्रवाद पर्व’ नरेश मेहता का तीसरा प्रबंध काव्य है । इस काव्य मे कवि ने व्यक्ति की अभिव्यक्तिजन्य स्वतंत्रता के मूल अधिकार के संरक्षण हेतु राज्य एवं व्यक्ति संबंधों को प्रस्तुत किया है । रामायण के सीता निर्वासन के प्रसंग का कारण एक धोबी का प्रवाद था । आधुनिकता के सन्दर्भ में कवि ने व्यक्ति की इयत्ता, मानवीय गरिमा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व उसके मूल्य आदि के रूप् में अनेक समसामयिक संदर्भों को कृति का कथ्य बनाया है । वर्तमान मानव की संवेदनात्मक समस्याओं की अभिव्यक्ति कवि ने इस प्रबंध काव्य में की है । मानव आपातकालीन स्थितियों, दबावों, तनावों और नियंत्रणों में अक्षुण्ण रह सके, इस हेतु प्रवाद पर्व का सर्जन हुआ । उदाहरणार्थ-

‘‘जब भी/ ऐसी तर्जनी उठती है/ तब/ राजतंत्र और इतिहास कोलाहल से भर उठते है/ क्योंकि/ वह मात्र अंगुली नहीं होती राम! उसका एक प्रतिऐतिहासिक व्यक्तित्व होता है/ महत्व भी ।’’[14]

‘‘मनवीय स्वातंत्र्य/ मानवीय भाषा और/ मानवीय अभिव्यक्ति के प्रतिइतिहास का सामना/ वैसी ही / मानवीय प्रतिगरिमा के साथ करना होगा लक्ष्मण!’’[15]

‘‘राज्य और न्याय को / प्रतिष्ठापित होने दो भरत! यदि ये तत्वदर्शी नहीं होते तो एक दिन/ निश्चय ही ये भय के प्रतीक बन जायेंगें ।’’[16]

नरेश मेहता के आधुनिक राम ने मानव की प्रत्येक अभिव्यक्ति को महत्व प्रदान किया है । मानव के राज्य के प्रति भय का निष्कासन कर निर्भय बनाया है । जो अपनी संवेदनाओं को राजा के समक्ष प्रकट कर सके तथा राज्य उसके कथनों को, अभिव्यक्ति को सम्मान प्रदान करे । इस हेतु श्री राम को अपने दाम्पत्य संबंधों की बलि भी देनी पड़ी है । केवल एक साधारण मानव के स्वतंत्र कथन को सम्मान अर्थात प्रजा के अभिव्यक्ति के सम्मान हेतु । नरेश जी ने इन प्रसंगों मे महामानव को साधारण मानव की संवेदना का संस्पर्शी घोषित किया है ।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि युग जीवन के यथार्थ एवं मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति आधुनिक प्रबंध काव्यों का प्रमुख उद्देश्य है । आधुनिकता ने सर्वप्रथम युग व युग की आवश्यकता व मांग को आंकलित किया है । वर्तमान प्रबंध काव्य रचनाओं का स्वरूप जितना सूक्ष्म व लघु हुआ है उतना ही विस्तृत विशद व गहन अभिव्यक्ति ये काव्य कर रहे है । नरेश मेहता ने प्रबंध काव्यों में युगीन संवेदना, संघर्षशील मानवास्था, मूल्यगत संक्रमण, युगीन यथार्थ व नवनिर्मित मूल्यबोध आदि संदभों में चित्रित किया है । मानवीय संवेदन की इस परिचर्चा में मानवीय नियति को किसी संकुचित भाग्यवादी दृष्टि से नहीं अपितु व्यापक आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखा गया है ।

संपर्क:
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
वनस्थली विद्या पीठ (राजस्थान)

[1] डॉ. उर्वशी शर्मा, नव्य प्रबंध काव्यों में आधुनिक बोध, प्र.स. 15, बोहरा प्रकाशन, जयपुर, 1997

[2]डॉ. नवीन चन्द्र लोहनी, अज्ञेय की काव्य चेतना के आयाम, पृष्ठ  सं. 91, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 1996

[3] डॉ. उर्वशी शर्मा, नव्य प्रबंध काव्यों में आधुनिक बोध, प्र.स. 9, बोहरा प्रकाशन, जयपुर, 1997

[4]लक्ष्मीकांत वर्मा, नयी कविता के प्रतिमान, पृष्ठ  सं. 259

[5]नरेश मेहता, संशय की एक रात, प्र.सं. 22-23

[6]वही,  पृष्ठ  सं. 51

[7]अनीता कुमारी, कविता में नरेश मेहताः एक अनुशीलन, पृष्ठ  स. 75, लोकवाणी संस्थान, दिल्ली, 1997

[8]नरेश मेहता, समीधा भाग-2, भूमिकाएं, पृ.सं.537, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994

[9]अनीता कुमारी, कविता में नरेश मेहताः एक अनुशीलन, पृ.स. 83, लोकवाणी संस्थान, दिल्ली, 1997

[10]नरेश मेहता, महाप्रस्थान, पृष्ठ  सं. 98

[11]अनीता कुमारी, कविता में नरेश मेहताः एक अनुशीलन, पृ.स. 86, लोकवाणी संस्थान, दिल्ली, 1997

[12] वही , पृष्ठ  सं. 110

[13] वही , पृष्ठ  सं. 110

[14]नरेश मेहता, प्रवाद पर्व, प्र.सं. 13

[15] वही ‘‘      ‘‘ पृष्ठ  सं. 38

[16]वही ‘‘      ‘‘ पृष्ठ  सं. 30    

अज्ञेय की काव्य संवेदना और असाध्यवीणा

रामचन्द्र पाण्डेय

प्रयोगवादी कवियों में अग्रगण्य सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय शब्दों में नये अर्थ का अनुसन्धान करने वाले बल्कि यूँ कहें कि अर्थों मे नयी चेतना की जीवन्त झंकृति भरने वाले स्वर साधक रचनाकार हैं । उनकी रचनाओं का दायरा बहुत विस्तीर्ण है जिसमें प्रमुखतया अपने देश की माटी की सोंधी सी गन्ध सर्वत्र व्याप्त है। एक ओर उनके काव्य में आशा की ज्योति का और अदम्य उत्साह का प्रवाह है तो दूसरी ओर जीवनजन्य अनुभवों की व्यापकता भी चित्रित है। एक ओर वे मृत होते हुए शब्दों में नयी जान फूंक  देते हैं तो दूसरी ओर शब्दों को एक नवीन अर्थ भी प्रदान करते चलते हैं। वे सच्चे अर्थों में शब्द-संधित्सु साहित्यकार हैं। पं0 विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में- ‘‘वे शब्द की खोज के लिए परेशान नहीं हैं, परिचित शब्दों मे नये अर्थ की खोज करना चाहते हैं, परिचित प्रत्ययों में नये प्रत्यय की खोज करना चाहते हैं। वे परायें देशों की बेदर्द हवाओं और उनके नंगे अंधेरे से खिन्न विकल और संत्रस्त हैं, केवल अपनी छोटी सी ज्योति से आश्वस्त हैं क्योंकि यह ज्योति उनकी अपनी है, अपने प्रयत्न से अर्जित है, अपने अनुभवों से दीप्त है”।[1]

वस्तुतः वे एक साथ जीवन में अर्थ का सन्धान करने वाले रचनाकार हैं और रचना में अर्थ का अनुसंधान करने वाले आलोचक भी और साथ ही साथ वे आधुनिक भारतीय चिन्तकों की उस शीर्षस्थ श्रेणी में भी परिगणित हैं जो अपनी साहित्य साधना से वास्तविक जीवन में समरसता की वीणा के स्वरों की मधुर झंकृति सुनना चाहता है और उनकी इसी साधना की परिणिति है ‘असाध्यवीणा‘। असाध्यवीणा वस्तुतः समष्टि में व्यष्टि के विलयन का विश्व-वीणा के स्वर की झंकृति में अपने अहम् के बलिदान की मानवीय रचनात्मकता की अदम्य जीवनी शक्ति का जीवन्त दस्तावेज है। तभी तो केशकम्बली प्रियंवद के आगमन पर राजा के विश्वस्त कण्ठ से यह स्वतः प्रस्फुटित होता है कि-

‘‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।

भरोसा है अब मुझको

साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी”।[2]

इन पंक्तियों के माध्यम से अज्ञेय यह कहना चाहते हैं कि जनसमुदाय ऐसे व्यक्तियों पर ही विश्वास कर सकता है जिसने निरन्तर साधना के द्वारा अपने अहं का विसर्जन कर दिया हो, स्वत्व का विलयन कर दिया हो, ऐसा व्यक्ति ही, ऐसा साधक ही विश्व-वीणा में मानवीय स्वरों की, समरसता की झंकृति को भर सकता है, उसकी छुअन से ही विश्व-वीणा की रागिनी प्रकट हो सकती है। अब तक के सारे कलावन्तों की असफलता का कारण भी यही था कि उनमें अकारण दर्प और अहंकार विद्यमान था। राजा का यह कथन इस बात का प्रबल साक्ष्य भी प्रस्तुत करता है-

“मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,

सब की विद्या हो गयी अकारण, दर्पचूरः

कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।

अब यह असाध्यवीणा ही ख्यात हो गयी।

पर मेरा अब भी है विश्वास

कृच्छ् तप बज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।

वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी

इसे जब सच्चा स्वरसिद्ध गोद में लेगा”।[3]

अज्ञेय का मानना है कि कोई कलाकार सच्चे अर्थों में कलाकार तभी होगा जब उसने अपनी कला में अपने व्यक्तित्व को घोल दिया हो, वह अपनी साधना में इस प्रकार डूब जाय कि साध्य और साधक का भेद ही मिट जाय और बचे तो सिर्फ साधना जो अपने ही प्रकाश से भाष्यमान होकर जगत् में फैली हुई कालिमा को भस्मीभूत कर सके।

असाध्यवीणा का नायक प्रियंवद भी अपने व्यक्तित्व को अपनी साधना में घोलकर इस प्रकार एकतान हो जाता है कि उसके स्वत्व का कहीं पता ही नहीं चलता। वह जानता है कि साधना समर्पण माँगती है और समर्पित व्यक्ति ही अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। हिन्दी के भक्तिकालीन कवियों ने भी परमात्मा के चिन्तन में अपने आपको इस प्रकार संलग्न करने की शिक्षा दी कि स्वयं ‘आत्म‘ में ही ‘परमात्मभाव‘ जाग उठे- ‘जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होइ जाई, मानुष प्रेम भयऊ बैकुण्ठी, हरिजन ऐसा चाहिए जैसा हरि ही होय‘ जैसी पंक्तियाँ इस बात की साक्षी हैं। प्रियंवद भी तो वीणा से यही निवेदन करता है-

‘‘मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!/ओ रे तरु! ओ वन!

ओ स्वर-सम्भार?/नादमय संस्कृति!/ओ रस प्लावन!

मुझे क्षमाकर- भूल अकिंचनता को मेरी-

मुझे ओट दे-ढँक ले- छा ले-/ओ शरण्य!

मेरे गूंगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!

आ मुझे भुला,/तू उतर बीन के तारों में

अपने से गा/अपने को गा-

अपने खग कुल को मुखरित कर

अपनी छाया में पले मृगों की चैकडि़यों को ताल बाँध,

अपनी छाया तप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर

अपने जीवन-संचय को कर छन्दयुक्त,

अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!/तू गा, तू गा-

तू सन्निधि पा- तू खो/ तू आ- तू हो- तू गा! तू गा”![4]

और इसी का परिणाम है कि प्रियंवद सदियों से न साधी गयी वीणा में एक ऐसे स्वर को गुंजायमान बना देता है जो सबको अपना लगता है-

‘‘किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल ध्वनि

किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।

किसी एक को जाल फँसी मछली की तड़पन-

एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिडि़या की”।[5]

क्या ये पंक्तियाँ कामायनीकार जयशंकर प्रसाद की इन पंक्तियों की याद नहीं दिलाती-

‘‘समरस थे जड़ या चेतन सुन्दर साकार बना था

चेतनता एक विलसती आनन्द अखण्ड घना था।‘‘

वस्तुतः ‘जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी‘ कलावन्त विश्व-वीणा में ऐसे ही स्वरों की झंकृति भरना चाहता है जिससे सभी सुखी, सम्पन्न और आनन्दपूरित हों। इन्हीं अर्थों में अज्ञेय सच्चे स्वर साधक से सच्चे जीवन साधक रचनाकार बन जाते हैं। खासियत यह कि सारी ऊर्जस्वित साधना के बावजूद श्रेय स्वयं न लेकर उसी सर्वशक्तिमान, समष्टि के आराध्य को समर्पित कर देता है-

‘‘श्रेय नहीं कुछ मेराः

मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-

वीणा के माध्यम से अपने को मैनें

सब कुछ को सौप दिया था”।[6]

यही समष्टिभाव की आराधना और विश्व-वीणा में अपने स्वर को विलीन कर देना ही ‘असाध्यवीणा‘ को साध्य बना देता है और अज्ञेय को जीवन के विविध अनुभवों की वास्तविकता का साक्षी भी। अस्तु वे एक सच्चे जीवन-साधक रचनाकार बन जाते हैं।

संपर्क:
शोधछात्र,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी, उत्तर प्रदेश

[1] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 32

[2] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 94      

[3] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 95

[4] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 101-102

[5] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 104

[6]मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय पृ0सं0 105

भगवती देवी की कविताएँ

कैद के अन्दर कैद  

देखा सड़कों को उदास 

गलियों को रोते हुए 

मैंने देखा 

सड़कों को सुबकते हुए 

समय बिलकुल थम गया

हमें घर में कैद 

होना पड़ा 

और छोड़ना पड़ा

सड़कों को सड़कों पर उदास।

यह ऐसा समय था 

जिसमें सड़कों पर 

नहीं थे स्कूल जाते बच्चे

न ही अख़बार बेचते बच्चे

नहीं था ठेले वाला 

नहीं था रिक्शे वाला 

नहीं थी गाड़ी 

नहीं थी रेलगाड़ी

हवाई जहाज़ के पहिए भी 

रुक गए

ये ऐसा समय था 

जब योगी गेट*  की सांसे भी 

फूल चुकी थी 

अन्तिम यात्रा को कंधा नहीं था

सड़कों के साथ 

पूरा संसार उदास था 

ये संदेह से भरा समय था 

डर को और ज़्यादा महसूस किया

यह कैद के अन्दर 

एक और कैद की यातना का समय था।  

*(योगी गेट – जम्मू में एक शमशान घाट)

उसकी आँख

मुझमें वह ढूँढ़ा गया

जो मुझमें था ही नहीं

मीलों चलकर भी 

वह मुझ तक कभी न पहुँच सका

वह जिस दिशा में चलता रहा

वहाँ मेरी तलाश का एक बीज तक न था

वहाँ तो उसकी अपनी आँख टंगी थी।

नाप

जीवन जीना सबके हिस्से में कहाँ

बेहतर सोचना सबके हिस्से में कहाँ

मन की पतंगे उड़ाना सबके बस में कहाँ

सबकी छाप में कहाँ-

भीड़ छोड़कर

सामूहिक गीत गाना सबके गलों की नाप में कहाँ !

 

दिलवाला ना मिला

सुबह से शाम

महीने से साल

साल भर से साल भर

घूमा गया शहर

 कोई रूह में

उतरता ना मिला

ठग मिले

लोभी मिले

बातों में बातें डालने वाले मिलें

कान के कच्चे मिलें

बने बनाएं दिमाग  के मिलें

 हाथ से तंग मिलें 

कईं बेढंग मिलें

कोई बड़े  दिल वाला ना मिला …

एक दूसरे को

चूसने वाले मिलें

नोचने वाले मिलें

रीड की हड्डी

तोड़ने वाले मिलें …

टूटते घर मिलें

टूटे व्यक्ति मिलें

बिखरे-बिखरे

पल मिलें

कोई अपना ना मिला ।

माँ

मैं देख रही थी

चुपके से

खिड़की के झरोखे से

मां के माथे पर

उभर आ‌‌ईं सिलवटें …

वहां नहीं थी वह

जहां दिख रही थी

वह पढ़ रही थी

खोज रही थी खुद को

65 की उम्र में…

जो बहुत पहले थी

इस समय हरगिज़ नहीं थी वह

उसके द्वारा बुने गए

तमाम सपने,

तमाम उड़ानें और आकांक्षाएं हवा में ही थीं…

कहां गया उसका समय

जो उसकी मुट्ठी में था

कहीं फिसलता ही चला गया

रेत की भांति

जीवन की पगडंडी पर

चलते-चलते…

माथे की सिलवटें बताती

वह भरे पूरे घर में

अकेलेपन का दंश झेल रही है

सबकी ज़िंदगियां बनाने के बाद

अब वह कहीं नहीं थी…

उसी दिन निहार रही थी शीशा

तलाश रही थी वह  खुद को

झुर्रियों से भरे चेहरे में…

आज वह थकी हुई

बैठी थी चूल्हे के पास…

बस चूल्हा ही था

जो उसे भीतर तक समझ पाया

भरे पूरे घर में…

वही एक खास साथी निकला

जिससे मां

जीवन के गूढ़ रहस्य

साझा करती

और तृप्त रहती…

कर भी क्या सकते हो

जो रास्ते में हैं

मंज़िल पा ही लेंगें

यू भ्रमित करने से

थोड़ा ही घबराती हूं

होले होले से

तोड़ने की कोशिश…

यह सब बेकार है

तुम्हारी चिकनी चुपड़ी बातों में

थोड़ा ही आने वाली हूँ

तमाम  साजिशों को

मिट्टी में मिलाने वाली हूँ।

यह मेरी पीठ के निशान

मिटाने से तो नहीं मिटेंगे

रचा है तुमने अपने कर्मो का इतिहास

तुम्हारी चालाकियों से थोड़े ही मिट जाएगा।

अहं से चूर कर भी क्या कर सकते हो

यही कर सकते हो ।

इस शहर से…

यहाँ  तो 

बड़े-बड़े लोगों की 

छोटी-छोटी बातें हैं 

यह चाहिए क्या…

यहाँ तो 

छोटे-छोटे लोगों के 

बड़े-बड़े सपनें 

फैक्टरी से निकलते धुंएं में ही 

धुआंधार हो जाते हैं

यहाँ एक्सक्यूज मी कहकर

बदले जाते हैं इरादे 

खचाखच शहर में

चींखें नहीं देती सुनाई कहीं भी 

मन की भयंकर पीड़ा

मन में ही घूमतीं है यहां 

मन में ही लड़े जाते हैं युद्ध

और हिल जाती  हैं 

व्यक्ति की ही पसलियां …

यहाँ तो 

अच्छा भला व्यक्ति 

या तो 

मनोरोगी हो जाता है 

या फिर 

भोगी हो जाता है

इस शहर से 

तुम्हें चाहिए क्या…

संपर्क :
भगवती देवी
लेक्चरर, हिंदी विभाग
जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू
जम्मू – कश्मीर
drbhagwativ@gmail.com

बदलते परिदृश्य में स्त्री का स्वरूप

-स्वाति सौरभ

वक्त के साथ सोच और भारत में स्त्रियों की स्थिति में बहुत बदलाव हुए हैं। आज जहाँ नारी पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है, वहीं किसी-किसी क्षेत्र में तो पुरूषों को पीछे छोड़ती भी नजर आ रही हैं। पुरुष प्रधान समाज में प्राचीन काल से ही नारी कई रूढ़िवादी परम्पराओं की बेड़ियों में बंधी रही है। जो आज कम जरूर हुई हैं परन्तु खत्म नहीं। कल भी नारी पर ही उंगली उठती थी और आज भी कटघरे में नारी ही खड़ी रहती है। चुनौतियां खत्म नहीं हो रही बल्कि बदलते परिदृश्य में नए नए रूपों में सामने खड़ी हो रही हैं।

ये भी कटु सत्य है कि वक्त चाहे कितना भी बदल जाए लेकिन औरत को अपने हक के लिए पहले खुद को साबित ही करना पड़ा है। रामायण में जहाँ सीता के चरित्र पर ही उंगली उठी, राम पर नहीं। सीता को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और धरा में समाकर खुद को पवित्र साबित करना पड़ा। महाभारत में भी द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया गया, बिना उनकी मर्ज़ी के। क्योंकि शायद औरत होने के कारण उनसे उनकी मर्ज़ी जानना जरूरी नहीं समझा गया। आज भी वक्त जरूर बदला है, नारी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति में सुधार हुई है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नारी की क्षमता पर आज भी सवाल खड़े किए जाते हैं। जिसका एक ताज़ा उदाहरण है अभी हाल में 17 वर्षों से चल रही लंबी कानूनी लड़ाई के बाद महिलाओं को सेना में बराबरी का हक मिला है। इस कानूनी लड़ाई में विपक्ष की ओर से दलील में महिलाओं की शारीरिक, मानसिक क्षमताओं पर सवाल उठाए गए थे। जिसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी कि सरकार अपनी मानसिकता बदले। हम महिलाओं पर एहसान नहीं कर रहे, उन्हें उनका हक दे रहे हैं। अजीब बात है न ! नारी की क्षमता पर ही सवाल क्यों? सुप्रीम कोर्ट द्वारा मिली इस जीत ने ये तो जरूर साबित कर दिया कि महिलाओं को कमजोर समझने वाली मानसिकता में अब बदलाव लाने की जरूरत है।

आज नारीशक्ति ने लगभग हर क्षेत्र में अपना परचम लहराया है। सिर्फ घर की ही शोभा बनकर आज नारी नहीं रह गई है, जिस भी क्षेत्र में काम करती हैं अपनी निष्ठा पूर्वक काम करने के तरीके से, अपनी मेहनत से खुद की अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं। आईएमएफ जैसी संस्था की चीफ भी बनकर नारी ने दिखाया दिया है कि कोई भी क्षेत्र या कार्य उनसे अछूता नहीं है। बैंक, रेलवे, टीचिंग जैसे क्षेत्रों में सेवा देकर अपनी पहचान बना चुकी हैं वहीं अब खेल के क्षेत्र में भी अपना दमखम दिखाया है। एवरेस्ट की चोटी पर भी फतह करने वाली नारी की शारीरिक क्षमता पर सवाल उठाया जाना कितना सही है! जो स्त्री 25-30 वर्षों तक अपने घर रहकर जब शादी कर दूसरे के घर जाती है तो उस परिवार को भी अपना बनाने का प्रयास करती है। जो स्त्री दूसरे परिवार में खुद को शामिल कर लेती है, उन्हें अपना बना लेती है, उनकी मानसिक क्षमता पर सवाल उठना क्या सही है?

नारी मां बनकर अपनी जिम्मेदारियां संभालती हैं तो पत्नी बनकर अपना धर्म भी निभाती हैं। बेटी बनकर घर की शोभा बढ़ाती हैं तो बहन बनकर साथ भी निभाती हैं और जब जरूरत पड़ती है तो यही नारी शस्त्र भी उठाती हैं। अगर नारी ने हाथ में चूड़ी, गले में मंगलसूत्र और मांग पर सिंदूर लगा कर अपने संस्कारों का परिचय देती हैं तो यही नारी रानी लक्ष्मीबाई बनकर अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए तलवार भी उठाती हैं। सावित्री बनकर यमराज से पति के प्राण भी वापस मांगकर लाने की क्षमता रखती हैं। अगर नारी की सहनशक्ति धरा स्वरूप है तो यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी का भी रूप धारण करती है।

इस पुरुष प्रधान समाज ने कई तरह के कुरीतियों और अंधविश्वासों को संस्कार और परम्परा का नाम देकर महिलाओं को हमेशा से ही जंजीरों में बांधे रखने की कोशिश की है। जैसे – जैसे महिलाएं शिक्षित होती गईं खुद को इन जंजीरों से तोड़कर बाहर निकालने में सफल हुई हैं। लेकिन आज के दौर में भी कई परम्पराओं की बेड़ियों से बंधी महिलाएं, अंधविश्वास को आस्था का नाम देती नजर आती हैं। परन्तु वक्त में काफी हद तक बदलाव हुए हैं और होते भी रहेंगे। महिलाएं हर क्षेत्र में खुद को साबित कर चुकी हैं और अपना परचम भी लहरा रही हैं और लहराती रहेंगी।

स्वाति सौरभ
भोजपुर, बिहार
sourabh.swati6@gmail.com

आदिवासी विरासत और जीवन-यथार्थ का प्रतिनिधि स्वर: कोनजोगा

समीक्षक : पुनीता जैन

आदिवासी गीत-परंपरा के वाचिक रूप में उनका सहज जीवन-बोध, प्रकृति-प्रेम, संस्कृति, स्थानीयता की मौलिक गंध मौजूद है जो उनकी आत्मा के संगीत और जीवन की स्वाभाविक लय के साथ अभिव्यक्त होती रही है। जबकि वर्तमान परिवेश में लिखी जा रही आदिवासी कविता उनकी गरिमा को पहुँचाए गए आघात के विरूद्ध प्रतिरोध की आवाज़ है। साथ ही इसमें अतीत और वर्तमान परिस्थितियों के अन्तर्विरोध, सांस्कृतिक संक्रमण, सामाजिक विद्रूप, संघर्ष और यातना के चित्र भी उत्कीर्ण हुए हैं। अपने मूल निवास से बार-बार के विस्थापन का त्रास केवल पीड़ा को ही नहीं वरन् भविष्य के प्रति एक गहरी चिंता को भी जन्म देता है, जिसमें जंगल ही नहीं सम्पूर्ण प्रकृति, आदिवासी संस्कृति, भाषा और अस्मिता के लिए विकलता निहित है। इसी विकल स्वर को अभिव्यक्ति देने हेतु आदिवासी कवि हिन्दी में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। अपने स्थान से विच्छिन आदिवासी समुदाय जड़विहीन होकर जिन भीषण स्थितियों का सामना करने को विवश हुआ, दमन, हिंसा और यातना से गुजरता रहा, हिन्दी जगत को उसके विशद रूप से परिचित होना अभी शेष है। अपने मूलभूत परिवेश से उखड़ा यह समुदाय नैसर्गिक आर्थिक आत्मनिर्भरता से ही विच्छिन्न नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश, जीवन-शैली और स्वाभाविक पर्यावरण से ही विलग कर दिया जाता है, ऐसी स्थिति में उनकी पहचान का संघर्ष, पहचान के नित खंडित होते जाने का भी संघर्ष है। वर्चस्वशाली संस्कृति, भाषा और जीवन-शैली की अधीनता की स्थिति में अस्मिता के संकट की चिंता का अधिक प्रखर हो जाना स्वाभाविक है। वस्तुतः सांस्कृतिक और सामाजिक दमन, उत्पीड़न और अन्याय की स्थिति में कविता ही वह जगह है जहाँ यातना के सत्य की आवाज़ को विस्तार मिलता है। वर्तमान आदिवासी कविता अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अन्याय को स्वर देते हुए प्रकृति और मानव के संबंधों पर पुनर्विचार के लिए जगह बनाने का कार्य करती है। वंदना टेटे इसी स्वर की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, वे न केवल आदिवासी विचार और दृष्टि को दृढ़़तापूर्वक हिन्दी जगत के सम्मुख रखती हैं बल्कि अपनी रचनाशीलता द्वारा भी प्रभावित करती हैं। वंदना टेटे का आदिवासियत विषयक चिंतन अत्यंत मौलिक और प्रखर है। वे स्पष्टता से अपना मन्तव्य रखते हुए आपत्तियाँ दर्ज कराती हैं।

खड़िया भाषी वंटना टेटे की प्रथम कविता ‘समझौता’ आदिवासी’ पत्रिका में सन् 1984-85 में छपी थी। ‘कोनजोगा’ (2015) उनका प्रथम काव्य-संग्रह है। ‘कोनजोगा’ ‘एक पहाड़ है जो खड़िया आदिवासी समुदाय का सांस्कृतिक स्थल है तथा झारखंड के गुमला जिले में स्थित है। आदिवासी कवि कविता विधा को किस रूप में देखते हैं, तद्विषयक विचार जानना आवश्यक है। वंदना टेटे का साहित्य के स्थापित मानदंडों को अस्वीकार करने व कविता को अपने नज़रिए से देखने का सुस्पष्ट तर्क व दृष्टिकोण है- “मैंने कभी ये नहीं सोचा कि लिखी गयी कविता अच्छी है या नहीं। कविता है भी या कि नहीं। मुझे लगता है कि जैसे पेड़-पौधों पर नैसर्गिक रूप से फूल खिलते हैं, आसमान में सूरज, चाँद-सितारे और बादल मनोहारी कलाएँ रचते हैं वैसे ही व्यक्ति की भावनाएँ और विचार शब्दों के जरिए कोरे पन्नों पर टंग जाया करते हैं। कविता के प्रतिमान कैसे होने चाहिए या काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कविता में किन-किन लक्षणों का होना जरूरी है, ये सब वर्चस्ववादी बाधाएँ हैं। गैर आदिवासी काव्य-परंपरा से ऐसे सामंती और आलोचकीय वर्चस्व को छिनवा कर ही कविता के नैसर्गिक विश्व की रक्षा की जा सकती है। जैसे कि आदिवासी काव्य -परंपरा है जहाँ कोई आलोचक नहीं होता बस एक सामूहिक जीवन-दृष्टि होती है जिसमें निजता और सामूहिकता इस तरह से गुंथे हुए होते हैं कि दोनों को गैर आदिवासी विश्व के ‘दूध और पानी’ दर्शन की तरह अलग ही नहीं किया जा सकता। इसीलिए मेरी कविता मुझे ‘कोरोया’ सी लगती है। कोरोया जंगल का सफेद रंग का एक फूल है जो गुच्छे में खिलता है। बहुत आकर्षित करने वाली सुगंध उसमें नहीं होती पर वह हमें प्रिय है।“ (कोनजोगा, पृष्ठ-6) वस्तुतः प्रभुत्वशाली काव्यशास्त्रीय आग्रहों से विलग आदिवासी लोक-स्वर की अत्यंत सहज-सरल और सीधी कहन परंपरा है, बिना साज-सिंगार और बनावट की। इस सहज स्वाभाविक काव्य-कर्म में स्थानीयता की लोक-गंध है, आदिवासी जीवन-जगत है, जंगल और प्रकृति के बीच रचे-बसे आदिम संस्कृति के सहज स्वर हैं, वृक्ष, फल-फूल, नदी, पहाड़ के सान्निध्य में डूबे पर्व, त्योहार और ज्ञान परंपराएँ तथा उसके विलुप्त होते जाने का त्रास और चिंताएँ हैं, सामाजिक न्याय की स्वाभाविक आवाज़ है।

आदिवासी विचारक वंदना टेटे के काव्य-कर्म में कविता के प्रतिमानों और हिन्दी काव्य मुहावरे की जगह आदिवासी सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और चुनौतियों की अनलंकृत और स्वाभाविक प्रस्तुति पर दृष्टि डाली जाए तो उसमें एक सजग आदिवासी चिंतन-दृष्टि और आत्मानुभूति से संपृक्त एक प्रखर स्वर मिलेगा। वे हिन्दी में प्रस्तुत कविता में बेहिचक खड़िया भाषा और उसकी गीतात्मकता को उसकी स्थानीयता के साथ संयोजित करके एक स्वाभाविक कला-कर्म द्वारा अभिव्यक्त होती हैं – “हां, हम सुन रहे हैं लोहे का गीत/ नेतरहाट के पाट पर ए दीदी लसय लसय… /हाँ, हम सब भी कमान तान रहे हैं /डोम्बारी पहाड़ पर ए संगी रियो रियो /हाँ, हमारे भी पैर थिरक रहे हैं /बीरू दिसुम में ए सांगो धिरोम धिरोम।“ (वही पृष्ठ-85) इस काव्याभिव्यक्ति में आदिवासी गीत-परंपरा की ध्वन्यात्मकता, संगीत के साथ अत्यंत कुशलता से विरोध को भी जगह मिल गयी है। आदिवासी संस्कृति, परपंरा, भाषा व पहचान की गंभीर चिंता के साथ उनकी कविता में भूमंडलीकरण से आदिवासी क्षेत्रों में हुई घुसपैठ से उत्पन्न अस्तित्व-संकट का तीव्र बोध है। उनकी काव्य-चेतना में आदिवासी सांस्कृतिक मूल्यों, प्रतीकों को बचाने की दृढ़ता तथा आदिवासी अस्मिता और आत्मसम्मान की रक्षा का प्रबल भाव भी है। प्रकृति की उपस्थिति यहाँ सौन्दर्यवादी दृष्टि के अनुरूप नहीं है बल्कि जीवन में घुली-मिली, उसके स्वाभाविक सान्निध्य और आस्था के केन्द्र के रूप में है। ‘कोनजोगा’ की कविताएँ इसी नयी अनुभव-भूमि व भाव-दृष्टि द्वारा आदिवासी जीवन-यथार्थ से परिचय कराती हैं। आदिवासी काव्य-लेखन में अनुज लुगुन, निर्मला पुतुल, जसिंता केरकेट्टा जैसे हिन्दी द्वारा अपनाए गए हस्ताक्षरों के बीच वंदना टेटे अपनी स्वतंत्र और प्रखर भंगिमा के साथ उपस्थित हैं जहाँ वे एक कवयित्री से अधिक एक प्रखर आदिवासी स्वर होने का बोध कराती हैं। बेशक अपनी शर्तों पर टिका यह काव्य-कर्म मौलिकता का परिचय देने में सक्षम है।

वंदना टेटे को साहित्यिक संस्कार विरासत में अपने नाना प्यारा केरकेट्टा तथा माँ रोज केरकेट्टा से मिले। इन्हीं से प्राप्त सामाजिक, राजनीतिक दृष्टि और आदिवासी संस्कार ने उन्हें आदिवासियत और आधुनिक जीवन-बोध को साथ रखकर समझने की वह दृष्टि दी जिसके द्वारा वे वर्तमान परिदृश्य में आदिवासी जीवन-दर्शन, संस्कृति तथा उसके समक्ष उपस्थित संकट और चुनौतियों को संतुलित रूप से विश्लेषित करने की योग्यता अर्जित करती रही हैं। इस दृष्टि का परिचय उनकी कविताएँ भी कराती हैं। सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में वे बाह्य प्रभाव के साथ आंतरिक स्थितियों पर भी पैनी दृष्टि रखती हैं। भौतिकवादी जीवन-शैली में डूबी आधुनिकता ने आदिवासी समाज की नयी पीढ़ी को उनकी मूल संस्कृति से दूर किया है जिसके प्रति एक गहरी चिंता उनकी कविता ‘हमारे बच्चे नहीं जानते तोतो-रे नोनो-रे’ में दिखाई देती है। वस्तुतः  आदिवासी समाज उन्मुक्त प्रकृति के सान्निध्य में स्वतंत्र विचरण करता हुआ अपनी ज्ञान-परंपरा, पर्व-त्योहार, और उस जीवन-दृष्टि को प्राप्त करता रहा है जिसकी बुनियाद सहजीविता, सहअस्तित्व है। प्रकृति व संपूर्ण सृष्टि के साथ जीवन जीने की यह दृष्टि उन परिस्थितियों में कैसे विकसित हो सकती है जब तकनीक से घिरी पीढ़ी अपने संकुचित संसार में सीमित हो- ‘और बंद कमरे में सारे मौसम/ गुजर जाते हैं।’ (पृष्ठ-11) आदिवासी जीवन-दृष्टि और नवशिक्षित वर्ग की आधुनिक जीवन-शैली के मध्य-बिन्दु पर अपने बच्चों के माध्यम से आदिवासी परंपरा के अस्तित्व और भविष्य को लेकर गहरी चिंता और पीड़ा इन पंक्तियों में अभिव्यक्त की गयी है- “सच में /मैं चिंतित और उदास हूँ /कि नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे / डोरी, कुसुम से तेल निकालने की /मछली और चिड़िया पकड़ने की /देशज तकनीक /महुआ लट्ठा, इमली के बीज के साथ /औटाया गया खाने का स्वाद /सरहुल पर्व से पहले /जंगल के फल फूल को तोड़ने खाने की मनाही /करमा के बाद खेतों में खड़ी / भेलवा की टहनियों का राज /आह! नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे ।“ (पृष्ठ-12)

नयी पीढ़ी को तकनीकों की बहुत सी जानकारियाँ हैं किन्तु ‘बारिश से पहले चीटियाँ अपने अंडे लेकर क्यों भागती है इसकी कोई जानकारी नहीं है। आधुनिक समाज यथार्थ से ज्यादा आभासी दुनिया की जानकारी रखता है। परिणामस्वरूप प्रकृति और जीवन-यथार्थ के साथ सहज संबंध खंडित हुए हैं तथा मनुष्य के स्वार्थ ने प्रकृति का अपार दोहन किया। आदिवासी जीवन-शैली जमीनी यथार्थ और प्रकृति से गहरी जुड़ी है तथा उसके अनुभव-जगत में प्रकृति और जीव-जगत से जुड़ी अनगिनत जानकारियाँ है, जिसका लिखित इतिहास नहीं है। इस ज्ञान-परंपरा से वंचित पीढ़ी प्रकृति और जैव विविधता के गूढ़ ज्ञान से विहीन होकर सृष्टि के कई रहस्यों से दूर चली जायेगी, यह चिंता संपूर्ण मानव जगत के लिए है – “छूट जाएगी चीजें मेरे बच्चों से /छूट जाएगी दुनिया हमारे बच्चों से !”

इस ब्रह्मांड में जिस प्रकृति से हम घिरे हैं उसके एक जीवंत अंश से कट जाने की पीड़ा और बेचैनी वंदना टेटे की कविताओं में कई तरह से अभिव्यंजित हुई है। आदिवासी-परंपरा की इस चिंतन-दृष्टि में प्रकृति की समग्रता की चिंता निहित है। इसलिए इसे केवल अस्मितागत दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कोविड 19 जैसी महामारी से जूझती दुनिया के लिए प्रकृति के अस्तित्व की चिंता उतनी ही जरूरी है जितनी मानव अस्मिता की। बल्कि मनुष्य और प्रकृति के अन्योन्याश्रित संबंध तथा आदिवासी संस्कृति और परंपरा को सूक्ष्म रूप से समझकर उसके महत्त्व को निरूपित करने का यह सर्वाधिक उचित समय है। वंदना टेटे अपने चिंतन द्वारा इसे मुखरता से प्रतिपादित करती हैं। आदिवासी जीवन-शैली में प्रकृति का आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक आधार भी है। नदी, पहाड़, पेड़-पौधे, फल-फूल, जीव-जंतु, उनकी सांस्कृतिक परंपरा में अभिन्न रूप से जुड़े हैं। प्रकृति के वे रूप जो उनके सांस्कृतिक चिह्न व धरोहर है उनकी विलुप्ति, क्षति के विरूद्ध भी एक गहरी चिंता इन कविताओं में मुखरित है- “पुरखा कथाओं में दर्ज /कोनजोगा टूट रहा है /पुरखा कथाओं में दर्ज /जतरा के ढोल की आवाज /दफन हो रही है।“ (पृष्ठ-93)

‘कोनजोगा’ खड़िया सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा एक पहाड़ है, यह एक आदिवासी दृष्टि का कथन है किन्तु दूसरी तरफ विकासवादी, विस्तारवादी भूमंडलीकरण की आर्थिक दृष्टि के लिए ऐसे कई पहाड़ (जैसे नियमगिरि के पहाड़) खनिजों के अकूत भंडार हैं और विकास की इसी दृष्टि के कारण कितने हरसूद डूब गए किन्तु प्रकृति को बचाने वाले प्रयासों के पक्ष में न्याय विलंबित रहा, ये पीड़ा आदिवासी क्षेत्रों की आम पीड़ा है- “पर हरसूद को अब भी /न्याय की उम्मीद है /उस न्यायालय से /जो बुत बने देवालय की बगल में /मौन खड़ा है /सर झुकाए हुए।“ (पृष्ठ-74) पहाड़ जंगल पर विकास की कुदृष्टि ने आदिवासी जीवन की सरल जिंदंगी को न केवल लील लिया बल्कि उनके खेत-दर-खेत ऊँची इमारतों में बदलते चले गए। इस कृत्य ने आदिवासी जीवन के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक स्वरूप को आमूलचूल क्षति पहुँचाई। आदिवासी कविता ही नहीं संपूर्ण आदिवासी लेखन में विकास के इस विनाशकारी पक्ष को सूक्ष्मतापूर्वक चित्रित किया गया है। आदिवासी समाज को पिछड़ा, असभ्य समझ कर अवहेलित ही नहीं किया गया है, वे अन्याय और शोषण के भी शिकार होते गए हैं। देश के आदिम निवासी के सवालों और पीड़ा को इन कविताओं में प्रखर स्वर मिला है- “रची जा रही है /साजिशें गहरी- गहरी /हमारे ही खात्मे के लिए /बिछाए जा रहे हैं फंदे /ताकि /तुम्हारे विकास की गाड़ी /दौड़ सके रौंदती हुई हमारे / भूत वर्तमान और भविष्य को।“ (पृष्ठ-78)  विकास की नीतियों को प्रश्नों के घेरे में लेने वाली यह काव्य-दृष्टि अत्यंत सजग है। यह दृष्टि आदिवासी समाज की हितचिंतक है जो उसकी सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के साथ आधुनिक जीवन का संतुलित संस्पर्श चाहती है। वे अपने क्षेत्रों में पुल, स्कूल, अस्पताल और सुविधाएँ चाहते हैं ताकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनिवार्य जरूरतों तक उनकी पहुँच बन सके, किन्तु जब यही नीतियाँ उन्हें उनके स्वाभाविक आर्थिक स्वावलंबन- खेतों, जंगलों से बेदखल कर उन्हें मजदूर बना देती है, तब ये डर उचित है- ‘‘डरता भी हूँ /पुल बनने से /कि घूमता हूँ जिस जंगल में निर्भय /पुल के बनते ही /तुम बेदखल कर दोगे मुझे भी”  …….  “मैं रिक्शापुलर कुली /मेरी बेटियाँ आया, रेजा /मेरी पत्नी धंगरीन /के नाम से पहचानी जाएंगी /और मेरा एम.ए. पास जवान बेटा /अपने प्रतिरोध के कारण /नक्सली बनाकर मार दिया जाएगा /और इसलिए मैं दुविधा में हूँ, /पुल बने या नहीं !” (पृष्ठ-72)

वंदना टेटे के समग्र लेखन में आदिवासी जीवन के अस्तित्व को लेकर गहन विकलता है। वे बेबाकी व स्पष्टता से अपना पक्ष रखती हैं जिसमें प्रायः तनिक आक्रोश भी प्रकट होता है। वर्तमान परिदृश्य में यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि एक आदिवासी द्वारा की गयी प्रकृति की चिंता में पूरी मानवता की रक्षा के सूत्र निहित हैं। आदिवासी संस्कृति, भाषा और उसके वाचिक साहित्य में वह जीवन-बोध है जो प्रकृति में रमा-रचा-बसा है और उसके प्रत्येक अंग का आदर करता है। जीव-जंतुओं की भांति वे भी प्रकृति से आवश्यकतानुसार ही लेते हैं तथा उसे हानि नहीं पहुँचाते हैं। एक आदिवासी जब किसी विपरीत स्थिति में वृक्ष पर कुल्हाड़ी से प्रहार करता है तो उससे पूर्व उससे क्षमा-याचना करता है। इसलिए आदिवासी जीवन-दर्शन में प्रकृति के प्रति आस्था का भाव है। इसी प्रकृति के आंगन में विकास के नाम पर विनाश-लीला के प्रति आदिवासी कविताएँ आपत्ति दर्ज कराती हैं। वंदना टेटे की कविताओं में आदिवासी क्षेत्रों, जनजीवन में सतत हो रहे परिवर्तन व प्रभाव को चिह्नित किया गया है तथा आदिवासी संस्कृति के विलुप्त होते जाने की विकल चिंता अभिव्यक्त हुई है। प्रकृति के सौन्दर्य को एक आदिवासी की दृष्टि जिस तरह से देखती है वह हिन्दी कविता के रूढ़ दृश्यों से सर्वथा भिन्न है –“लाल धवई के फूल /खिल रहे हैं /जंगल में फूलचीभी /रस जोभ रही है रासे रासे/ जिरहुल के छोटे फूल /खुश हैं बहुत खुश /परास हांकवा कर रहा /डंपर के पैरों तले रौंदी धूल /जंगल से निकली हवा से मिल /जदूर खेल रही है /कुजाम पाट झूम रहा है।“ (पृष्ठ-81) आदिवासी-दृष्टि से उन्हीं के भाषिक-सौन्दर्य के साथ प्रकृति का यह रूप निश्चित ही हिन्दी कविता के लिए नया ही है। ‘रासे रासे’, “लसय लसय’,  ‘रियो रियो’ शब्दों का आदिम सौन्दर्य आदिवासी गीत-परंपरा के संगीत व ध्वनि की देन है जो उनकी वाचिक-परंपरा के मौलिक स्वरूप से परिचय कराती है। प्रकृति और भाषा का समवेत सौन्दर्य इन पंक्तियों में भी दर्शनीय है, जिसके सहज रूप में आदिवासी चेतना की गूंज भी ध्वनित है- “छउवा समय है संगी /आओ खेलेंगे पहाड़-पहाड़ /आओ गाएंगे नदी-नदी /आओ नाचेंगे जंगल-जंगल /छउवा समय है सहिया /आओ बतियाएंगे संग-संग /…….. / आओ संगी /आओ सहिया /आओ गुइया /हम बनाए मिलकर /इस दुर्दांत समय को /छउवा समय /निद्र्वन्द्व निडर निर्मल।“ (पृष्ठ-82-83)

स्पष्टतः वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी पहचान और आवाज की कविताएँ हैं। वे किसी हिन्दी मुहावरे या रूढ़ सांचे का अनुकरण नहीं करती। उनके पास कहने को अपनी बात है और अपना भाषिक लहजा। इसलिए उनकी काव्याभिव्यक्ति में विविधता है। वे अपनी जड़ों से जुड़ी रहकर हिन्दी में सृजनशीलता का परिचय देती हैं। हिन्दी में इस खड़ियाभाषी कवयित्री की उपस्थिति अपने आदिवासी वैशिष्टय के साथ है जो उनके स्वतंत्रचेता काव्य-व्यक्तित्व का उदाहरण है। एक ईमानदार और सघन अनुभूति की अभिव्यक्ति का मार्ग स्वतःस्फूर्त रूप से अपने लिए एक सांचा, एक रास्ता चुनता है जिसमें व्यंजना, बिम्ब या प्रतीक स्वाभाविक रूप से आते हैं। वंदना टेटे जिस काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों को खारिज करती हैं उनकी काव्याभिव्यक्ति के सहज प्रवाह में वे स्वाभाविक उपस्थिति दर्ज कराते हैं, उसे अधिक व्यंजक बनाते हैं। किन्तु ये बिंब आदिवासी जीवन-यथार्थ का अभिन्न हिस्सा हैं। इस जीवन को खंडित करते बाह्य हस्तक्षेपों के चित्रण में बिम्बधर्मिता व रूपक की स्वाभाविकता ही इन पंक्तियों का वैशिष्टय बनकर सम्मुख आता है- “कविताओं वाली नदी /सूखने लगी है /गीतों के पहाड़ /उजाड़ है /जटंगी के खेतों में /हिंडाल्को की माइंस खुदी है /सूख गए हैं पोखरे /बादल पहाड़ों से /आँख चुरा रहे हैं /और जंगल से गुजरती हवा /गुनगुनाना गुदगुदाना भूल गयी है।“ (पृष्ठ-16)  इस अभिव्यक्ति में प्रकृति और बिम्बधर्मिता की उपस्थिति सायास नहीं है। विसंगतियों और विडंबनाओं को ये कविताएँ इसी तरह अपने परिवेश में डूबकर प्रस्तुत करती हैं। यही कारण है कि एक आदिवासी की पीड़ा और आवाज संपूर्ण उपेक्षित, अन्याय और शोषण की शिकार मानवता की आवाज बन जाती है- “और कविताओं की नदियों में /डूबने की इच्छा /बंदूक की बटों /और बूटों के नीचे /कराहती रहती है /दिन रात।“ (पृष्ठ-16)

 वंदना टेटे की कविता में खड़िया भाषा के शब्दों का सहज प्रयोग हुआ है। अर्थ न जानते हुए भी वे कविता को जो प्रवाह और लय देते हैं उसका सौन्दर्य प्रभावित करता है। रासे-रासे, लसय-लसय, रियो-रियो, धइरे-धइरे जैसे शब्दयुग्म की आवृत्तियों का संगीत हो या सीमधने, फोंफड़ने, रसजोभ, रूसुम, छउवा, पिछलन, ओगरा, कुंबो, डूबोः, हिलिर, हिलिर जैसे शब्द प्रयोग – ये एक विशिष्ट ध्वनि के कारण भाषा को प्रभावी बनाते हैं। कवयित्री की आदिवासी-चेतना व दृष्टि का विस्तार उसके जीवन-द्रश्यों, विसंगतियों, सांस्कृतिक पक्ष, भाषा के साथ साथ उसकी वर्तमान स्थिति तक जाता हैं इसलिए ‘कोनजोगा’ की कविताएँ आदिवासी जीवन के यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। इसमें यदि ‘सलवा जुडुम के डर से फुसफुसाती जिंदगी’ के दृश्य हैं तो वहीं ‘बोरसी की आग के पास नानी दादी से कहानी सुनने का मजा’ भी है, साथ ही आदिवासी दैनंदिन में रचे बसे निसर्ग के अनुभवों का जीवंत रूप भी, उसके खो जाने की चिंता भी- “पहली तेज बारिश का पानी जब /सूखी नदी में उतरता है /तो अपने आने की सूचना कैसे देता है /और पातर काका /क्यों जुते बैलों को तोतो-रे नोनो-रे कहते हैं /पथराई धरती /क्यों सोंधी महक से लबरेज हो जाती है।“ (पृष्ठ-12) इन कविताओं की जड़ें आदिवासी जीवन-शैली व संस्कृति में है इसी कारण उनकी काव्याभिव्यक्ति में मौलिकता है। सामान्य चीजें भी यहाँ जगह बनाती हैं-  “नींबू की तरह /निचोड़ दिया है /और भर दिया है /मिर्च की तरह बेचैनी /सच बहुत अजीब सी /शांति है !” (पृष्ठ-45)

वंदना टेटे का काव्येतर लेखन आदिवासी समाज की चिंताओं और चुनौतियों से निरंतर मुठभेड़ करता है। उनकी सचेत दृष्टि आदिवासी जन को अपने अस्तित्व की लड़ाई खुद लड़ने हेतु निरंतर प्रेरित करती है। आसन्न संकट और संघर्ष की प्रेरणा के बीच आदिवासी मिथक पुरूष तिलका मांझी की स्मृतियाँ व उम्मीद के स्वर भी उनके काव्य-जगत को समृद्ध करते हैं- “कब तक जोहते रहोगे /अपनी पहचान जानने /के लिए दूसरे का मुंह /और कब तक आसरे में /रहोगे कि कोई आए /और तुम्हारे लिए लड़े।“ (पृष्ठ-68) अतीत और वर्तमान के संघर्ष-चित्र उकेरते हुए वे पूंजीवादी विकास के तले रौंदे जा रहे विस्थापितों को उनकी पहचान, अधिकार और श्रम के लिए सचेत करती हैं- “पूंजी के उड़न खटोले पर /सवार होकर वह /ले जाएगा तुम्हारी /जमीन, श्रम और पहचान।“ (पृष्ठ-79)  समृद्ध सांस्कृतिक अतीत और जंगल, खेतों के उजड़ते चले जाने से वर्तमान पर संकट की चिंता आदिवासी लेखन की प्रत्येक विधा में मुखर हुई है। आदिवासी विद्रोह और उलगुलान का अपना इतिहास है। आदिवासी चेतना में उसकी जीवंत स्मृतियाँ हैं। ‘कोनजोगा’ की कविताओं में भी पुरखा पुरूष तिलका मांझी की स्मृति और उलगुलान की तड़प मौजूद है- “जमा कर रहा अपने भीतर /बोरसी की गरमी /जुटा रहा पोर पोर में /पुरखों सी ताकत /कंपनी के बड़े  बड़े डूबोः के खिलाफ।“ (पृष्ठ-90) (डूबो :: भूत-प्रेत) ….. “दर्द अपमान और आक्रोश से आँखें /कोयल कारो सी ऊब डूब हो रही है /छातियों में पहाड़ फूल रहे हैं/कोख में सरसरा रहा है उलगुलान।“ (पृष्ठ-92)  आदिवासी-चेतना में आशा, उम्मीद और खुशी के स्वर भी इन कविताओं में जगह बनाते हैं। आदिवासी जन में जागरूकता और शोषण के विरूद्ध उठाये गये स्वर के द्वारा वे भविष्य के प्रति उम्मीद से देखती हैं- “क्योंकि असुर और उरांव/झंडा लेते हुए /धइरे-धइरे आ रहे हैं।“ (पृष्ठ-81)   ….. “मुस्कुराएगा चांद /घोटुल में गूजेगी हंसी /ये उम्मीद /कौंधती रहती हैं /बिजली की तरह।“ (पृष्ठ-14) 

वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी संस्कृति, परंपरा, जीवन-दर्शन, भाषा और उनके जीवन में विकासवादी हस्तक्षेप से हुए परिवर्तन को दिखाते हुए एक पुख्ता जमीन तैयार करती हैं जिसके आधार पर वे अपना पक्ष रखते हुए सटीक विरोध दर्ज कराती हैं। आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करती नीतियों के प्रति ये कविताएँ आवाज़ उठाती हैं तो साथ ही प्रकृति और पुरखों से चली आ रही परंपराओं को लेकर भी सजग है। किन्तु इन चिंताओं और विरोधी तेवर के बावजूद जमीनी हकीकत से वे वाकिफ हैं। पूंजीवादी प्रसार और मानव के स्वार्थ और अहंकार ने हाशिए के समुदायों का न केवल शोषण किया है बल्कि निरंतर धर्म, नस्ल, रंग, जाति, धनबल  के नाम पर उनकी घोर उपेक्षा की है। प्रकृति का गुस्सा कई तरह से प्रकट हो रहा है। तूफान और भूकंप उस प्रकृति के कुपित स्वर हैं, जिसके प्रति पूंजीवादी दुराग्रहों ने अति की है। आदिवासी जीवन इसी प्रकृति के आंगन में फलने -फूलने वाली सांस्कृतिक पहचान का नाम है। प्रकृति के विनाश में आदिवासी जीवन-जगत और पहचान के भी खोने की चिंता, उदासी और डर को इन पंक्तियों में मार्मिक रूप से ध्वनि मिली है- “जैसे सूख गयी दामोदर सुवर्ण रेखा /जैसे आसमान में बिला गयी सुगंधित हवाएँ /जैसे चूर-चूर हो गए मजबूत पहाड़ /जैसे छंटते कटते चले गए जंगल /हम भी जा रहे हैं /हम जा रहे हैं /जैसे चले गए पुरखे /जैसे जा रही है ये धरती /सबकी पहुँच से बाहर /धीरे धीरे हर क्षण।“  (पृष्ठ-95-96)

आदिवासी समाज के सहजीवी, सामूहिकता और सहअस्तित्व के सिद्धांत में समानता का भाव निहित है। फलस्वरूप वंदना टेटे के आदिवासी समुदाय विषयक चिंतन में यह बात बार-बार दोहराई गयी है कि आदिवासी समाज में लैंगिक असमानता नहीं है और न ही पितृसत्तात्मकता की प्रभुताशाली व्यवस्था। किन्तु उनकी कविताओं में आदिवासी‘ चेतना के समानांतर स्त्री-चेतना के जो स्वर हैं वे स्पष्ट करते हैं कि कथित सभ्य समाज में शामिल आदिवासी समाज भी लैंगिक भेदभाव के दुष्प्रभाव को भोगता है। आदिवासी समाज के संघर्ष के भीतर स्त्री को एक निजी संघर्ष का भी सामना करना होता है जो उसके स्त्रीत्व को लेकर है। शिक्षित समाज के वर्तमान स्वरूप में स्त्री की भूमिका और स्थिति उसे कई तरह के संघर्ष की ओर ले जाती हैं। वंदना टेटे के काव्य-कर्म में आदिवासियत के बरअक्स स्त्री को लेकर भी सर्वथा अलहदा किस्म का संघर्ष भाव है, जिसको अभिव्यक्ति देने में भी वे स्पष्ट और मुखर हैं- “तुम्हारी खिंची लक्ष्मण रेखा /के खिलाफ /उसने बो दिए हैं संघर्ष बीज।“ …..   “मिटाने को आतुर हैं उसके हाथ /हर उस लकीर को /जो बांधते हैं उसकी सीमा।“ (पृष्ठ-35)  घर-परिवार के दैनंदिन कार्य-कलापों के भीतर स्त्री के कसमसाते अनुभवों, उसके मौन के भीतर की चिंगारी को वे रसोई के एक दृश्य के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोती हैं- “वह उठती है /चूल्हा सुलगाती है /और साथ ही /सुलगते हैं /उसके विचार /चूल्हें में चढ़े बर्तन की तरह /गर्म होते हैं, खदबदाते, ठंडे होते हैं /फिर राख की तरह /एक चिंगारी दबाए/ चुप हो जाती है।“ ……. “वह /अनाज बीनने बैठती है /और बीनती है अपनी सोच /जो उसके लिए अहम है।“ (पृष्ठ-48)  वंदना टेटे की काव्याभिव्यक्ति में विरोध और तीक्ष्ण प्रश्न वाचकता के पीछे उनके ऊर्जावान विचार है, जिसके बारे में वे स्पष्ट है कि ये विचारशीलता उनके लिए ‘अहम’ है। इसी के कारण वे सामाजिक असंगतियों को प्रश्न के घेरे में लेती हैं। आदिवासी चेतना के साथ ही स्त्री-चेतना उनके काव्य-कर्म में प्रमुखता से स्थान प्राप्त करती है- “तुम जला दी जाती हो /रूप कुंवर की तरह /समाज कत्ल कर देता है तुम्हें /जब तुम प्रेम करती हो /संस्कृति की गर्म सलाखों से /फोड़ दी जाती हैं तुम्हारी आँखें /और जब जबान खुलती है तुम्हारी /तुम्हें बदचलन करार दे दिया जाता है।“ (पृष्ठ-51) सामाजिक विद्रूप से मुठभेड़ करती स्त्री अपने लिए एकांत चुनती है जिसमें विघ्न उसे पसंद नहीं। एकांत का एकालाप उसे नयी ऊर्जा देता है। जीवन-यथार्थ से प्राप्त अनुभवों को वैचारिक फलक से जोड़कर एक सटीक दिशा प्राप्त करने में यह एकांत एक कवि मन को सहयोग देता है- “मेरे एकालाप में /विघ्न अब सहन नहीं /बारिश की बूंदों /की हठधर्मिता /हवाओं से आते /पदचापों के स्वर /तोड़ते हैं मेरा एकालाप।“ (पृष्ठ-53)

आदिवासी जीवन-शैली तड़क-भड़क पूर्ण नहीं वरन् अत्यंत सरल, सादगी पूर्ण है, किन्तु स्त्री होने के नाते घर से मिलने वाली सीधे चलने की हिदायतों की मंशा भिन्न है। सामाजिक विसंगतियों के इस परिवेश में सीधे चलने की इच्छा कितनी दुष्कर है इसे बड़ी सहजता से यह कविता अभिव्यंजित करती है- “माँ ने कहा /पिता ने भी कहा /सीधे रास्ते पर चलना /सामने देखना /इधर उधर नहीं /सीधा रास्ता पकड़ना।“ …..  “और रास्ते ही रास्ते /पिछलन ही पिछलन /कहाँ जाऊँ माँ जोई /सीधी कैसे चलूं ।“ (पृष्ठ-56-57) आदिवासी समाज लैंगिक भेदभाव को नहीं मानता तथा स्त्रियों के महत्त्व को स्वीकार करता है। यद्यपि कथित सभ्य समाज में ऐसी स्थिति नहीं है। यहाँ स्त्री का संघर्ष कई मोर्चे पर है। आदिवासी समाज सहअस्तित्व के विचार को प्रत्येक स्तर पर स्वीकार करता है। ऐसे में कवयित्री का यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है जहाँ वे साधारण चीजों के बीच स्त्री के असाधारण महत्त्व को निरूपित कर जाती हैं- “लड़कियाँ /घर की छप्पर /खेत की लहलहाती फसल /चूल्हे की आग /बूढ़े आँखों की रोशनी /और झुकी कमर की लाठी होती हैं /दोस्त ! /क्या तुम्हारे यहाँ भी लड़कियाँ ऐसी होती हैं।“ (पृष्ठ-62) वंदना टेटे का  हिन्दी में अभी तक केवल एक ही कविता संग्रह सम्मुख आया है किन्तु उनकी काव्य-दृष्टि व मूल्यों में किसी तरह की अस्पष्टता नहीं है। उनकी चिन्तन-दृष्टि ने ‘आदिवासियत’ शब्द का प्रयोग करते हुए आदिवासी जीवन-मूल्यों, वैचारिक पक्ष, जीवन-यथार्थ से हिन्दी-जगत को परिचित कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य सतत रूप से किया है। उनका काव्य-कर्म भी अत्यंत सचेत रूप से समुदाय की पीड़ा, शोषण, अन्याय के साथ आदिवासी जन की जिजीविषा व संघर्ष-चेतना को रूपायित करता है। उनके काव्य-स्वर में एक तरफ चिंता है तो दूसरी ओर जूझने की अदम्य क्षमता भी। काल्पनिकता की जगह ठोस यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती ये कविताएँ आत्मविश्लेष्ण की क्षमता भी रखती हैं। निजी जगत से व्यापक विष्व चेतना तक वे अत्यंत सहजता से पहुँच बनाती है। वस्तुतः इसके पीछे भी आदिवासी जीवन-दर्शन का सहअस्तित्व का विचार क्रियाशील है। आदिवासी जीवन‘दृष्टि व संस्कृति के वैषिष्ट्य के साथ कथित सभ्य समाज की संकीर्ण और एकांगी दृष्टि विकास की एकपक्षीय नीतियों पर नज़र रखते हुए वे बेबाकी से प्रश्न करती हैं और आपत्तियाँ सम्मुख लाती हैं। आदिवासी समाज की जातीय स्मृतियों को जीवंत रखते हुए सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में अस्तित्व की रक्षा हेतु सचेत रहने का भाव भी उनमें प्रखर है। नवशिक्षित आदिवासी समुदाय में सांस्कृतिक पहचान की चिंता के साथ परिवेश की विडंबनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि है। आदिवासी जीवन के अपरिहार्य अंग पर्व-त्योहार, सांस्कृतिक प्रतीक, गीत-संगीत-नृत्य परंपरा, देशज ज्ञान, भाषा और प्रकृति से गहन संपृक्ति को लेकर उनका चिंतन कविता में सृजनशील होकर हिन्दी को एक नव-आस्वाद-भूमि उपलब्ध कराता है, जो आदिवासी कवि के रूप में उनकी पहचान को पुष्ट करता है। आदिवासी कविता पर वैमर्शिक राजनीति का कोई प्रभाव नहीं है उनके विद्रोही भाव में भी जीवन-जगत की विसंगत स्थितियों की स्वाभाविक उपस्थिति है। वंदना टेटे की मुखरता और आदिवासी-चेतना भी जीवन के अनुभवों से उत्पन्न है, आरोपित नहीं। जीवन-यथार्थ से नैकट्य के परिणामस्वरूप ही वे आदिवासी विरासत और आधुनिक दृष्टि-बोध को संतुलित रूप से साधती हैं। आदिवासी जनजीवन, परिवेश और समाज से उपजा काव्य-बोध आदिवासी-लोक के यथार्थ का प्रतिनिधि स्वर बनने में सक्षम हैं, वंदना टेटे  का काव्य-कर्म इसी का उदाहरण है।  

किताब : कोनजोगा (कविता संग्रह)
लेखिका : वंदना टेटे
प्रकाशक : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन (2015)
समीक्षक : पुनीता जैन
प्राध्यापक -हिन्दी
शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
भेल, भोपाल
मो. 94250-10223
rajendraj823@gmail.com

शत प्रतिशत : प्रेम और मानवता के पक्ष में खड़ी मार्मिक कहानियाँ

समीक्षक : गोविंद सेन

डॉ. हंसा दीप हिन्दी कथा साहित्य की एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। प्रस्तुत संग्रह हंसा जी का तीसरा कहानी संग्रह है। इनके खाते में तीन उपन्यास भी हैं। हंसा जी टोरंटो में निवास करती हैं पर उनका संबंध भारत के मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ के एक छोटे से कस्बे मेघनगर से रहा है। यही कारण है कि इनकी कई कहानियों का परिवेश और पात्र भारतीयता से ओतप्रोत हैं। उस अंचल की छाप इनकी कहानियों में परिलक्षित होती है। हालांकि विदेशी पात्रों और परिवेश की भी कमी नहीं है। कैनेडा में हिन्दी पढ़ाने के कारण उनका हिन्दी के प्रचार-प्रसार से भी सीधा जुड़ाव है। हंसा जी का अनुभव-संसार वास्तविक, व्यापक और विस्तृत है। यह एक देश की परिधि में बंधा हुआ नहीं है।  

शत प्रतिशत कहानी से संग्रह का नामकरण हुआ है। यह कहानी अनुक्रम में भी पहले स्थान पर है। इस कहानी का तीस साल का नायक साशा बचपन की  मनोग्रंथि से ग्रसित है। उसे बचपन में अपने पिता की क्रूरता और हिंसा झेलना पड़ती है। फलस्वरूप उसके मन में प्रबल प्रतिशोध की भावना पनप जाती है। वह अपने तीसवें जन्मदिन पर ट्रक लेकर निकलता है। वह लोगों को रौंद देना चाहता है ताकि उसके भीतर धधकती प्रतिशोध की अग्नि शांत हो सके। पर जब उसके सामने वैसी ही घटना घटती है तो उसका हृदय परिवर्तित हो जाता है। वह दुर्घटनाग्रस्त निरीह लोगों की मदद करने लगता है। शायद उस पर अपनी प्रेमिका लीसा, फ़ौस्टर पेरेंट्स पिता कीथ और माता जोएना के प्रेमपूर्ण व्यवहार का ऐसा प्रभाव पड़ा था कि वह अपनी प्रतिशोध की भावना को भूल ही गया। लेखिका ने साशा के मन में पल-प्रतिपल उठने वाली प्रतिशोध  की भावना के सहारे कुशलता से कहानी को एक सकारात्मक अंजाम तक पहुँचाया है। साशा के मन की जटिल परतों को एक-एक करके  कुशलता से खोला गया है। एक वास्तविक घटना से  प्रेरित होकर किस तरह कहानी गढ़ी जा सकती है, यह कहानी इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस कहानी में टोरंटो में घटी एक ऐसी ही घटना का रचनात्मक उपयोग किया गया है।  

कहानी गरम भुट्टा में वफादार तितरिया के प्रति अधेड़ विधवा भगवती देवी के अतिशय लगाव को कहानी में रेखांकित किया गया है। यहाँ जातिगत भेदभाव के कारण उनके प्रेम को सामाजिक मान्यता संभव नहीं था। लगातार एक द्वंद्व बना रहता है। नौकर होते हुए भी हमउम्र तितरिया भगवती देवी के जीवन का एक अविभाज्य अंग बन गया था। जब तितरिया चला जाता है तो भगवती देवी जिंदा नहीं रह पाती। तितरिया और भगवती देवी के बीच के प्रेम को लेखिका ने बहुत शिद्दत से उकेरा है। तितरिया भील समुदाय का है और उसके साथ उच्चवर्गीय समाज दोयम दर्जे का व्यवहार करता है। भगवती देवी इस असमानता का विरोध करती है। तितरिया को उसका हक दिलाने की कोशिश करती है पर अपनी माँ के तितरिया के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध नहीं कर पाती। भगवती देवी एक संवेदनशील महिला हैं। वह चाहती है कि जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो।

प्रेम मनुष्य को बदल देता है। इसके आगे धर्म की ऊंची दीवारें बौनी हो जाती हैं । प्रेम इंसानियत को जगा देता है। प्रेमी अपने प्रिय के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो जाता है। इलायची कुछ ऐसी ही कहानी है। शौकत अली पेशे से कसाई हैं। मांसाहारी हैं। पान बहुत खाते हैं। पहले केवल इलायची ही खाया करते थे। उनका मानना है कि इलायची की खूशबू में हर तरह की बदबू दब जाती है। शौकत अली साठ पार कर चुके हैं। एक दिन धूप का चश्मा पहने एक अधेड़ उम्र की मोहतरमा गाड़ी से उतरती है और शौकत अली को ‘शौकी’ कहकर संबोधित करती है। शौकत अली शुरू में उसे पहचान नहीं पाते। दरअसल वह यही लड़की रजनी थी जो बरसों पहले शौकत अली के घर के सामने रहा करती थी। इसी लड़की को शौकत अली मन ही मन चाहते थे। लड़की का परिवार शाकाहारी था। शौकत अली उनका लिहाज करते हुए पिछले दरवाजे से ग्राहकों को मांस दिया करते थे। रजनी की बिरादरी के बड़े गुरु उस गाँव से निकल रहे थे। वे उस गाँव में  आश्रय लेना चाहते हैं। शौकत अली उनके गुरु को अपने

घर पनाह देने को राजी थे। पर रजनी कहती है कि वे तभी उनके घर ठहरेंगे जब वे गंगाजल से धुलवाकर घर पवित्र कर लें। एक और खास शर्त यह थी कि वे जिंदगी भर गोश्त खाना छोड़ दें । यह शौकत अली के लिए कठिन शर्त थी पर इसे भी वे स्वीकार लेते हैं और एक अघोषित संत का दर्जा पा जाते हैं । इस कहानी को पढ़ते हुए चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’ की याद आती है।

प्रेम एक प्रबल आवेग है जब यह शिखर की ओर उठता है तो उदात्त रूप में प्रकट होता है। उसकी मुस्कान ऐसे ही एक उदात्त प्रेम संबंध की अटपटी कहानी है। बुलबुल अपने पिता की सबसे छोटी, लाड़ली किन्तु दबंग बेटी है। वह लगभग अपने पिता के उम्र के एक आदमी के साथ लीव-इन-रिलेशनशिप में है। वे दोनों पति-पत्नी की तरह रहते हैं। जब पिता बीमार पड़ते हैं तो वह अपने लकवाग्रस्त उस पति को व्हील चेयर पर लेकर पिता के घर आती है। उसके पिता को अपनी बेटी का एक बूढ़े के साथ का यह रिश्ता नागवार लगता है। वह अपनी बेटी को अपना ‘सगा दुश्मन’ मानते हैं। पर बुलबुल बताती है कि उसने प्यार कुछ पाने के लिए कुछ देने के लिए किया है। वह पिता और पति को अपनी बैशाखियाँ मानती है। अंत में उसके पिता अपनी बेटी की खातिर उसके बूढ़े पति को स्वीकार कर लेते हैं।

पन्ने जो पढ़े नहीं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की एक अन्य कहानी है। निम्मी जी अपने पति प्रोफेसर साहब की पसंदीदा छात्रा रश्मि को अपनी बेटी मानती है। वह रश्मि को अपने घर में हर तरह की सुविधा देती है। वह उसे अपने बेटे अंश की बहू बनाने का सपना देखती है। एक रात वह अपने प्रोफेसर पति और रश्मि की रासलीला देख लेती है। यह देखकर वह टूट जाती है। वह गाँव चली जाती है। लौटकर अपने पति के पास नहीं आती। रश्मि छह माह तक प्रोफेसर साहब के साथ रहने के बाद किसी और से शादी कर लेती है। अंत में प्रोफेसर की हृदयाघात से मौत हो जाती है। इस तरह कहानी में रिश्तों के टूटकर बिखर जाने का कसैलापन है।

पूर्ण विराम के पहले की नेरेटर एक महिला शिक्षिक है। वह बस से रोज अपने संस्थान जाती है। महिला ड्राइवर उससे टिकट नहीं लेती है । इस तरह रोज उसके बारह डालर बचते हैं। शिक्षिका के मन में उसके टिकिट न लेने से अनेक आशंकाएँ जन्म लेती हैं। उसे दाल में कुछ काला नजर आता है। पर एक दिन उसकी सभी आशंकाएँ निराधार सिद्ध होती हैं । महिला ड्राइवर यह बताती है कि उन जैसी एक शिक्षक ने उसके जीवन को बदला है। वह होमलेस थी। उस शिक्षक की वजह से ही वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकी है । वह टिकट न लेकर उस महिला शिक्षक के कर्ज को उतारने की कोशिश कर रही है। यह जानकर नेरेटर को अपने सोच पर शर्मिंदगी महसूस होती है।  

प्रोफेसर साहब में एक पोती अपने दादा से अपनी मैम द्वारा दिए गए एक प्रश्न का उत्तर लिखवाना चाहती है। प्रश्न में ‘अधिकार और कर्तव्य का अंतर’ बताना था। इस प्रश्न पर विचार करते हुए प्रोफेसर साहब अपने कालेज पहुँच जाते हैं। उनके कालेज में हर प्राध्यापक और विभाग के अध्यक्ष अपने अधिकार पाने के लिए जितना सजग हैं,  अपने कर्तव्य के प्रति उतने ही लापरवाह। कालेज के प्राध्यापकों की छात्रों को पढ़ाने के प्रति अरुचि को कहानी में बहुत सजीवता उकेरा गया है।  

पाँचवीं दीवार की समता जी सख्त, रौबदार और अनुशासनप्रिय प्राचार्य के रूप में सुप्रसिद्ध है। उनकी लोकप्रिय छवि को देखते हुए उनके स्कूल से रिटायर होने बाद एक राजनीतिक पार्टी उन्हें अपना उम्मीदवार बनाती है पर उन्हें यह नहीं सुहाता। उन्हें लगता है कि उनके भाषण को लोग ध्यान से नहीं सुन रहे हैं। जबकि स्कूल में उन्हें छात्रगण गौर से सुनते थे। वे खुद को दोराहे पर खड़ा पाती हैं पर अंत में जनहित का सोचकर राजनीति की राह चुन लेती है।  

कवच का मुख्य पात्र अनाथ मांगिया है जो दूसरों के काम करके अपना पेट भरता है। वह रात-बिरात इधर-उधर भटकता रहता है। उसका कोई घर नहीं है। एक मुंह बोली दादी जरूर उस पर ममता लुटाती है। पुलिस वाले उसे बार-बार चोरी-चकारी के आरोप में जेल में डाल देते हैं। दूसरों के अपराध उसके माथे पर मड़ देते हैं  । पर मांगिया को इस पर कोई आपत्ति नहीं। वह जेल को अपना ससुराल मानता है। वहाँ उसे दो जून की रोटी मिल जाती है। यह उसके लिए बहुत बड़ी नियामत है। यूं ही भटकते-भटकते एक दिन मांगिया को एक अनाथ और मंदबुद्धि लड़की मिल जाती है। उसके मन के तार उससे जुड़  जाते हैं। वह उसके साथ घर बसाना चाहता है। अब वह चाहता है कि पुलिस उसे तंग न करे। पुलिस के एक बड़े अधिकारी को इस बात का पता चलता है। वे बड़े पुलिस अधिकारी वर्दी में होते हुए भी एक इंसान थे। वे मांगिया को निश्चिंत करते हुए कहते हैं-‘चल जा मांगिया, जी ले अपनी जिंदगी।’ कहानी के अंत में उसी मांगिया का बेटा उसी थाने में पुलिस इंस्पेक्टर बनकर आता है। अब वहाँ मांगिया को आदर दिया जाता है। उसकी तस्वीर दीवार से उतर कर पुलिस इंस्पेक्टर की मेज पर आ जाती है।

अक्स का मतलब है परछाई। यह नानी के उसकी नातिन के सम्बन्धों की बहुत प्यारी कहानी है। इस कहानी की पहली ही पंक्ति पाठकों को बांध लेती है-‘सब लोग मुझे ‘प्राब्लम चाइल्ड’ कहते हैं पर मेरा दावा है कि मैं नहीं हूँ ‘प्राब्लम चाइल्ड’, मेरी नानी ‘प्राब्लम नानी’ हैं।’ नानी अपने नातिन से बहुत प्यार करती है। उसके नखरे खुशी-खुशी उठाती है पर बच्ची के माता-पिता इसे अच्छा नहीं मानते। उनके अनुसार यह लाड़ उसे बिगाड़ देगा। नातिन प्रकट में तो एतराज करती है पर मन से चाहती है कि नानी उसकी खूब परवाह करे। आठ साल की नातिन नानी के सामने एक बरस की बच्ची बन जाती है। जब वही नातिन बड़ी होकर माँ बनती है तो वह महसूस करती है-‘माँ बनकर जब मैं इतनी रोका-टोकी कर रही हूँ तो यह बात तो पक्की है नानी बनकर मेरे अंदर की माँ की माँ ‘प्राब्लम नानी’ हो ही जाएगी।’ मतलब नातिन अपनी नानी का ही अक्स बन जाएगी। माँ, बेटी और नानी के आपसी सम्बन्धों और बाल मनोविज्ञान की यह एक मार्मिक कहानी है।

डॉ. हंसा की कहानियों में प्रेम और मानवता की तलाश साफ नजर आती है। प्रेम के अनेक रूप-रंग इन कहानियों में दिखाई देते हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी इन कहानियों में विसंगतियों, विडंबनाओं के चित्रण के साथ इन स्थितियों के लिए हल्का-सा तंज़ भी दृष्टिगोचर होता है । पात्र अपनी मनोग्रंथियों से बखूबी जूझते हैं। उनकी जिजीविषा विस्मित करती है। कहानियों को धैर्यपूर्वक रचा गया है। बोलचाल की मुहावरेदार, सहज-सरल और प्रांजल भाषा पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है। संग्रह में कुल 17 विविधवर्णी कहानियाँ हैं। संग्रह का आमुख आकर्षक है। किस्सागंज पुस्तक श्रृंखला के भाग-1 के प्रतिभागियों में से चयनित विजेता डॉ. हंसा दीप का यह संग्रह पठनीय है।

किताब : शत प्रतिशत (कहानी संग्रह)
लेखिका : डॉ. हंसा दीप
प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन,
गंगापुर सिटी-322201, राजस्थान
मूल्य: 250/-
समीक्षक
गोविंद सेन
193, राधारमण कालोनी,
मनावर-454446, जिला-धार, म.प्र.
मो: 9893010439

भूमंडलीकरण के संदर्भ में भारत और हिंदी

*सुरजीत सिंह वरवाल

इंद्र मित्रं करुणमग्नि माहुरथो दिव्य:स सुपुर्णो गुरुत्मान,

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यम:मातरिश्वानमाह ।[1]

(अर्थात ईश्वर एक है, सिर्फ नाम के फर्क हैं )

जिस प्रकार से ईश्वर के विभिन्न नाम होते हुए भी उसकी सत्ता, अस्तित्व को मनुष्य अहसास कर सकता है, विश्वास कर सकता हैं ठीक उसी प्रकार से ग्लोबलाइजेशन का दौर भी मनुष्य के हित की दृष्टि को रेखाकिंत करता है । जब कोई नया विचार, समाज में आता है तो उसके दो परिणाम सर्वप्रमुख उभर कर आते है एक पोजिटिव (सकारात्मक ), दूसरा नेगिटिव (नकारात्मक) । भूमंडलीकरण ने जहाँ विभिन्न विचारों को, तर्कों को, संस्कृतियों को, एक दूसरे से जोड़ा तो वहीं दूसरी ओर कुछ खामियाजे भी समाज को भुगतने पड़े । भारत एक प्राचीन सभ्यता, ऋषि- मुनियों का देश रहा है । लोक विश्वास, रीति रिवाज लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर आधारित 21वीं सदी में एक महान शक्ति बनकर सामने आ रहा है । भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में, विश्व का सबसे तेजी से प्रगति करने वाला मुक्त बाजार का लोकतान्त्रिक देश है ।

संप्रति, राजनीति, अर्थनीति समाज व् संस्कृति को गहरे रूप से प्रभावित करने वाली भूमंडलीकरण की प्रक्रिया कब आरम्भ हुई, इसे लेकर विद्वानों में कोई मतैक्य नहीं है । विद्वानों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि अतीत में हम पूंजी और श्रम के आवागमन के रूप में भूमंडलीकरण की शुरुआत देख सकते हैं, वहीं दूसरा वर्ग यह मानता है कि अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की प्रक्रिया को भूमंडलीकरण की संज्ञा देना इसलिए उचित नहीं होगा, क्योंकि यह समूची प्रक्रिया वैश्विक नहीं थी, बल्कि यह कुछ सीमित राष्ट्रों के मध्य स्थापित संबंध था । उनकी एक दलील यह भी है कि इसमें एशिया व अफ्रीका के ज्यादातर राष्ट्रों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं था । बहरहाल, 1870 से 1914 के मध्य को उन्मुक्त बाजार या ‘अबाध वाणिज्य’ के युग की तरह परिभाषित किया जाना सुविधाजनक प्रतीत होता है, क्योंकि इस दौरान ‘पूंजी और श्रम’ के आवागमन पर कोई विशेष रोक नहीं देखी जा सकती हैं, इसी प्रकार व्यापार के विस्तार के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था के एकीकरण की प्रक्रिया देखी जा सकती है । इस प्रक्रिया को यातायात व संचार जैसे रेलवे, तार व वाष्प इंजन के प्रयोगों से साहयता मिली ।”[2]

हस्र्ट एवं  थांपसन जैसे अर्थशास्त्रियों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि आज की तुलना में वर्ष 1913 के आस-पास भूमंडलीकरण की प्रवृतियां कहीं ज्यादा दृष्टिगोचर होती है । इस संबंध में दोनों विद्वानों ने बड़े रोचक ढंग से आकड़े भी प्रस्तुत किए हैं । वे दलील देते हैं कि महत्वपूर्ण आर्थिक शक्तियों के राष्ट्रीय जीडीपी के पूंजी- निर्गम का प्रतिशत भी 1905-14, 1965-75 और 1982-86 में क्रमशः 6.61, 1.17 व 1.10  प्रतिशत देखा जा सकता है ।”[3] इस धारणा को पाल क्रुगमैन और रॉबर्ट गिलीपिन ने भी स्वीकार किया है और इसके पक्ष में दमदार आकड़े भी प्रस्तुत किए हैं । यही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग प्रथम विश्व-युद्ध  के काल को अन्तराष्ट्रीय एकीकरण के युग का स्वर्ण काल कहने से भी नहीं चूकता । प्रथम विश्व- युद्ध से भूमंडलीकरण के इस सिलसिले से खासा परिवर्तन दिखाई देता है । भूमंडलीकरण के स्थान पर राष्ट्रों की सरहदों ने ‘पूंजी और श्रम’ के बेरोकटोक आवागमन को मुश्किल बना दिया ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को चुना जिसके अंतर्गत सरकार ने विकास का मार्ग अपनाया । इसके कई बड़े उद्योग स्थापित किए और धीरे- धीरे निजी क्षेत्र को विकसित होने दिया । बरसों तक भारत अपने निर्धारित लक्ष्य पाने में सक्षम नहीं हो सका । कल्याणकारी कार्यों के लिए भारत  अन्य देशों से ऋण लेने की विश्वसनीयता खो बैठा । कई अन्य समस्याओं जैसे- ‘बढ़ती कीमतें, पर्याप्त पूंजी की कमी, धीमी विकास गति और प्रौद्योगिकी के पिछड़ेपन’ ने संकट को बढ़ा दिया । सरकारी खर्च आय से कही अधिक हो गया । इसने भारत को भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करने तथा दो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सुझाव के अनुसार अपने बाजार खोलने को विवश किया । सरकार द्वारा अपनाई गई रणनीति को नई आर्थिक नीति कहा जाता है । इस नीति के अंतर्गत कई गतिविधियों को, जो सरकारी क्षेत्र द्वारा ही की जाती थी, निजी क्षेत्र के लिए भी खोल दिया गया । निजी क्षेत्र को कई प्रतिबंध से भी मुक्त कर दिया गया । उन्हें उद्योग प्रारम्भ करने तथा व्यापारिक गतिविधिया चलाने के लिए कई प्रकार की रियायतें भी दी गई । देश के बाहर से उद्योगपतियों एवं व्यापारियों को उत्पादन करने तथा अपना माल और सेवाएँ भारत में बेचने के लिए आमंत्रित किया गया । कई विदेशी वस्तुओं को, जिन्हें पहले भारत में बेचनें की अनुमति नहीं थी, अब अनुमति दी जा रही है ।

भारत में भूमंडलीकरण के अंतर्गत विगत एक दशक में कई विदेशी कंपनियों द्वारा मोटरगाड़ियों, सूचना प्रौद्योगिकी,इलैक्ट्रोनिक्स, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के क्षेत्र में उत्पादन इकाईयां लगाई गई हैं । इससे भी बढ़कर कई उपभोक्ता वस्तुओं विशेषत: इलोक्ट्रोनिक्स उद्योग में जैसे रेडियों, टेलीविजन और अन्य घरेलू उपकरणों की कीमतें घटी हैं । दूरसंचार क्षेत्र ने असाधारण प्रगति की है । अतीत में जहाँ हम टेलीविजन पर एक या दो चैनल देख पाते थे, उसके स्थान पर अब हम अनेक चैनल देख सकते हैं । हमारे यहाँ सेल्युलर फोन प्रयोग करने वालों की संख्या लगभग दो करोड़ हो गई है, कंप्यूटर और अन्य आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग खूब बढ़ा है । जब विकासशील देशों को व्यापार के लिए विकसित देशों से सौदेबाजी करनी होती है तो भारत एक नेता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । एक क्षेत्र जिसमें भूमंडलीकरण भारत के लिए उपयोगी नहीं है वह है- रोजगार पैदा करना । यद्धपि इसने कुछ अत्यधिक कुशल कारीगरों को अधिक कमाई के अवसर प्रदान किए परन्तु भूमंडलीकरण का लाभ मिलना शेष है । भारत के अनेक भू-भागों को विश्व के अन्य भागों में उपलब्ध भिन्न प्रकार की प्रौद्योगिकी का कुशल से प्रयोग कर सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़  बनाने की आवश्यकता है । विकसित देशों में खेती के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों को अपनाने के लिए भारतीय कृषको को शिक्षित करना है । यहाँ अस्पतालों को अधिक आधुनिक उपकरणों की आवश्यकता है । भूमंडलीकरण द्वारा अभी भारत के लाखों घरों में सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध करवानी है ।

“भूमंडलीकरण की बात शुरू की जाए तो सबसे पहले हम भाषा का ही सवाल ले- अंग्रेजी और भारतीय भाषओं के अंतर्सबंध; जब मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत की थी, तब भूमंडलीकरण का सवाल नहीं था । अंग्रेजी सत्ता हमें विश्व नागरिक बनाने के लिए अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही थी । उपनिवेशवादी दौर में उन्हें अपने लिए अंग्रेजी पढ़े- लिखे कार्टून चाहिए थे । इंगलिस्तासन  के विधि-विधान और कानून को देश में लागू करने के लिए न्यायाधीश और वकील चाहिए थे । भारत में वकीलों का तबका ही पहला अंग्रेजी पढ़ा- लिखा तबका था । तब की अंग्रेजी शिक्षा और आज की अंग्रेजी शिक्षा में अंतर है । आज भारत की अंग्रेजी हमे अपने ही देश में व्यक्तिहीन बनाती है और साथ ही हमें विश्वबाजार में विश्व- नागरिक बनाती है । भूमंडलीकरण की स्पर्धा में यह हमारी सहायक भी है । लेकिन भूमंडलीकरण से अलग जब राष्ट्रीयकरण का सवाल आता है तो अंग्रेजी के कारण हमारा सम्पर्क और सम्बन्ध अपने ही देश के दलित, शोषित और अशिक्षित वर्ग से टूट जाता है, इतना ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में हमारी सोच का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होता है । भूमंडलीकरण लगातार हमारी संस्कृति को विकृत करता जा रहा है । हमारे सदियों पुराने मानवीय सरोकारों और संस्कारों को तोड़ता जा रहा है । भूमंडलीकरण के साथ आई है, स्पर्धा, मुनाफे की संस्कृति और मानवाधिकारों को मसलना ।

भारत में भूमंडलीकरण का जो भूचाल आया है, वह कल्याणकारी पूंजीवाद तो नहीं है ।  पर मुमकिन है कि विकसित पूंजीवादी देशों में वह कोई कल्याणकारी शक्ल रखता हो, पर विकासशील देशों में वह शोषक की शक्ल में ही आया है । वह कल्याणकारी नहीं विनाशकारी है भूमंडलीकरण की छतरी के नीचे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जो हमला आज हो रहा है, वह केवल हमारी अर्थव्यवस्था पर नहीं है । इसे समझना जरूरी है यह हमला प्रगतिगामी जीवंत भारतीय संस्कृति, परम्परा, जीवन- शैली पर ही नहीं, बल्कि वैचारिक संघर्ष से जैसे- तैसे विकसित होते हुए लोकतान्त्रिक मूल्यों पर भी है । भारत ने जो लोकतान्त्रिक संविधान बनाया है, उसके अंतर्गत बनने वाली सरकारों का स्वरूप ट्रस्टी का है । वे सरकारें जनता की परिवर्तनकामी, न्यायपूर्ण समाज रचना के मिशन को लेकर सत्ता संभालती है ।

बाजारवाद का जीवन दर्शन है – निर्लज्ज उपभोक्तावाद, इसके लिए वह आज के तीव्रगामी सूचनातंत्र का सहारा लेता है । वह दस सेकण्ड में यह बताता है कि कोई वाशिंग मशीन आपके लिए कितनी उपयोगी है और यही अनकहे तरीके से वह हमारी समाज-रचना के उस धागे को तोड़ देता है जो हमारे समाज में हमे परस्पर पूरक बनाता हैं अपने एक समकालीन अग्रज समाजशास्त्री सिद्धराज जी ढड्ढा के हवाले से कहूँ तो ‘वाशिंग मशीन के बारे में सोचते ही हमारा रिश्ता घर के धोबी से टूटने लगता है’ इसी तरह उपभोक्तावादी संस्कृति में नई चीजों की भूख पैदा की जाती है, फिर चाहे वे चीजें जीवन के लिए जरूरी हो या न हों । व्यापार का पुराना नियम था- मांग के अनुसार पूर्ति, वैश्विक बाजारवाद ने यह नियम एकदम सही दिया है । अब पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली अपना उत्पादन इस नजरिए से करती है कि किस चीज को बनाकर अधिकतम मुनाफा बटोरा जा सके । फिर वह उद्योगपति अपने प्रोडक्ट की मांग पैदा करता हैं । जरूरत न हो तो भी मध्यवर्ग उस प्रोडक्ट को खरीदने लगता है । फिर उसे लगने लगता है कि वह प्रोडक्ट उसके कुलीन व्यक्तित्व का जरूरी हिस्सा बन गया है ।

समाजशास्त्री सिद्धराज ढड्ढा के शब्दों में “ऐसे में हमे उपभोक्ता उत्पादनों का ग्लोबलाइजेशन नहीं, बल्कि स्वदेशी उत्पादनों का (लोकलाइजेशन) स्थानीकरण चाहिए” ।[4] हाँ ग्लोबलाइजेशन का हम स्वागत करते हैं, यदि विचार, सूचना विज्ञान के क्षेत्र में हो । क्षमा, करुणा, दया, अहिंसा, संवेदना, मैत्री और शांति के पक्ष में हो । वह कोम्पीटीटिव न होकर पूरक (कोम्प्लीमैट्रि) हो । लेकिन हो उल्टा रहा है । स्वर्ग का सपना देखते-देखते हम नरक में पहुँच गए हैं  । भारत दुनियाभर के उत्पादन निर्माताओं के लिए एक बड़ा खरीददार और उपभोक्ता बाजार है । बेशक, हमारे पास भी काफी उत्पादन हैं और हम भी उन्हें बदले में दुनियाभर के बाजार में उतार रहे हैं, क्योंकि बाजार केवल खरीदने की ही नहीं, बेंचने की भी जगह होती है । इस क्रय-विक्रय की अंतर्राष्ट्रीय मेले में संचार माध्यमों का केन्द्रीय महत्त्व है, वे किसी भी उत्पादन को खरीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं । यह उत्पाद वस्तु से लेकर विचार तक कुछ भी हो सकता है । यही कारण है कि आज भूमंडलीकरण की भाषा का प्रसार हो रहा है, तथा मातृ-बोलियाँ सिकुड़ और मर रही है ।

आज के भाषा संकट को इस रूप में देखा जा रहा है कि भारतीय भाषाओं के समक्ष उच्चारित रूप भर बनकर रह जाने का खतरा उपस्थित है क्योंकि सम्प्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण उत्तरआधुनिकता माध्यम टी.वी अपने विज्ञापनों से लेकर करोड़पति बनाने वाले अतिशय लोकप्रिय कार्यक्रमों तक में हिंदी बोलता भर है, लिखता अंग्रेजी में ही है । इसके बावजूद यह सच है कि इसी माध्यम के सहारे हिंदी अखिल भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विस्तार के नए आयाम छू रही है । विज्ञापनों की भाषा और प्रोमोशन वीडियो की भाषा के रूप में सामने आने वाली हिंदी शुद्धतावादियों को भले ही न पच रही हो, युवा वर्ग ने उसे देश भर में अपने सक्रिय भाषा कोष में शामिल कर लिया है । इसे हिंदी के संदर्भ में संचार माध्यम की बड़ी देन कहा जा सकता है ।

समाज के दर्पण के रूप में साहित्य भी तो संचार माध्यम ही है, जो सूचनाओं का व्यापक सम्प्रेषण करता है । साहित्य की तुलना में संचार माध्यमों का ताना- बाना अधिक जटिल और व्यापक है क्योंकि वे तुरंत और दूरगामी असर करते हैं । भूमंडलीकरण ने उन्हें अनेक चैनल ही उपलब्ध नहीं करवाए है, बल्कि इंटरनेट और वेबसाइट के रूप में अंतर्राष्ट्रीयता के नए अस्त्र- शस्त्र भी मुहैया करवाए हैं । हिंदी भाषा के सामर्थ्य में वृद्धि हुई है । संचार माध्यम यदि आज के आदमी को पूरी दुनिया से जोड़ते हैं तो वे ऐसी भाषा के माध्यम से ही करते हैं । अत: संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है । साहित्य लेखन की भाषा आज भी संस्कृतनिष्ठ बनी हुई है तो दूसरी तरफ संचार माध्यम की भाषा ने जन भाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की हुई है । समाचार विश्लेषण तक में कोडमिश्रित हिंदी का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है ।

हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है । इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ दिखाई देता है । ऐसे अवसरों पर हिंदी, व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदाहरण के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है यही प्रवृति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृति है तब तक हिंदी का विकास रूक नहीं सकता । बाजारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्विकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमे पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ । अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है । बाजारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुडी हुई है । यदि इसका माध्यम अंग्रेजी होता तो अंग्रेजियत का प्रचार होता । लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते । इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाजार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं हैं । विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी, अंग्रेजी और अंग्रेजियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुडी हुई है ।

संपर्क :
सुरजीत सिंह वरवाल
(शोधार्थी),  हिंदी- विभाग
डॉ. हरी सिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र.
singh.surjeet886@gmail.com

[1] ऋग्वेद – (1-46-164 ).

[2] भूमंडलीकरण और भारत : परिदृश्य और विकल्प, अमित कुमार सिंह, सामियक प्रकाशन- नई दिल्ली, पृ सं 7-8.

[3] भूमंडलीकरण : साहित्य और संस्कृति – श्री कमलेश्वर, 24- सितम्बर-2001, लेख “भूमंडलीकरण, साहित्य और संस्कृति”.

[4] भूमंडलीकरण की चुनौतियां : संचार माध्यम और हिंदी का सन्दर्भ, डॉ ऋषभदेव शर्मा, विक्की बुक्स ट्रस्ट, दिल्ली.

अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता से जुड़े प्रश्‍न

-अखिलेश गुप्ता

मुक्तिबोध ने जब सन्‌ 1962 में ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ मध्यप्रदेश के हाईस्कूल की कक्षाओं के लिए लिखा तब शिक्षा विभाग ने उसे पाठ्यक्रम में शामिल करने की स्वीकृति दे दी । लेकिन इसके बाद संस्कृति के तथाकथित रक्षकों ने मुक्तिबोध और उनकी पुस्तक के खिलाफ आक्रमण और आन्दोलन का एक सुनियोजित अभियान चलाया । भोपाल में मुक्तिबोध के इस पुस्तक की प्रतियाँ ही जला दी गयीं, उत्तेजनापूर्ण भाषण हुए । यह भी कहा गया कि “यह पुस्तक लेखक के विकृत मस्तिष्क की उपज है ।”[1] (वह बात उनको बहुत नागवार गुजरी है : मैनेजर पाण्डेय) वस्तुत: 19 सितंबर 1962 को राजपत्र द्वारा पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया । राजपत्र के अनुसार पुस्तक को ‘भद्रता और नैतिकता के विरुद्ध’ घोषित कर दी गयी । ‘भद्रता और नैतिकता के विरुद्ध’ केवल इसलिए कि उन्होंने संस्कृति को वेद अथवा ईश्वर प्रदत्त न मानकर यह लिखा कि “जीवन जैसा है उससे उसे अधिक अच्छा, सुन्दर, उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरंभ से ही मनुष्य की रही है । यही इच्छा जब सामाजिक स्तर पर रूप ले लेती है तब संस्कृति कहलाती है ।”[2] इसलिए इससे मतलब यही निकाला जा सकता है कि पुस्तक पढ़ने के बाद छात्रों में “भारतीय जीवन के श्रेष्ठतम मूल्यों के प्रति निष्ठा (धार्मिक) के स्थान पर अनास्था ही उत्पन्न होगा ।”[3]

            पुस्तक की प्रतियों को जलते हुए देखकर मुक्तिबोध ने लिखा था कि “मध्यप्रदेश में विवेक चेतना से प्रेरित अभिव्यक्ति के दिन गए । वैज्ञानिक शास्त्रीय दृष्टि की अभिव्यक्ति अब यहाँ अपराध घोषित हुई, हो सकती है आगे भी ।”[4] उस समय छिटपुट लेखों में इसकी निंदा के अलावा और कुछ नहीं किया गया । कहीं कोई प्रतिकार नहीं, एक बहुत बड़ा बौद्धिक वर्ग खामोश रहा, “सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्‌/ चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं;/ उनके खयाल से यह सब गप है/ मात्र किंवदन्त्ती ।”[5] मुक्तिबोध यहाँ भी भविष्यद्रष्टा ही साबित हुए । ‘हो सकती है आगे भी’ की इस शृंखला को हम पेरुमल मुरुगन का उपन्यास ‘मधोरुबगन’ (अर्द्धनारीश्वर) से जोड़कर भी देख सकते हैं जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए भी प्रस्तावित किया जा रहा था । पेंग्विन ने पिछले वर्ष इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद ‘One Part Woman’ नाम से प्रकाशित किया । 2010 में प्रकाशित इस उपन्यास में ‘नियोग प्रथा’ का जिक्र किया गया है जिसे धर्म में मान्यता भी प्राप्त थी (भले ही अब वह अमान्य हो) । इस पर भी प्रतिबन्ध लगाकर प्रतियाँ जला दी गयीं । लेखक के परिवार के सदस्यों को धमकियाँ दी जाने लगी, फोन पर गालियाँ दी गयीं । परिणामस्वरूप मुरुगन को ‘फेसबुक’ पर लिखना पड़ा- “लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया है । चूँकि वह ईश्वर नहीं है, इसलिए उसके दुबारा जीवित होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता । और पुनर्जन्म में मेरा विश्वास भी नहीं है । इसलिए अब मैं सिर्फ एक मामूली अध्यापक पी मुरुगन की तरह जिंदा हूँ । मुझे अपने हाल पर छोड़ दिया जाए !”[6] (…वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है!  :जितेन्द्र भाटिया)

            हम देश में वैज्ञानिक चेतना की दरकार को शिद्दत से महसूस तो करते हैं, लेकिन क्या कारण है कि धर्म के क्षेत्र में इसकी घुसपैठ किसी को भी बर्दाश्त ही नहीं हो रहा; जबकि धर्म का काम जीवन को उदात्त, सुंदर और सुखमय बनाना रहा है । धर्म के नाम पर जो प्रक्षेप चल पड़े हैं, क्या उसका निर्मूलन किया जाना उचित नहीं है ! आज भी टोनही के संदेह पर महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है । जादू-टोना, भूत-प्रेत, छुआछूत, अंधविश्‍वास जैसी कुरीतियों का धर्म के नाम पर आज भी बोलबाला है । ऐसे में अंधश्रद्धा को समाज से निर्मूल करने के उद्देश्य से नरेंद्र दाभोलकर जब ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ का गठन कर इस दिशा में सार्थक प्रयास कर रहे होते हैं, तब धर्म पर एकाधिकार समझने वालों के लिए यह क्रान्तिकारी विचार नागवार हो उठता है । जितेन्द्र भाटिया लिखते हैं, “खौफनाक यह है कि जिस समाज में हम जी रहे हैं, वहाँ दिन-दहाड़े एक या दो व्यक्‍ति आराम से मोटरसाइकिल पर आते हैं; प्रतिशोध की आग में एक क्रान्तिकारी विचारक (नरेंद्र दाभोलकर) के माथे में दनादन गोलियाँ दागकर आराम से आगे निकल जाते हैं और हमारी व्यवस्था उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती !”[7] धार्मिक कुरीतियों और अंधविश्‍वासों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले लेखकों की बात नागवार लगने पर उनकी आवाज़ दबाने के लिए लेखकों की हत्या कर देना जब एक ‘ट्रेंड’ बन जाए, तब उससे भयानक स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती है । आजाद भारत में मुक्‍तिबोध के समय तक वैज्ञानिक चेतना की अभिव्यक्ति अपराध घोषित किये जा रहे थे । लेखक गुमनामी के माहौल में जीते थे । लेकिन हत्या नहीं होती थी । अब धर्म के तथाकथित ठेकेदारों को इसकी वैज्ञानिक दृष्‍टि से व्याख्या करने वालों की एकमात्र सजा ‘हत्या’ ही तार्किक लगने लगी है । क्योंकि फिर दूसरा कोई यदि धर्म की वैज्ञानिक व्याख्‍या करता है तब “वे फिर से उन्हीं मोटरसाइकिलों पर सवार होते हैं, उन्हीं खतरनाक पिस्तौलों को अपने हाथ में उठाते हैं और विचारों के किसी और जनक को फिर एक बार उसी अंदाज़ में गोलियों के घाट उतार देते हैं । उस विचार का नाम इस बार कॉमरेड गोविन्द पानसरे होता है लेकिन दृश्य वही होता है- वही मूक दर्शक, वही पुलिसवाले, वही झूठी सहानुभूति जताने वाली मजबूर व्यवस्था, वही मीडिया के सामने अपराधी के यथाशीघ्र पकड़े जाने के थोथे वादे और विचार की हत्या के साथ उगता वही भयावह अहसास कि हत्यारों की मानसिकता अब भी किसी खून के फैलते धब्बे की तरह उन्हीं तमाम लोगों के बीच लगातार पनपकर फल-फूल रही है ।”[8] धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र अब कहने भर को रह गया है । हालत इससे ठीक विपरीत है । बाबरी मस्जिद से लेकर शुरू हुआ हिन्दुत्ववादी एजेंडा वोट बैंक की राजनीति के साथ मिलकर भयानक रूप ले लिया है । वोट बैंक की खातिर पन्थनिरपेक्षता को हाशिए में रखकर हिन्दुओं को मुसलमानों के साथ लड़ा दिया गया । छह दिसंबर 1992 को बाबरी ढाँचा विध्वन्स के बाद छह/सात दिसंबर की रात में ही कारसेवकों ने मलवे पर चबूतरा निर्माण कर रामलला को स्थापित कर दिया था; जो आज तक पुराने टूटे हुए बाँस, बल्ली और तिरपाल के सहारे टिका हुआ है । मजे की बात यह कि राम जन्मभूमि के नाम पर विवाद पैदा करने वाले भाजपाईयों के वारे-न्यारे हो गए । अयोध्या के विधायक तेजनारायण पांडेय पवन का कहना है कि ‘भारतीय जनता पार्टी अयोध्या के नाम पर सत्ता पर काबिज होती है । अयोध्या के विकास से इनका कोई वास्ता नहीं दिखता । रेलवे स्टेशन और धार्मिक स्थलों की उपेक्षा भाजपा की पहचान बनती दिख रही है ।’[9] (एक को टाट दूसरे के ठाठ : त्रियुगनारायण तिवारी) साग-भाजी की तरह केवल पानी देकर उसे बारंबार तोड़कर हिन्दुत्व के मुद्दे से जब मन चाहा तब वोट बैंक की राजनीति की जा रही है । कुँवर नारायण शुरू से ही इस हिन्दुत्व के एजेंडे को लेकर आशंकित रहे हैं :

“इससे बड़ा क्या हो सकता है

हमारा दुर्भाग्य

एक विवादित स्थल में सिमटकर

रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं

योद्धाओं की लंका है,

‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं

चुनाव का डंका है !

हे राम, कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,

कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम

और कहाँ यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ

किसी पुराण-किसी धर्मग्रन्थ में

सकुशल सपत्‍नीक…

अबके जंगल वो जंगल नहीं

जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !”[10] (अयोध्या, 1992)

            शास्त्रों में वर्णित ‘धर्म’ लोक में इतनी जड़ें जमा चुकी है कि उसे व्पापक जन समाज की स्वीकृति भी मिल गई है, यानी तुलसीदास के अनुसार ‘तथै कहिए लोकाचार, वेद कतेव कथै व्यवहार’ । जब शास्त्रमत ही लोकमत का हिस्सा बन जाए तब लोक उस मत की बुराई सहन नहीं कर सकता । भले ही उसमें भारी प्रक्षेप शामिल हो जायें, वह उसी तरह बदस्तूर चलता रहता है । साहित्यकार अथवा बुद्धिजीवियों का यह दायित्व होता है कि समय-समय पर इसका मूल्याँकन करते हुए उसमें निहित प्रक्षेपों को दूर करे, भ्रम अथवा बिगूचन का निराकरण करे । लेकिन तार्किक चेतना की अभिव्यक्‍ति पर स्वतंत्र भारत में मुक्‍तिबोध से शुरू हुआ लगाम लगातार भयावह होता चला जा रहा है । शास्त्र को रचने वाले साहित्यकार ही आज जबकि  शास्त्र को चुनौती देते हुए उसे वर्तमान संदर्भों में व्याख्यायित कर अपभ्रंशों को दूर करने की कोशिश कर रहा होता है तब शास्त्रमत को लोकमत बताने वाले रूढ़िवादी अपने साथ वोट बैंक अथवा जाति, धर्म, संप्रदाय और संस्कृति के नाम पर अपना वर्चस्व बनाने की खातिर समाज में पिछड़े और गरीब तबके के लोगों में विचार-शून्य की स्थितियाँ पैदा कर एक व्यापक जन-समाज को साहित्यकार के विरुद्ध भड़का देते हैं । विचार-शून्य माहौल में व्यापक जन-समाज को भीड़-तंत्र में परिवर्तित होते देर नहीं लगता । नरेन्द्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविन्द पानसरे और कर्नाटक के वयोवृद्ध विद्वान एम एम कलबुर्गी जैसे विचारवान  साहित्यकारों की सिलसिलेवार हत्या के बाद बजरंग दल के नेता भुवित शेट्टी द्वारा इन हत्याओं पर प्रसन्‍नता व्यक्‍त करते हुए कहना कि, “कलबुर्गी तो गए, अब अगला नंबर के एस भगवान (कर्नाटक के एक अन्य विद्वान) का है !”[11] तब ताज्‍जुब नहीं होता । इस संदर्भ में यदि संविधान में वर्णित अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता से जुड़े अनुच्छेद-15 की बात करें तब यह अनुच्छेद भी इन रूढ़िवादी मानसिकता के आगे बौना लगने लगता है । लगता है भारत के विकास की नाव को दुरुस्त करने वाली संविधान पेटिका में रखे हुए पेंचकस और पाने (रिंच) में से पन्द्रह नंबर का पाना (रिंच) मानो जंग लगकर खराब हो चुका हो ।

            भारत में विज्ञान की बदौलत विकास का जो स्वप्‍न देखा गया था उसमें धर्म और सांप्रदायिकता अपनी जड़ें जमा चुकी हैं । पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ के अनुसार, “भारत में विज्ञान ने जनेऊ पहन लिया और चुटिया रख ली है ।”[12] आज फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्‍स-एप इत्यादि अन्य इंटरनेट एप्लीकेशन धर्म और जातिगत विभेद पैदा करने का सशक्त माध्यम बन चुका है । टी.वी. चैनलों एवं अखबारों में नज़र सुरक्षा कवच, हनुमान सिद्धि यंत्र अथवा अल्लाह की बरकत वाली ताबीज बिकना सामान्य बातें बन चुकी हैं । धर्म के स्थान पर विज्ञान के सहारे हम जिस आधुनिकता के प्रवेश की बात करते हैं दरअसल उस विज्ञान में अब पुन: धर्म ने सेंध लगा लिया है । अब अपने-अपने धर्म के वर्चस्व की खातिर जगह-जगह साम्प्रदायिक तनाव फैलता जा रहा है । देश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए दादरी गाँव की घटना इसका ताजातरीन उदाहरण है । वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्‍लेषक गिरिजाशंकर दादरी कांड के संदर्भ में भारत की कानून व्यवस्था की ओर प्रश्नांकित करते हुए लिखते हैं कि, “कानून व्यवस्था का प्रश्न इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम करने का यह आधार है । सामान्यजन को सुरक्षा प्रदान करना न्याय की पहली जरूरत है और यदि तंत्र असफल होता है तो छोटे-छोटे दादरी हर दिन होते रहेंगे और समूची व्यवस्था निहित स्वार्थों के हाथों की कठपुतली हो जाएगी ।”[13] यदि कानून व्यवस्था मुट्ठी भर लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाए तो कानून व्यवस्था पर सवाल उठना लाजिमी हो जाता है ।

            जब मुक्तिबोध के पुस्तकों की प्रतियाँ जला दी गईं, तब छिटपुट पत्रिकाओं में विरोध के सिवा और कुछ नहीं किया गया । अब जबकि पी मुरुगन के पुस्तक की प्रतियाँ जला दी गईं, साहित्यकारों के अकाट्‍य तार्किक बातों पर धार्मिक संकीर्णता के कारण सिलसिलेवार ढंग से बौद्धिक विचारों का सामना न कर पाने की स्थिति में हत्या किए जा रहे हैं तब ऐसे डरावने और विचलित करने वाले माहौल में साहित्यकारों ने पुरस्कार लौटाकर खामोशी तोड़ने की कोशिश की । ‘भय भी शक्ति देता है’ कहते हुए पुरस्कार लौटाने की पहल करने वाले उदय प्रकाश कहते हैं- “एक समय था जब हमारे लेखकों का सम्मान होता था, उनकी एक गरिमा थी । लेकिन आज अगर आप राजनीतिक, सांस्कृतिक या सामाजिक मसलों पर तार्किक आलोचना करते हैं, तो लोग उसे बर्दाश्त नहीं करते । वे हिंसात्मक होकर आपको प्रताड़ित करते हैं । हर चीज का सांप्रदायिकरण हो रहा है, कला जगत भी इससे अछूता नहीं है ।… अपराधियों को सुरक्षा देने वाले देश में लेखकों की हालत यह है कि कोई भी आकर उन्हें मार सकता है । लेखक अकेलेपन में जी रहा है ।”[14]

            पुरस्कार लौटाकर खामोशी तोड़ने की कोशिश करने वालों पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा प्रतिक्रिया मिलना स्वाभाविक है । उनका कथन है- “इस तरह के आरोप लगातार लगाए जा रहे हैं कि साहित्य अकादमी लेखकों के साथ नहीं है या उनकी हत्याओं पर मौन है । इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि मैं अपने लेखकों के साथ हूँ । उनकी लेखकीय स्वतंत्रता का समर्थन करता हूँ । उनपर हो रहे हमलों की निंदा करता हूँ, लेकिन फिर भी कहूंगा कि इन सबके लिए पुरस्कार लौटाने को सही नहीं मानता ।… जहाँ तक सरकार को अकादमी की ओर से कोई संदेश देने का सवाल है तो हम सरकार को कोई संदेश नहीं दे सकते । हम गलत चीजों की निंदा कर सकते हैं, वह मैंने की ।”[15]  

उदय प्रकाश बताते हैं, “जब प्रो. कलबुर्गी की हत्या हुई, उस समय मैं अपने गांव में था । पाँच दिन से बिजली नहीं थी । चार सितंबर को मैं गाँव के ढाबे पर गया, वहाँ पर अपना मोबाईल चार्ज किया और फेसबुक खोला तो पता चला कि कलबुर्गी की हत्या कर दी गई है । यह घटना बेहद डरावनी और विचलित करने वाली थी । हत्या हुए पाँच दिन बीत गया था, लेकिन उन्हें पुरस्कृत करने वाली साहित्य अकादमी ने भी तब तक कोई कदम नहीं उठाया था । आप लेखक को सम्मानित तो करते हैं, लेकिन वह निहायत ही अकेलेपन में जीता है । उसकी मौत पर भी उसके साथ कोई नहीं है । उस वक्त के दुख और भय की वजह से मैंने वहीं से यह घोषणा की कि मैं यह पुरस्कार लौटा रहा हूँ ।”[16] आज जबकि लेखकीय स्वतंत्रता पर ध्यानाकर्षण हेतु बौद्धिक वर्ग का एक बहुत बड़ा खेमा सरकार का ध्यान इस दिशा में दिलाने हेतु पुरस्कार लौटाकर अपना विरोध प्रदर्शित कर रहे हैं । तब फेसबुक, इंटरनेट, पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों पर इसे राजनीतिकरण का हिस्सा मानकर तमाम तरह की फब्तियाँ कसी जा रही है । ‘अब क्यों तब क्यों नहीं ?’ जैसे जुमलों का प्रयोग कर इसे सारहीन करार दिया जा रहा है । जबकि साहित्यकारों के पास अपनी लेखनी के सिवाय यदि कोई और चीज है तो वह है- ‘अपना सम्मान’ । अपना पूरा सम्मान गँवा देने के बावजूद उन्हें केवल दुत्कार ही मिल रहा है । अगर साहित्यकार पुरस्कार लौटाकर केवल राजनीतिकरण भर कर रहे हैं तो इसका प्रतिफल क्या मिल रहा है उन्हें- ‘सिवाय दुत्कार के ।’ आज साहित्यकारों की हालात के संदर्भ में ग़ालिब का यह शेर प्रासंगिक लगता है-

“जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है ।”

संपर्क :  अखिलेश गुप्ता
शोध-अध्येता, हिंदी विभाग,
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
सागर (मध्यप्रदेश) 470003,
akhilesh.src@gmail.com

[1]  पाण्डेय, मैनेजर, आलोचना की सामाजिकता, 2012, वाणी प्रकाशन, दरियागंज नयी दिल्ली, पृ. 150

[2] वही, पृ. 153

[3] वही, पृ. 150

[4] वही, पृ. 151

[5] मुक्‍तिबोध, गजानन माधव, चाँद का मुँह टेढ़ा है, 2015, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड नयी दिल्ली, पृ.

     291

[6] ज्ञानरंजन, पहल, अंक 100, जून-जुलाई 2015, जबलपुर, पृ. 182

[7] वही, पृ. 176

[8] वही, पृ. 177

[9] कुमार, अंबरीश, शुक्रवार, वर्ष 8, अंक 11, 1 से 15 जून 2015, नयी दिल्ली, पृ. 33

[10] अग्रवाल, पुरुषोत्तम (सम्पा.), प्रतिनिधि कविताएँ: कुँवर नारायण, 2012, राजकमल प्रकाशन, नई

       दिल्ली, पृ. 154-155

[11] ज्ञानरंजन, पहल, अंक 101, अक्टूबर 2015, जबलपुर, पृ. 116

[12] कोस्का, आयवन, फारवर्ड प्रेस, वर्ष VII, अंक 10, द्विभाषी, अक्टूबर 2015, नई दिल्ली, पृ. 25

[13] सैम्यूएल, मैथ्यू, तहलका, वर्ष 7, अंक 20; 16-31 अक्टूबर 2015, दिल्ली, पृ. 47

[14] वही, पृ. 53

[15] वही, पृ. 53

[16] वही, पृ. 52

नयी इबारत लिखते समकालीन कविता के युवा स्वर

समकालीन कविता के परिदृश्य में सैकड़ों नाम आवाजाही कर रहे हैं । वरिष्ठ पीढ़ी के बाद युवा पीढ़ी भी काफी हद तक साहित्यिक यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुकी है । इनके एक दम पीछे युवतर एवं नवोदित कवि पीढ़ी समकालीन कविता की मशाल उठाए युवा पीढ़ी के दहलीज पर खड़ी है । किसे युवा कवि के रूप में चिह्नित करूं, किसे युवतर कवि के रूप में, बहुत सारे जटिल सवाल हैं मेरे सामने । इसे किसी दशक या काल खण्ड में बांटकर भी नहीं लिख सकता । कवियों की उम्र को भी सीमा रेखा में नहीं बांध सकता और न ही विभाजित कर सकता हूँ  । फिर कहां से शुरू करूं युवतर एवं नवोदित कवियों के  समकालीन कविता की यात्रा? यहां किसी की आलोचना करता हूं तो उनसे शत्रुता और प्रशंसा करूं तो कईयों की मेरे ऊपर टेढ़ी नजर ।  

यथार्थ के धरातल से लेकर मायावी दुनिया के अंतर्जाल में कई दर्जन युवतर एवं नवोदित कवि समकालीन कविता का झण्डा उठाए आगे बढ़ रहे हैं । फिर भी सन 2000 ई0 के बाद एक नवीन किन्तु जुझारू जज्बातों से लबरेज किन्तु-परन्तु से बाहर युवतर एवं नवोदित कवियों ने हिन्दी साहित्य के आकाश में नयी इबारत लिखी है । वो अलग बात है कि कुछ कम लिखकर ज्यादा चर्चित तो कुछ ज्यादा लिखकर भी कम अथवा अचर्चित ही बने रहे । हिन्दी कविता के मंच पर कौन आएगा और कौन नहीं आएगा इसका निर्णय साहित्य के रेवटी में बैठे तथाकथित कुछ आलोचक गण ही करते रहे हैं । एक खास तबका एक वर्ग को आगे आने ही नहीं देना चाहता । क्योंकि उनके कविता का तिलिस्म एवं उनके तबके के वर्चस्व के टूटने का डर व भय जो व्याप्त है ।

बकौल बोधिसत्व- ‘‘तीस सालों के पुरस्कार में कोई कवि दलित नहीं है । कोई मुसलमान नहीं है । कोई अछूत जातियों से नहीं हैं । आर. चेतन क्रान्ति जैसे दो एक कवि जो पिछड़ी जातियों से हैं,उनके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि हिन्दी साहित्य में हर तबके के लेखक सक्रिय हैं और जिस भाषा साहित्य की मुख्य धारा में हर तबके से लेखक न हों ,उसका दायरा संकुचित होना ही है” । फिर भी मैं 21वीं सदी में सक्रिय तमाम युवतर एवं नवोदित कवियों की रचनाधर्मिता पर लिखने की कोशिश करूंगा जिसे अभी किसी वाद या काल जैसा कोई नाम नहीं दिया जा सका है । इन कवियों में अरूणाभ सौरभ, दीपक मशाल, बलराम कांवट, अमित एस‐ परिहार, अच्युतानंद मिश्र, अलिन्द उपाध्याय, नताशा, मिथिलेश कुमार राय, ज्ञान प्रकाश चौबे, अनुज लुगुन, खेम करण सोमन, आरती यादव, रोहित जोशी, रोहित राज वर्धन, वसीम अकरम, अमित कल्ला, अर्चना भैंसारे, अविनाश मिश्र, घनश्याम कुमार देवांश, चिराग जैन, नवनीत नीरव, नित्यानंद गायेन, प्रांजल धर, हरे प्रकाश उपाध्याय, अनिल कार्की, विजय प्रताप सिंह, कृष्णकांत, शंकरानंद, बृजराज कुमार सिंह, अमित मनोज इत्यादि ने अपनी कविताओं में कुछ नया कहने की कोशिश की है

इनकी रचनाधर्मिता पर लिखने के लिए मैंने किसी भी तरह के बंधनों का परहेज नहीं किया है । चाहे वे गांव में पैदा हुए हैं या नगर में  । चाहे वे ग्रामीण जन जीवन पर लिख रहे हैं या नगरीय जन जीवन पर । उनकी कविताओं में न केवल उनके वर्णन का तरीका अलग है बल्कि कविता का कथ्य भी निराला है । इनमें से कुछ चुनिंदा रचनाकारों पर ही थोड़ा बहुत लिखने की कोशिश कर रहा हूं ।

अरूणाभ सौरभ हमारे समय के एक ऐसे सशक्त हस्ताक्षर हैं जिनकी लेखनी को हिन्दी व मातृभाषा मैथिली दोनों  में समान रूप से अधिकार प्राप्त है । यह कवि उस भाषा की रचनाशीलता से जुड़ा है जिसको जनकवि विद्यापति ने हिन्दी में महत्वपूर्ण स्थान व सम्मान दिलाया  । वो अलग बात है कि पूरा मिथिलांचल प्रतिवर्ष बाढ़ जैसी विभिषिका से जूझता है । जिसकी प्रलयंकारी लहरें कवि को भीतर तक झकझोरती हैं  । अविकास की पीड़ा, उद्योग धंधों का अभाव, बढ़ते हुए पलायन,गांव-देहात का मोह और अपने लोगों के दुख दर्द को बहुत ही करीब से देखा है अरूणाभ ने । जिसकी अभिव्यक्ति इनकी कविताओं में बार-बार मुखरित हुआ है । इस कविता ‘कोसी कछार पर‘ की चंद पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है-

चंद लमहों में / अपने गेसुओं में /उलझा लेती है

जिन्दगी के कई कश्तरे/और अपनी जबां पर

पोत लेती है/कई रातों की सिहरन

कई माहों की कसक/ कई कलंकों की कालिख

कई घरों की बद्दुआ

क्योंकि वह चिड़िया नहीं ,औरत नहीं

हरहराती हुई/खौलती उबलती नहीं है

जिसकी कछार पर भी डर लगता है ।

अरूणाभ की कविताएं जहां अनुभव की गहन आंच में रची पगी हैं वहीं अनगढ़ आत्मीयता की मौलिक मिठास लिए हुए हैं । अरूणाभ के कवि की सबसे मूलभूत ताकत अपनी माटी, अपने अनमोल जन, गांव-जवार और बाग–बगीचे हैं । जहां कवि पला बढ़ा है वहीं की चीजों से कविता का नया शिल्प गढ़ता है और भाषा को तेज धार देता है जिससे कविता जीवंत हो उठती है ।

नित्यानंद गायेन उन विरले रचनाकारों में हैं जो अपने फक्कड़ अंदाज-ए-बयां के लिए जाने जाते हैं । जिन लोगों को हिन्दी साहित्य के भविष्य की चिन्ता खाए जाती है उन्हें इनकी रचनाएं जरूर पढ़नी चाहिए । तमाम निराशाओं और आशंकाओं के बीच भी आशा और उम्मीद की महीन किरणों से कविता की चादर बुन ही लेते हैं । इतना जरूर है कि इनकी कुछ कविताएं शिल्प के स्तर पर कमजोर होने के बावजूद भी ध्यानाकर्षित करती हैं और भविष्य के प्रति आश्वस्ति जगाती हैं । कवि रोजी-रोटी से जुझते हुए भी जोड़-तोड़, दांव-पेंच करने वाले और राजनीतिक हुक्मरानों पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकता । अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाकर किसी बात को सीधे-सीधे कहने की कला नित्यानंद बखूबी जानते हैं । यही वजह है कि किसी गुटबाजी सांचे में न फिट होने वाले इस कवि की कविताएं अकादमिक कविताओं के पक्षधरों के गले में अटक जाती हैं । जहां आम जनता से सीधे संवाद करती हुई अड़ियल तेवर की कविताएं हिन्दी साहित्य में नया द्वार खोलती हैं वहीं परदे के भीतर रचे जा रहे प्रपंचों को उजागर भी करती हैं । इनकी एक कविता ‘संभल कर परखना‘ –

मुझे देख लो/उन्हें भी देखना

जो आयेंगे मेरे बाद/बस तुम परखते जाना

पर सावधान/संभल कर परखना

आदमी खो जाता है/दूर चला जाता है

कई बार

परखते परखते‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐

ठेठ माटी की गंध लिए सादगी और संवेदनाओं से भरी कविताएं मिथिलेश कुमार राय को हिन्दी साहित्य में एक अलग पहचान दिलाती हैं । इनकी कविताओं की ठेठ देशी गमक ही है कि पाठक मन भौंरे की तरह रस पान करने के लिए अपने आप खिंचा चला आता है । बिंबों में गुंथी हुई कविताओं की शब्द पंखुड़ियां जब एक-एक कर खुलती हैं तो भाषा की सादगी नये शिल्प में चमक उठती है । उनकी कविताएं जन सामान्य से सहज संवाद करती हुई आगे बढ़ती हैं जहां कोई छल नहीं, कोई जादू नहीं बस शुद्ध देशीपन के साथ अपनी जगह बना लेती हैं । संभावनाओं से भरे इस कवि का एक कवितांश-‘आदमी बनने के क्रम में‘ द्रष्टव्य है-

पिता मुझे रोज पीटते थे/गरियाते थे

कहते थे कि साले /राधेश्याम का बेटा दीपवा

पढ़ लिखकर बाबू बन गया

और चंदनमा अफसर/और तू ढोर हांकने चल देता है

हंसिया लेकर गेहूं काटने बैठ जाता है

कान खोलकर सून ले /आदमी बन जा

नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूंगा

और बांस की फूनगी पर टांग दूंगा‐‐‐‐‐

हरीश चन्द्र पाण्डे के अनुसार कविताएं स्याही की छोटी-छोटी टिकिया की तरह होती हैं जो अपना रंग और असर बहुत देर तक पानी में छोड़ती हैं । यहां वैसी ही छोटी-छोटी टिकिया जैसी कविताओं का संसार रचने वाले शंकरानंद की कविताएं सीधे आम जनता से बात करती हैं । तो वहीं मजदूर किसानों से बात करती हुई खेत खलिहानों में विचरण करती हैं । इनकी कविताएं सरकारी आवास योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल को भी तार-तार करती हैं । इसी तरह कवि नक्शे के माध्यम से बम में तब्दील होती पृथ्वी को बचाने की जुगत में है तो वहीं अराजक तत्त्व इसे नष्ट करने पर तूले हुए हैं । ये लोग पृथ्वी को क्यों नष्ट करना चाहते हैं । यह एक बहुत बड़ा सवाल है हमारे समय से । और कवि है कि जद्दोजहद की स्थिति में भी बहुत कुछ कह जाता है ।

‘नक्शा’ कविता की ये पंक्तियां-

इसी से हैं सीमाएँ और/टूटती भी इसी के कारण हैं

बच्चे सादे कागज पर बनाकर /अभ्यास करते हैं इसका और

तानाशाह सिरहाने रखकर सो जाते हैं इसे

इसी से चुने जाते हैं ठिकाने और

इसी से तलाशी जाती है विस्फोट की जगह

छोटे से नक्शे में दुनिया भी/सिमट कर रह जाती है

इतनी कि हर कोई इसे मुट्ठी में बंद करना चाहता है ।

अपनी कविताओं में टटके बिंबों एवं शिल्प गठन की उच्च गुणवत्ता की वजह से छोटी कविताएं भी चुंबक की तरह अपनी ओर आकर्षित करती हैं । लीक से हटकर चलने वाले शंकरानंद ने एक नया मुकाम हासिल किया है । सबसे बड़ी बात तो ये है कि गम्भीर से गम्भीर बात को भी सरल व सहज तरीके से कह जाते हैं जो बहुत देर तक दिमाग को मथती रहती है । ‘किसान‘ कविता की बानगी देखिए-

जीवन का एक-एक रेशा/बह रहा पसीना की तरह

एक-एक साँस उफान पर है/उसके खून में आज भी वही ताप है

जो कीचड़ में धँसा बुन रहा है अपने दिन/धरती उसके बिना पत्थर है!

एक ऐसा कवि जिसकी कविताओं की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है । इस कवि की कविताएं यथार्थ के जिस धरातल पर लिखी गयी हैं कविता का यथार्थ और जीवन का यथार्थ अलग-अलग नहीं है । यह कवि प्रेम चन्द्र नंदन ही हो सकते हैं जो अपनी बात बड़ी बेबाकी से कह जाते हैं ।

इनकी कविता में जन सामान्य की संघर्षशील चेतना की अभिव्यक्ति नाना रूपों में हुई है ।इनकी कविता के केन्द्रीय चरित्र सामान्य जन ही हैं जो अपनी मिट्टी में रचे बसे हैं । ग्रामीण शोषण की प्रक्रिया और रूढ़ियां कवि की चेतना को उद्वेलित करती हैं ।‘बड़े सपने बनाम छोटे सपने ‘ नामक कविता में बखूबी देखा जा सकता है-

आजादी के इतने सालों बाद भी/जिनकी रोटी/छोटी होती जा रही है

और काम पहुंच से बाहर/जिनके छोटे-छोटे सपने/इसमें ही परेशान हैं

कि अगली बरसात/कैसे झेलेंगे इनके छप्पर/भतीजी की शादी में

कैसे दें एक साड़ी/कैसे खरीदें /अपने लिए टायर के जूते

यहां एक ऐसा भी समाज है, जो पूंजी की ताकत से वर्तमान को इतना बर्बाद कर रहा है कि भविष्य स्वंयमेव नष्ट हो जाए । यही सब स्थितियां भ्रष्टाचार और शोषण को बढ़ावा दे रही हैं । यह विडम्बना ही है कि एक ओर सम्पन्न वर्ग बेहिसाब संपत्ति का मालिक बनता जा रहा है, तो दूसरी ओर गरीब और गरीब होता जा रहा है । सामाजिक क्षोभ और लोक की पीड़ा दोनों ने कवि की कविता को बल प्रदान किया है ।

हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में कवयित्रियों की कम सक्रियता थोड़ा निराश करती है । ऐसे में नताशा जैसी कवयित्री की उपस्थिति सकून देती है । नताशा को सरल शब्दों में तल्ख बात कहने की जो महारथ हासिल है वह उन्हें अपने समकालिनों से अलग करती है । तथाकथित ऐसे कलाकर्मी जो श्रमजीवियों को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल तो कर लेते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उनके लिए कोई ठोस कल्याणकारी कदम नहीं उठाते, पर भी तंज कसने से नहीं चूकती हैं नताशा । इनकी पैनी नजर आज के बदलते मूल्यों और सरोकारों पर तो है ही, बाजारीकरण और वैश्विककरण की जटिल होती गतिविधियों पर भी है । ‘इस समय‘ कविता की चंद पक्तियां –

इस समय /छिन चुका है चांद से/परियों का बसेरा

और बच्चे भी तोड़ चुके हैं/किस्सागोई का जाल

वहां की पथरीली जमीन पर/वे बल्ला घुमाने की सोच रहे हैं ।

इस समय /बारिश की बूंदें/नहीं रह गई हैं किसी नायिका के/

काम भाव का उद्दीपक/और बसंत से नहीं कोई शिकायत

किसी प्रोषितपतिका को ।

युवतर अनुज लुगुन एक ऐसे आदिवासी इलाके से आते हैं जहां जीवन और संघर्ष एक दूसरे के पर्याय हैं । इनकी कविताओं ने हिन्दी साहित्य में एक नया अध्याय जोड़ दिया है । इनकी कविताओं में आदिवासी जीवन की कड़वी सच्चाइयां परत दर परत अपने आप खुलती जाती  हैं । इनकी कविता में इसे बखूबी देखा जा सकता है-

लड़ रहे हैं आदिवासी/अघोषित उलगुलान में

कट रहे हैं वृक्ष/माफियाओं की कुल्हाड़ी से और

बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल /दान्डू जाए तो कहां जाए

कटते जंगल में/या बढ़ते जंगल में ।

यहां के सामान्य जन की पठार की तरह समृद्ध पीठें, पहाड़ की तरह विशाल हृदय, झरने के जल की तरह कोमल व पवित्र मन जिनकी थाती है । जिसकी तश्करी करने में एक वर्ग पूरी तन्मयता से लगा हुआ है उससे अनुज बहुत आहत हैं । जीवन के दंश की पीड़ा से आहत खुद्दार कविताएं जो संघर्षरत हैं, समय और सियासत से जिनके पोर -पोर में सुरमयी रातें और महुवाई गंध समाई हुई है । अपनी जातीय स्मृति और सामूहिक स्वप्न को अनुज जिस आत्म विश्वास के साथ अभिव्यक्ति दे रहे हैं, वह अचम्भे में डालने वाला है । लच्छेदार भाषा से दूर, अपनी भाषा और बोली पर अद्भुत्त पकड़ रखते हैं अनुज । दूसरी कविता की कुछ पंक्तियां –

ओ मेरी सुरमई पत्नी! /तुम्हारे बालों से झरते हुए महुए

तुम्हारे बालों की महुवाई गंध/मुझे ले आती है

अपने गांव में ,और/शहर की धूल -गर्दों के बीच

मेरे बदन से पसीने का टपटपाना

तुम्हें ले जाता है/महुए के छांव में /ओ मेरी सुरमई पत्नी!

तुम्हारी सखियां तुमसे झगड़ती हैं कि/महुवाई गंध महुए में है ।

इनकी कविताओं में मुहावरे कथ्य की तान एवं शिल्प की कसावट में आदिवासी संगीत की धुन पर थिरक उठते हैं । वंचित समाज की विदीर्ण स्थितियों को नई दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है अनुज ने । जिससे इनकी कविताओं में सभ्यताओं की बनावट में छिपे दो असमान जीवन मूल्यों की टकराहट को स्पष्टतः सुना जा सकता है । भविष्य में अनुज से बहुत संभावनाएं हैं क्योंकि ऐसे कवि यदा-कदा ही पैदा होते हैं बशर्ते कि तथाकथित हिन्दी के कुछ मठाधिशों से बचकर रहने की जरूरत है ।

इधर के कवियों में हरे प्रकाश उपाध्याय ने बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में अपनी जगह बनायी है । यह नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है । इन्होंने अपने कथन से कविता को नया विस्तार दिया है । इस कवि ने अपने पूर्ववर्ती कवियों से प्रभाव ग्रहण करने की कोशिश नहीं की है । बल्कि इन्होंने कविताओं में काव्य-रीति की सहजता,कथ्य सौंदर्य और विमोहन की क्षमता को नये  शिल्प में ढालने की कोशिश की है जो अन्य कवियों से अलग पहचान दिलाती है । एक कवितांश ‘हम पत्थर हो रहे हैं’ द्रष्टव्य है-

सारी चिट्ठियां अनुत्तरित चली जाती हैं/कहीं से कोई लौट कर नहीं आता

दोस्त मतलबी हो गये हैं/देखो मैं ही अपनी कुंठाओं में

कितना उलझ गया हूं

संवेदना के सब दरवाजों को /उपेक्षा की घुन खाये जा रहीं हैं

बेकार के हाथ इतने नाराज हैं/कि पीठ की उदासी हांक नहीं सकते

एक और महत्वपूर्ण कवि प्रांजल धर जिसने अपने लेखों व कविताओं की सतत व सार्थक सक्रियता से अपनी ओर लोंगो का ध्यान आकृष्ट किया है । प्रांजल के पास विशाल जीवनानुभव है जिससे इनकी रचनात्मकता जटिल और भावार्थ विस्तृत हो जाता है । इनकी एक कविता ‘कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं‘ की चंद पंक्तियां-

सुरक्षित संवाद वहीं हैं जो द्वि-अर्थी हों /ताकि

बाद में आप से कहा जा सके कि /मेरा तो मतलब यह था ही नहीं

भ्रांन्ति और भ्रम के बीच संदेह की संकरी

लकीरें रेंगती हैं/इसीलिए /सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ

भी कहना/खतरे से खाली नहीं रहा अब  ।

अमित कल्ला की कविताएं हिन्दी साहित्य में एक नया वितान रचती हैं । जब इनकी कविताओं में गांव-जवांर, बाग -बगीचे, नदी, रेगिस्तान, बादल, हवांए, पर्वत ,झरने इत्यादि आते हैं तो अर्थों की कई नई परतें अपने आप खुलती चली जाती हैं । सबसे बड़ी बात यह है कि इनकी कविताएं अनावश्यक उलझावों से बच कर नपी-तुली भाषा में काव्य सौंदर्य की रचना करती हैं । इसकी बानगी इस कवितांश में बखूबी देखा जा सकता है-

तुम्हारे सपनों का हरापन/किस जादुई तोते में कैद है

कहां छुपे हैं/तुम्हारे हंसी के मटियारे बादल

चट्टान के किस कोने में

तुम्हारी जड़ें तलाश रही हैं/अपने हिस्से की मिट्टी ।

दीपक चौरसिया मशाल की कविताएं पढ़कर ऐसा लगता है कि आम जन की पीड़ा को बहुत बारीकी से उकेरा है । यही वजह है कि भोगे हुए यथार्थ को धारा प्रवाह भाषा में आनंद की लहरें उठा देते हैं । और सच को सच की तरह कहने के लिए कितने जोखिम उठाने पड़ते हैं ।

दीपक मशाल की कवितांश ‘अधूरी जीत‘ की बानगी हमारे सामने है –

तुम्हारे सच की लेबल लगी फाइलों में रखीं/झूठी अर्जियों में से एक को

एक कस्बाई नेता की दलाली के जरिये/मेरे कुछ अपने लोग

हकीकत के थोड़ा करीब हो आए

आज बोलने पड़े कई झूठ मुझे/एक सच को सच साबित करने के वास्ते

वो झूठ जो तुम्हारे ही एक/ कानून के घर में सेंध लगाने वाले विशेषज्ञ ने

लिख कर दिए थे मुझे  ।

पद्य और गद्य में समान रूप से लिखने वाले अच्युतानंद मिश्र अपने समकालीनों में अलग पहचान बनायी है । सामन्तवादी प्रवृति वाले लोगों, बंधुआ मजदूरों, किसानों की फटेहाली, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भूखमरी, सूखा-बाढ़ के अलावा आतंकवादी एवं उग्रवादी गतिविधियों पर भी पैनी नजर रखने वाले अच्युतानंद बड़े सलिके से अपनी बात कह ले जाते हैं । भाषा पर जबरदस्त पकड़ एवं स्वअर्जित काव्य कौशल के बूते अच्युतानंद ने अलग किस्म की कविता बुनने में महारत हासिल की है । हिन्दी साहित्य जगत में इनसे काफी संभावनाएं हैं । एक कविता ‘मुसहर’ की बानगी-

गांव से लौटते हए /इस बार पिता ने सारा सामान/लदवा दिया है

ठकवा मुसहर की पीठ पर/कितने बरस लग गए ये जानने में

मुसहर किसी जाति को नहीं/दुख को कहते हैं ।

अर्चना भैंसारे जैसी युवा कवयित्री भारत के ऐसे पिछड़े पठारी इलाके से आती हैं जो खनिजों में समृद्धि के बावजूद भी अभावों के साम्राज्य का जाल पूरे दमखम के साथ फैला हुआ है । अर्चना जी के जीवन में यही अभाव संघर्ष करने की प्रेरणा देता है । इनकी कविताओं में गरीबी, भूखमरी, अकाल, बेरोजगारी और लोगों के पलायन की पीड़ा को सिद्दत से महसूसा जा सकता है । अपने आस-पास के परिवेश को मजबूत ढाल की तरह प्रयोग करते हुए हिन्दी साहित्य में कविता का एक नया मुहावरा गढ़ा है । अपनी माटी से गहरा जुड़ाव रखने वाली अर्चना जी की कविताएं भावों और अर्थों की कई गहरी परतों को तोड़ा है । ‘गहरी जड़ें लिए ‘ कविता में इसे महसूस सकते हैं-

तुम आंगन के बरगद हो पिता/जो धंसे रहे गहरी जड़ें लिए

जिसकी बलिष्ठ भुजाएं/उठा सकीं मेरे झूलों का बोझ

और जिन्होंने थामे रखी/मजबूती से आंगन की मिट्टी

ताकि एक भी कण रिश्तों का/विषमता की बाढ़ में न बह पाए

उसकी आंखें निगरानी करे/ताकि ना आने पाए मेरे घर सर्द हवा

और बचा रहे मेरा खपरैल छाया घर/किसी धूप -छांव से ।

साहित्य समृद्धि की विरासत वाले हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड की भूमि से आने वाले खेम करण सोमन ने जिस यथार्थ जीवन को देखा,सुना व भोगा है को अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी है । सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद व उग्रवाद जैसी खतरनाक बन चुकी बिमारियों से बचने का  आगाह भी करते हैं । स्त्री विमर्श का तमगा लगाये कलाकर्मियों की तरह शोर-शराबा नहीं करते बल्कि अपनी बात बहुत दमदार तरीके से कहते हैं । ‘स्त्रियों ने कथाएं कहीं’ कविता में –

पुरूषों ने कथाएं कहीं/स्त्रियों ने भी कथाएं कहीं/पुरूषों में

कुछ ही पुरूष समझ पाए /स्त्रियों ने जो कथाएं कहीं

कथाएं नहीं/अपनी-अपनी व्यथाएं कहीं ।

बहुत कम उम्र में ही कविता से शुरूआत करने वाले ज्ञान प्रकाश चौबे ने बहुत जल्द ही कविताओं की ठोस जमीन तैयार कर ली । अपनी बोली-बानी के शब्दों को धार देकर कविता में ऐसे पिरोते हैं कि विचलन की स्थिति नहीं आती । बल्कि इनकी काव्य भाषा चमक उठती है । इस सदी के पहले दशक में हिन्दी साहित्य में खूब धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी लेकिन बाद में कई सालों तक अज्ञातवास की स्थिति में चले गये थे । अब पुनः दमखम के साथ उपस्थित हैं । इनके ‘जंगल कथा’ कवितांश की धमक देखिए –

आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से/हमारे वक्त का अधूरा सूरज

जिसकी अधूरी रोशनी में/हमारा गुमेठा हुआ भविष्य /हुंकारता है

बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो /और कहो कि समय का पहाड़

हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं

ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद ।

अब तक जितने कवियों के बारे में कुछ कहने की कोशिश की वह अंतिम नहीं है । इन कवियों के अलावा और भी युवा स्वर हैं जो लिख रहे हैं लेकिन यहां सबको समेटना सम्भव नहीं है । इतना जरूर है कि हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व करने वाले ये कवि नाउम्मीदी में भी उम्मीद तलाश लेते हैं । यह अलग बात है कि समय साहित्य की चालन से उम्दा रचनाओं को सहेज कर बेकार को बाहर कर देगा । फिर भी इन कवियों की रचनाएं इतना उम्मीद तो दिलाती ही हैं कि हिन्दी साहित्य का संसार संभावनाओं से भरा हुआ है । हमें इतना भरोसा है कि आने वाले समय में और बेहतर रचनाओं के आने की उम्मीदें हैं जिसका बेसब्री से हिन्दी को प्रतीक्षा है ।

संपर्क :
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल),
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
chauhanarsi123@gmail.com
यह आलेख परिवर्तन पत्रिका के प्रवेशांक में प्रकाशित हुआ था.

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1- फिल्म समीक्षा

2- पुस्तक समीक्षा

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5- अनुवाद

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7- पॉपुलर कल्चर

8- साक्षात्कार

9- कविता

10- कहानी

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