शिल्पी शर्मा ‘निशा’ की कविताएँ

1. कल सुनना मुझे

आज  थोडा व्यस्त हूँ

मैं बचपन में जी रही हूँ ।

जमीन पर कुछ उकेरते हुए

मूरत बना रही हूँ ।

रुको कुछ कहना है

कल सुनना मुझे ……

मिट्टी लगे हाथों से चेहरा साफ किया

देखूँ , कैसी लग रही हूँ ?

बचपन एक खूबसूरत सपना है

जिसे मैं थोड़ा जी रही हूँ ।

वादा है , आज नहीं

कल सुनना मुझे …….

जली हुई रोटी घूमकर खा रही हूँ

आज बहुत खुश हूँ ।

माँ ने रोटी में नमक घी लगाया है ।

कुछ देर रुक जाऊं

मलाई खा के आऊँगी जब

कल सुनना मुझे ……..

एक बात बताओ

आज कमी क्या है ?

सब कुछ तो है मेरे पास

लेकिन!

“मैं हूँ पर हम नहीं”

अभी नींद में हूँ

कल सुनना मुझे ……..।

2. मेरे अनवरत प्रयास

मेरे संघर्ष के दिन में ,

कोई दिखा न राहों में ।

किसी ने हाथ न थामा ,

भरी थी धूल आँखों में ।

चुभा जब काँच का टुकड़ा ,

चीख निकली अंधेरे में ।

दूर तक जाने की चाहत ,

घाव बाँधा रूमालों से ।

अंधेरी रात सावन की ,

न कुछ सूझे निगाहों से ।

मुझे जिद है पहुँचना है ,

दूर मंजिल की छावों में ।

हारकर रोने से अच्छा ,

जरूरी है मेरा चलना ।

छूटा परछाइयों का संग ,

अंधेरे में न कोई अपना ।

किया हिम्मत बिताये पल ,

नई राहें उजाला फिर ।

करूँ संघर्ष काँटों से ,

महक बिखरे मेरे जीवन में ।

3. हमजोली

मन करे आज बिना आँसुओं के रोऊँ

क्योंकि अतीत की सहेली ने आज दस्तक दी है ।

मैं अधीर हो उठी हूँ

उससे जुड़ी पुरानी यादों में खो गई हूँ ।

आज मन खुश है

मन के समंदर में जैसे मोती मिल रहा है ।

उसने पूछा – तुम कैसी हो ?

ऐसा लगा जीवन का दर्द मिट गया !

राज की बात बताऊँ

मेरे ख्यालों की मलिका वो हमेशा बनी रही ।

दूर रहकर भी…

याद है वो दिन

जब उसने अपने दूर जाने की बात बताई

हंसी के फव्वारे संग सबने बधाई दी ।

तेरा दूर होना आज अचानक मिलना

तू याद थी , याद है , याद रहेगी ।

पूँछों तो नाम क्या है ?

तू मस्तिष्क के लिए प्रतिभा मन के लिए खुशबू है ।

शुक्रिया जिंदगी !

दूर जाकर वापस आने के लिए

कुछ पूछने के लिए कुछ बताने के लिए ।

4. प्रयत्न

यादों की नगरी में आज हलचल हुई ,

न जाने बेमौसम क्यों बारिश हुई ?

क्यों है इस तरह से खामोशी ,

क्यों छाई है हर तरफ मदहोशी ।

कुछ हुआ है मेरे और किताबों के बीच ,

मुझे बुलाये अक्षर के सितारों के बीच ।

बेचैन मन से मैं पढ़ती जाऊँ ,

तुम भरोसा दिलाती मैं करती जाऊँ ।

पास होकर भी आँखों को दिखे नहीं ,

क्या लिखूँ शब्दमाला से पूछे नहीं ।

बन्द आँखों से कागज उकेरती हूँ ,

क्या करूँ वर्णमाला में भाव मिले नहीं।

आज कुछ सीखने की तैयारी में हूँ ,

लकीरें लांघकर लिखने की खुमारी में हूँ ।

कहीं न रूठ जाय आज कलम मुझसे ,

शब्द की बाँसुरी कानों में सुनाऊँ उसके ।

किसी ने कहा गिरती हुई मूली हो ,

तुम अंधेरे में राह को भूली हो ।

शब्द के बाण उन पर न व्यर्थ करूँ ,

जो भी करूँ अभिमान से बढ़ती चलूँ ।

संपर्क : शिल्पी शर्मा “निशा” कुशीनगर , उत्तर प्रदेश. shilpa3717@gmail.com

एक क्रांतिकारी की सजीव जीवनगाथा: मैं बंदूकें बो रहा

 -जय चक्रवर्ती


हिन्दी के समकालीन रचनाकारों में अशोक ‘अंजुम’ का नाम अत्यंत प्रतिभाशाली और प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों में गिना जाता है। सब जानते हैं कि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ऐसे साहित्यकार हैं जो जिधर चल पड़ते हैं, उधर ही रास्ता हो जाता है। काव्य की लगभग सभी प्रचलित विधाओं में उन्होंने कई-कई कृतियाँ हिन्दी साहित्य को दी हैं । गीत, ग़ज़ल, दोहा, हास्य-व्यंग्य सहित लघुकथा, नाटक और बच्चों के लिए उनकी दो दर्जन मौलिक और तीन दर्जन संपादित किताबें पाठकों के बीच भरपूर समादृत हुई हैं। न सिर्फ इतना, अपितु विशुद्ध साहित्य को समर्पित त्रैमासिकी ‘प्रयास’ (अब ‘अभिनव प्रयास’) के सम्पादन के माध्यम से वे अनेक वर्षों से हज़ारों हिन्दी प्रेमी पाठकों से सीधे जुड़े हुए हैं। लेखन में ‘व्यंग्य’ उनका मूल स्वर है , जिसे अपनी रचनाओं में ढालकर वे समाज और व्यवस्था के विद्रूप पर पूरी निर्भीकता और ईमानदारी के साथ प्रहार करते हैं। ‘प्रेम’ उनके संस्कारों में है , इसलिए अपने गीतों, ग़ज़लों और दोहों में उन्होंने प्रेम और श्रृंगार को भी खूब लिखा है।
             इधर, हाल के दिनों में वे अपनी एक और विलक्षण प्रतिभा के साथ हमारे सामने आए हैं। वह है- दोहों के शिल्प में खंड काव्य की रचना। हिन्दी कविता की सुदीर्घ सृजन-परंपरा में खंडकाव्य यूँ तो अनेक कवियों द्वारा बहुत पहले से अलग-अलग छंदों में रचे जाते रहे हैं, पर संभवतः यह पहली बार है जब दोहा-छंद में कोई खंडकाव्य हिन्दी साहित्य को मिला है। यह काम अशोक अंजुम ने करके दिखाया है।‘मैं बंदूकें बो रहा’ शीर्षक से पाँच सौ पाँच दोहों में वर्णित यह खंडकाव्य भारतीय क्रांतिकारियों के इतिहास के सबसे प्रखर और जाज्वल्यमान सितारे सरदार भगतसिंह के जीवन और विचारों तथा बलिदान का जीवंत दस्तावेज है। भगतसिंह के जन्म से लेकर उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं जलियाँवाला बाग, असहयोग आंदोलन, साइमन कमीशन का विरोध, असेंबली बम कांड, लाहौर षड्यंत्र और फाँसी तक पंद्रह सर्गों में विभक्त यह खंडकाव्य भगत सिंह के बहाने ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों को परत-दर-परत उधेड़ता है।
            इस कृति का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यह ऐसे व्यक्ति पर केन्द्रित है, जिसके जीवन और उससे जुड़ी घटनाओं पर न सिर्फ भारतीय साहित्य और इतिहास में, दुनिया की अनेक भाषाओं में पहले से ही असंख्य कृतियाँ मौजूद हैं। ऐसे में किसी नई कृति के सृजन में मौलिकता के अभाव का ख़तरा हमेशा बना रहता है। कहना न होगा कि अशोक अंजुम ने यह ख़तरा उठाते हुए मौलिकता की चुनौती को स्वीकार किया।
           भगतसिंह हमारे सामने एक ऐसे नायक के रूप में आते हैं, जो मात्र तेईस वर्ष के जीवनकाल में देशप्रेम, संघर्ष और वैचारिकी के स्तर पर दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े क्रांतिकारी और विचारक के समकक्ष, बल्कि कहीं-कहीं उससे भी आगे खड़े दिखाई देते हैं। 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में जन्में भगतसिंह को अँग्रेजी हुकूमत से  नफ़रत और उसके खिलाफ विद्रोह के संस्कार अपने घर से मिले। मात्र बारह साल की उम्र में उन्होने जलियाँवाला बाग हत्याकांड देखा । इस दुर्दांत घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। अंजुम जी इस घटना से आक्रोशित बालक भगत सिंह की मनोदशा को इस तरह शब्द देते हैं-
बारह-साला भगत ने, सुनी खबर जिस वक्त।
हुई विक्षिप्तों-सी  दशा, लगा खौलने रक्त।।
रँगा हुआ था रक्त से, जलियाँवाला बाग।
उस बालक के हृदय में, लगी धधकने आग।।

         1920 में लाहौर के नेशनल काॅलेज की पढ़ाई छोडकर वे महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाये जा रहे असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। चैदह वर्ष की आयु में उन्होंने सरकारी स्कूल की किताबें और कपड़े जला दिये। किन्तु 1922 में चैरी-चैरा हत्याकांड के बाद गांधी जी द्वारा किसानों का साथ नहीं दिये जाने से भगतसिंह बहुत उदास हुए और उन्होने भारत की आजादी के लिए सशस्त्र-संघर्ष का रास्ता अपनाने का संकल्प ले लिया –          

दब्बूपन से तो कठिन, जीत सकें हम जंग।
सोच-समझ कर भगत ने, लिया क्रान्ति का संग।।  (पृ.27)

9 अगस्त,1925 को शाहजहाँपुर से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर रोककर उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य क्रांतिकारियों के साथ खजाने को लूट लिया। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से दर्ज है। इसके बाद वे और सुखदेव अंग्रेजों को चकमा देते हुए लाहौर अपने चाचा के पास चले गए, जहाँ उनके चाचा सरदार किशन सिंह ने उन्हें दूध के कारोबार में लगा दिया। किन्तु इन सब कामों में उनका मन कहाँ लगने वाला था। 17 दिसंबर , 1928 को उन्होंने राजगुरु के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या कर दी। अँग्रेजी हुकूमत भगतसिंह के इस दुस्साहस से बौखला उठी और उन्हें पकड़ने के लिए बेताब हो उठी। भगतसिंह ने यहाँ भी पुलिस को चकमा दिया और दुर्गा भाभी के सहयोग से कलकत्ता पहुँच गए। कुछ दिन बाद कलकत्ता से आगरा पहुँचे, जहाँ अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ असेंबली में बम फेंकने की योजना बनी। बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर उन्होंने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली में 8 अप्रैल, 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर केस शुरू हुआ। 7 मई, 1929 को कोर्ट में उनकी पहली पेशी हुई। 10 जून , 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। जेल में उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। किन्तु वे न झुके, न अपने विचारों से  डिगे। अंत में 23 मार्च, 1931 को उन्हें तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे।
   भगतसिंह लगभग दो साल तक जेल में रहे । इस मध्य उन्होंने विशद अध्ययन किया, लेख लिखे। जेल प्रवास के दौरान लिखे गए उनके लेखों और परिवार को लिखे गए पत्रों से उनकी वैचारिकी को भली-भाँति समझा जा सकता है। उन्होंने आत्मकथा लिखी, और तीन किताबें भी लिखीं। इस बीच उन्हें बचाने के भी अनेक प्रयास किए गए, किन्तु अंग्रेजों की ओर से हर बार माफ़ी माँगने की शर्त रखी गई और भगतसिंह ने हर बार इनकार कर दिया। भगत सिंह क्रांतिकारी देशभक्त तो थे ही, वे एक अध्ययनशील विचारक, चिंतक, दार्शनिक, लेखक और अत्यंत सजग पत्रकार  भी थे।… और इन सबसे ऊपर वे एक सच्चे और सहृदय इंसान थे। उन्होंने मात्र तेईस वर्ष के छोटे से जीवन में बहुत बड़ा जीवन जिया। हिन्दी, उर्दू, अँग्रेजी, संस्कृत , पंजाबी और आयरिश भाषा के विद्वान भगतसिंह भारत में समाजवाद के सामभवतः पहले व्याख्याता थे। इन सारी ऐतिहासिक घटनाओं को अशोक अंजुम ने इस कृति में सिलसिलेवार और तिथिवार बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। फाँसी से पूर्व उनसे अंतिम मुलाकात करने के लिए जब उनके परिवारीजन पहुँचते हैं , उस समय जो मर्मांतक दृश्य उपस्थित हुआ होगा , उसे अशोक अंजुम के शब्दों में देखें-
तीन मार्च इकतीस को, मिलने अंतिम बार।
मात-पिता-भाई-बहिन, पहुँचा कुल परिवार।।  (पृ.106 )
माँ से बोले भगतसिंह, भरकर ठंडी श्वास।
लेने को आना  नहीं,   बेवे ! मेरी लाश।।
कहीं आप जो रो पड़ीं, सह ना सकीं वियोग।
माँ रोती है भगत की, ये बोलेंगे लोग।।  (पृ.107 )

         फाँसी से पूर्व जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने जो कहा, उसे सुनकर किसी भी संवेदनशील और अपने देश के प्रति प्रेम करने वाले व्यक्ति की आँखें भीग जाती हैं और सीना गर्व से भर उठता है-
प्राण नाथ जी पूछते, करके उधर निगाह ।
भगतसिंह जी आपकी, क्या है अंतिम चाह ?
भगतसिंह बोले- मिले, भारत माँ की गोद।
पुनः जन्म लूँ मैं यहीं, सेवा करूँ समोद।।  (पृ.109)

भगतसिंह का जीवन और चरित्र तमाम आयामों से हमें रोमांचित करता है। फाँसी के एक दिन पूर्व जब उनके पास वायसराय की ओर से माफ़ी का संदेश जाता है , तो उनकी प्रतिक्रिया को अशोक भाई ने जो शब्द दिये हैं, वे बेजोड़ हैं-
किन्तु जिऊँ मैं कैद में, होकर के पाबंद।
मुझको ऐसी जिंदगी, हरगिज नहीं पसंद।।
इंक़लाब की राह पर, पाया उच्च मुकाम।
जिंदा रहकर वह नहीं, हरगिज होगा नाम।।
मेरी जो कमजोरियाँ, मेरे मन के रोग।
यदि फाँसी से बच गया, जानेंगे सब लोग।
हँसते-हँसते थाम लूँ, मैं फाँसी की डोर।
पैदा होंगे अनगिनत, भगतसिंह चहुँ ओर।।  (पृ. 110-111)

अपने अनेक लेखों में भगत सिंह ने पूंजीवाद का ज़ोरदार विरोध किया, उन्होंने लिखा कि पूँजीपति हमारे दुश्मन हैं। मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण से वे बहुत विचलित होते रहे। उनका कहना था कि श्रमिकों का शोषण करने वाला हिन्दुस्तानी ही क्यों न हो, उनका शत्रु है। जेल में रहते हुए उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’। यह लेख अँग्रेजी भाषा में था। जिसका बाद में दर्जनों भाषाओं में अनुवाद हुआ। इस लेख से भगतसिंह की वैचारिकी को बड़ी शिद्दत से समझा जा सकता है। जेल में रहते हुए भगतसिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की इस दौरान उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने अपने प्राण त्याग दिये।
            जैसा कि मैं ऊपर भी कह चुका हूँ कि अशोक अंजुम ने अपनी इस कृति में भगतसिंह के जीवन की अधिकांश घटनाओं को समेटने की कोशिश की है, तथापि ऐसा लगता है कि उनके जीवन का बहुत कुछ ऐसा छूट गया है, जिस पर यदि कवि की लेखनी और चलती तो भगत सिंह के विराट व्यक्तित्व और उनके विचारों तथा आदर्शों को पाठक और बेहतर समझ पाते। मगर यह भी सच है कि हर लेखक की अपनी सीमाएँ होती हैं, जिनके अंदर ही उसे अपना कार्य करना होता है। अशोक अंजुम जी ने संभवतः कृति के अत्यधिक विस्तार के भय से कुछ बिन्दुओं को संक्षेप में समेट लिया। इसके बावजूद यह कृति सर्वथा पठनीय और स्वागतेय है।
आशा की जानी चाहिए कि हिन्दी जगत अशोक अंजुम जी की अन्य कृतियों की ही तरह इस कृति का भी भरपूर स्वागत करेगा।

पुस्तक विवरण –
पुस्तक: मैं बंदूकें बो रहा  (खंडकाव्य)
कवि: अशोक अंजुम
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, 232 एस/एफ, पाॅकेट बी-1, लोकनायकपुरम्, नई दिल्ली-110 041 /मो.96501 00102
पृ.सं.: 120   /  मूल्य: रु.160/- (पेपरबैक)

 -जय चक्रवर्ती, एम.1/ 149, जवाहर विहार     रायबरेली-229010

युवाओ में बढ़ती आत्महत्या

आत्महत्या यानि स्वयं द्वारा स्वयं की हत्या, जानबूझ कर बिना किसी की सहायता के, बिना दबाव के, चेतन मन से की गई वो क्रिया, जिसका परिणाम मृत्यु हो, उसी को आत्महत्या कहते है। समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम ने अपनी पुस्तक में आत्महत्या को एक सामाजिक घटना बताया है। विश्व के 112 देशों के आत्महत्या के आंकड़ों का प्रकार्यात्मक विश्लेषण कर उन्होंने आत्महत्या को सामाजिक तथ्य के रूप मे प्रस्तुत किया। उनका निष्कर्ष था कि समाज की शक्तियां व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य करती हैं, जब व्यक्ति और समाज में अलगाव और सामाजिक मूल्य व व्यवस्था कमजोर या लोगों की आवश्यकता पूर्ति में असफल हो जाती है तब व्यक्ति आत्महत्या करता है ।
दुर्खीम का मानना था कि आत्महत्या छणिक आवेश या आकस्मिक घटना नही बल्कि एक सुनियोजित घटना है जो लंबे समय से मस्तिष्क में चल रही योजना का प्रतिफल है।
दुर्खीम के इसी तथ्य को आधार मानकर मैने 2009 में बीकानेर जिले में आत्महत्या करने वाले 20 व्यक्तियो की केश स्टडी की, तब भी यही प्रमाण सामने आये कि जिन्होंने आत्महत्या की उनके मूल व्यवहार में काफी लंबे समय से बदलाव हो रहा था। उनके परिजनों और मित्रों के साक्षात्कार से ये तथ्य मिले कि आत्महत्या करने वाले युवको का व्यवहार बदल रहा था। कुछ ने बताया कि जो बहुत ज्यादा गुस्से वाले थे वो कुछ समय से शांत रहने लगे थे, जो घर में रात्रि को देरी से आता था अपने मित्रो में ही मस्त रहता था वो कुछ दिनों से समय पर घर आने लगा, घर में अधिक समय देने लगा था। कुछ परिजनों ने कहा कि जो अपनी वस्तु को किसी को हाथ तक नही लगाने देता था वो कुछ समय से अपनी वस्तुओं को खुद दुसरो को देने लगा था ओर जो शांत और एकांत प्रिय था वो कुछ समय से सबके साथ मिलनसार व्यवहार करने लगा था और घर वाले यह देख कर खुश हो रहे थे।
इस तरह के अनेक परिवर्तन अध्ययन से ज्ञात हुए। यदि इन परिवर्तनों को सभी परिजन गम्भीरता से ले और किसी के भी परिवार में, किसी सदस्य में इस तरह के परिवर्तन नजर आये तो हम उनकी सहायता कर उसको आत्महत्या करने से रोक सकते हैं।
दुर्खीम ने अपनी पुस्तक में आत्महत्या के अनेक कारण बताए उन्होंने मनोव्यधिकीय, मनोजेविकिय, मौसम, जलवायु से सम्बंधित सभी आत्महत्या के पूर्व सिद्धांतो व कारणों की आलोचना के बाद आत्महत्या के पीछे सामाजिक कारको को ही उत्तरदायी बताया, उनके अनुसार शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित के मुकाबले आत्महत्या अधिक करता है। आस्तिक के मुकाबले नास्तिक, सन्तान वाले के मुकाबले सन्तानहीन अधिक आत्महत्या करता है। सयुक्त परिवार के मुकाबले एकाकी परिवार वाला अधिक आत्महत्या करता है। विवाहित के मुकाबले अविवाहित अधिक आत्महत्या करता है। गांव के मुकाबले शहरों में आत्महत्या अधिक होती है। राजनीतिक व सामाजिक रूप से स्थिति देशों के मुकाबले अस्थिर देशों में आत्महत्या अधिक होती है।
ये सभी कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक है। अधिकांश समाजशास्त्रियों का मानना है कि- सामाजिक जिम्मेदारी एक तरफ व्यक्ति को आत्महत्या से रोकती है दूसरी तरफ जब व्यक्ति सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ हो जाता है तब व्यक्ति आत्महत्या करता है, धर्म व्यक्ति को मानसिक सबल देता है आस्तिक व्यक्ति अपनी सफलता और असफलता के लिये खुद को उत्तरदायी ना मानकर भगवान को उत्तरदायी मानता है इस लिये वो विचलित नही होता, जबकि नास्तिक व शिक्षित व्यक्ति खुद को कर्ता मानता है हर घटना पर तर्क और चिंतित रहता है इस लिये छोटी-मोटी घटनाओं पर विचलित ओर अवसाद का शिकार हो जाता है और आत्महत्या कर बैठता है। सयुक्त परिवार और सन्तानवाला हर हाल में अपने परिवार के लिये जिंदा रहना चाहता है जबकि एकाकी परिवार वाला या सन्तानहीन यह सोचता है उसके अपने कोई नही उसके आगे पीछे कौन है और आत्महत्या कर लेता है। डॉ. मुखर्जी ने भी लिखा है सामाजिक जिम्मेदारी व्यक्ति को अधिक सहनशील, जिम्मेदार ओर संघर्ष योग्य बनाती है। आज हम छोटे परिवार और साधन सम्पन्नता के कारण बच्चो को जिमेदारी से दूर रखते है सारी सुविधाएं बिना मांगे मिलने से, वे युवा होने पर भी जिम्मेदारी से भागते है यह भी युवाओं में आत्महत्या का बड़ा कारण है।
वर्तमान भारत में हर वर्ष 1.40 लाख लगभग आत्महत्या होती है एन. सी. आर. बी. की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में 1लाख 39हजार123 लोगों ने आत्महत्या की जो 2018 के मुकाबले 3.6% अधिक है, भारत में हर घण्टे 16 लोग आत्महत्या कर रहे है जिसमे 15 से 30 वर्ष की आयु वर्ग वाले अधिक है यानि युवाओं में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है।
राज्यो में आत्महत्या के आकड़ो में महाराष्ट्र प्रथम स्थान पर है उसके बाद क्रमस: तमिलनाडु, प. बंगाल, मध्यप्रदेश, कर्नाटक है आत्महत्या के कारणों में एनसीआरबी रिर्पोट 2019 के अनुसार- 32.4% पारिवारिक मामले, 5.5% वैवाहिक मामले, 12.5% आर्थिक मामले 4.5% प्रेम प्रसंग मामले, 2%बेरोजगारी, 5.6% नशा के मामले उत्तरदायी है इस तथ्यों के समाजशास्त्रीय विश्लेषण करे तो आत्महत्या के लिये मूलरूप से समाज ही जिम्मेदार है पारिवारिक, वैवाहिक, प्रेम प्रसंग, बेरोजगारी, आर्थिक हानि इन सबके पीछे सामाजिक शक्तियां उत्तरदायी है, आज व्यक्तिवादी सोच के कारण पुरानी ओर नई पीढ़ी में संघर्ष, नारी मुक्ति और समाज की रूढ़िवादी सोच, जातीय बाध्यता, धर्म का घटना महत्व, टूटते सयुक्त परिवार, भौतिकवादी सोच के कारण आध्यात्मिकता का ह्रास, सामुदायिक जीवन का पतन, समाज में बढ़ती आदर्शहीनता और पतित होती सामाजिक नियंत्रण की संस्थाओ के कारण, आज व्यक्ति ओर समाज में अलगाव उत्पन्न हो रहा है, युवाओं का मार्गदर्शन ओर नेतृत्व के अभाव के कारण, युवा दिशाहीन ओर अवसाद का शिकार हो है।
भारत के आधुनिक पाश्चात्य मूल्यों और आर्थिक रूप से सम्पन्न राज्यो महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक में सबसे अधिक आत्महत्या की दर इस तथ्यों को प्रमाणित करते है कि भारत में आर्थिक विकास, आधुनिकता व भौतिकवादी दर्शन के कारण व्यक्तिवाद में वृद्धि हो रही है जिससे व्यक्ति और समाज में अलगाव की स्थिति बढ़ती जा रही है युवाओं में आदर्शहीनता के कारण भटकाव बढ़ता जा रहा है, आज परिवार, माता पिता, शिक्षक, धर्मगुरु, नेता, बुद्धिजीवी, ओर सरकार समाज का कुशल नेतृत्व करने में ओर प्रकार्यात्मक दृष्टि से असफल हो रहे है।
ये सब समाज की संरचनात्मक नियंत्रण की इकाइयां है जैसे हमारे शरीर में मष्तिष्क, लिवर, ह्दय शरीर का कुशल संचालन करते है इनके द्वारा प्रकार्य ना करने पर शरीर बीमार या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है वैसे ही समाज की नियामक संस्थाओ के कमजोर होने के कारण समाज में आत्महत्या की दर निरन्तर बढ़ रही है जिसका इलाज सामुदायिक रूप से ही सम्भव है व्यक्तिगत हल सम्भव नही है। हमे आत्महत्या को व्यक्तिगत घटना या केवल अवसाद का परिणाम मानकर कर, व्यक्ति का इलाज नही, समाज का इलाज करने की जरूरत है।
हमे यह स्वीकार करना होगा कि चाहे हम आर्थिक, भौतिक और विज्ञान की दृष्टि में सफल या प्रगतिशील है मगर सामाजिक व सामुदायिक दृष्टि से असफल ओर पिछड़ते जा रहे है जो समाज संस्कृति और सभ्यता के लिये धातक साबित होगा यह किसी देश या क्षेत्र की समस्या नही वैश्विक समस्या है वैश्विक रूप से इसका हल ढूंढना होगा।

डॉ. राजेन्द्र जोशी
सह-आचार्य समाजशास्त्र
श्री जैन कन्या पीजी महाविद्यालय, बीकानेर ।