नयी इबारत लिखते समकालीन कविता के युवा स्वर

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समकालीन कविता के परिदृश्य में सैकड़ों नाम आवाजाही कर रहे हैं । वरिष्ठ पीढ़ी के बाद युवा पीढ़ी भी काफी हद तक साहित्यिक यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुकी है । इनके एक दम पीछे युवतर एवं नवोदित कवि पीढ़ी समकालीन कविता की मशाल उठाए युवा पीढ़ी के दहलीज पर खड़ी है । किसे युवा कवि के रूप में चिह्नित करूं, किसे युवतर कवि के रूप में, बहुत सारे जटिल सवाल हैं मेरे सामने । इसे किसी दशक या काल खण्ड में बांटकर भी नहीं लिख सकता । कवियों की उम्र को भी सीमा रेखा में नहीं बांध सकता और न ही विभाजित कर सकता हूँ  । फिर कहां से शुरू करूं युवतर एवं नवोदित कवियों के  समकालीन कविता की यात्रा? यहां किसी की आलोचना करता हूं तो उनसे शत्रुता और प्रशंसा करूं तो कईयों की मेरे ऊपर टेढ़ी नजर ।  

यथार्थ के धरातल से लेकर मायावी दुनिया के अंतर्जाल में कई दर्जन युवतर एवं नवोदित कवि समकालीन कविता का झण्डा उठाए आगे बढ़ रहे हैं । फिर भी सन 2000 ई0 के बाद एक नवीन किन्तु जुझारू जज्बातों से लबरेज किन्तु-परन्तु से बाहर युवतर एवं नवोदित कवियों ने हिन्दी साहित्य के आकाश में नयी इबारत लिखी है । वो अलग बात है कि कुछ कम लिखकर ज्यादा चर्चित तो कुछ ज्यादा लिखकर भी कम अथवा अचर्चित ही बने रहे । हिन्दी कविता के मंच पर कौन आएगा और कौन नहीं आएगा इसका निर्णय साहित्य के रेवटी में बैठे तथाकथित कुछ आलोचक गण ही करते रहे हैं । एक खास तबका एक वर्ग को आगे आने ही नहीं देना चाहता । क्योंकि उनके कविता का तिलिस्म एवं उनके तबके के वर्चस्व के टूटने का डर व भय जो व्याप्त है ।

बकौल बोधिसत्व- ‘‘तीस सालों के पुरस्कार में कोई कवि दलित नहीं है । कोई मुसलमान नहीं है । कोई अछूत जातियों से नहीं हैं । आर. चेतन क्रान्ति जैसे दो एक कवि जो पिछड़ी जातियों से हैं,उनके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि हिन्दी साहित्य में हर तबके के लेखक सक्रिय हैं और जिस भाषा साहित्य की मुख्य धारा में हर तबके से लेखक न हों ,उसका दायरा संकुचित होना ही है” । फिर भी मैं 21वीं सदी में सक्रिय तमाम युवतर एवं नवोदित कवियों की रचनाधर्मिता पर लिखने की कोशिश करूंगा जिसे अभी किसी वाद या काल जैसा कोई नाम नहीं दिया जा सका है । इन कवियों में अरूणाभ सौरभ, दीपक मशाल, बलराम कांवट, अमित एस‐ परिहार, अच्युतानंद मिश्र, अलिन्द उपाध्याय, नताशा, मिथिलेश कुमार राय, ज्ञान प्रकाश चौबे, अनुज लुगुन, खेम करण सोमन, आरती यादव, रोहित जोशी, रोहित राज वर्धन, वसीम अकरम, अमित कल्ला, अर्चना भैंसारे, अविनाश मिश्र, घनश्याम कुमार देवांश, चिराग जैन, नवनीत नीरव, नित्यानंद गायेन, प्रांजल धर, हरे प्रकाश उपाध्याय, अनिल कार्की, विजय प्रताप सिंह, कृष्णकांत, शंकरानंद, बृजराज कुमार सिंह, अमित मनोज इत्यादि ने अपनी कविताओं में कुछ नया कहने की कोशिश की है

इनकी रचनाधर्मिता पर लिखने के लिए मैंने किसी भी तरह के बंधनों का परहेज नहीं किया है । चाहे वे गांव में पैदा हुए हैं या नगर में  । चाहे वे ग्रामीण जन जीवन पर लिख रहे हैं या नगरीय जन जीवन पर । उनकी कविताओं में न केवल उनके वर्णन का तरीका अलग है बल्कि कविता का कथ्य भी निराला है । इनमें से कुछ चुनिंदा रचनाकारों पर ही थोड़ा बहुत लिखने की कोशिश कर रहा हूं ।

अरूणाभ सौरभ हमारे समय के एक ऐसे सशक्त हस्ताक्षर हैं जिनकी लेखनी को हिन्दी व मातृभाषा मैथिली दोनों  में समान रूप से अधिकार प्राप्त है । यह कवि उस भाषा की रचनाशीलता से जुड़ा है जिसको जनकवि विद्यापति ने हिन्दी में महत्वपूर्ण स्थान व सम्मान दिलाया  । वो अलग बात है कि पूरा मिथिलांचल प्रतिवर्ष बाढ़ जैसी विभिषिका से जूझता है । जिसकी प्रलयंकारी लहरें कवि को भीतर तक झकझोरती हैं  । अविकास की पीड़ा, उद्योग धंधों का अभाव, बढ़ते हुए पलायन,गांव-देहात का मोह और अपने लोगों के दुख दर्द को बहुत ही करीब से देखा है अरूणाभ ने । जिसकी अभिव्यक्ति इनकी कविताओं में बार-बार मुखरित हुआ है । इस कविता ‘कोसी कछार पर‘ की चंद पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है-

चंद लमहों में / अपने गेसुओं में /उलझा लेती है

जिन्दगी के कई कश्तरे/और अपनी जबां पर

पोत लेती है/कई रातों की सिहरन

कई माहों की कसक/ कई कलंकों की कालिख

कई घरों की बद्दुआ

क्योंकि वह चिड़िया नहीं ,औरत नहीं

हरहराती हुई/खौलती उबलती नहीं है

जिसकी कछार पर भी डर लगता है ।

अरूणाभ की कविताएं जहां अनुभव की गहन आंच में रची पगी हैं वहीं अनगढ़ आत्मीयता की मौलिक मिठास लिए हुए हैं । अरूणाभ के कवि की सबसे मूलभूत ताकत अपनी माटी, अपने अनमोल जन, गांव-जवार और बाग–बगीचे हैं । जहां कवि पला बढ़ा है वहीं की चीजों से कविता का नया शिल्प गढ़ता है और भाषा को तेज धार देता है जिससे कविता जीवंत हो उठती है ।

नित्यानंद गायेन उन विरले रचनाकारों में हैं जो अपने फक्कड़ अंदाज-ए-बयां के लिए जाने जाते हैं । जिन लोगों को हिन्दी साहित्य के भविष्य की चिन्ता खाए जाती है उन्हें इनकी रचनाएं जरूर पढ़नी चाहिए । तमाम निराशाओं और आशंकाओं के बीच भी आशा और उम्मीद की महीन किरणों से कविता की चादर बुन ही लेते हैं । इतना जरूर है कि इनकी कुछ कविताएं शिल्प के स्तर पर कमजोर होने के बावजूद भी ध्यानाकर्षित करती हैं और भविष्य के प्रति आश्वस्ति जगाती हैं । कवि रोजी-रोटी से जुझते हुए भी जोड़-तोड़, दांव-पेंच करने वाले और राजनीतिक हुक्मरानों पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकता । अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाकर किसी बात को सीधे-सीधे कहने की कला नित्यानंद बखूबी जानते हैं । यही वजह है कि किसी गुटबाजी सांचे में न फिट होने वाले इस कवि की कविताएं अकादमिक कविताओं के पक्षधरों के गले में अटक जाती हैं । जहां आम जनता से सीधे संवाद करती हुई अड़ियल तेवर की कविताएं हिन्दी साहित्य में नया द्वार खोलती हैं वहीं परदे के भीतर रचे जा रहे प्रपंचों को उजागर भी करती हैं । इनकी एक कविता ‘संभल कर परखना‘ –

मुझे देख लो/उन्हें भी देखना

जो आयेंगे मेरे बाद/बस तुम परखते जाना

पर सावधान/संभल कर परखना

आदमी खो जाता है/दूर चला जाता है

कई बार

परखते परखते‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐

ठेठ माटी की गंध लिए सादगी और संवेदनाओं से भरी कविताएं मिथिलेश कुमार राय को हिन्दी साहित्य में एक अलग पहचान दिलाती हैं । इनकी कविताओं की ठेठ देशी गमक ही है कि पाठक मन भौंरे की तरह रस पान करने के लिए अपने आप खिंचा चला आता है । बिंबों में गुंथी हुई कविताओं की शब्द पंखुड़ियां जब एक-एक कर खुलती हैं तो भाषा की सादगी नये शिल्प में चमक उठती है । उनकी कविताएं जन सामान्य से सहज संवाद करती हुई आगे बढ़ती हैं जहां कोई छल नहीं, कोई जादू नहीं बस शुद्ध देशीपन के साथ अपनी जगह बना लेती हैं । संभावनाओं से भरे इस कवि का एक कवितांश-‘आदमी बनने के क्रम में‘ द्रष्टव्य है-

पिता मुझे रोज पीटते थे/गरियाते थे

कहते थे कि साले /राधेश्याम का बेटा दीपवा

पढ़ लिखकर बाबू बन गया

और चंदनमा अफसर/और तू ढोर हांकने चल देता है

हंसिया लेकर गेहूं काटने बैठ जाता है

कान खोलकर सून ले /आदमी बन जा

नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूंगा

और बांस की फूनगी पर टांग दूंगा‐‐‐‐‐

हरीश चन्द्र पाण्डे के अनुसार कविताएं स्याही की छोटी-छोटी टिकिया की तरह होती हैं जो अपना रंग और असर बहुत देर तक पानी में छोड़ती हैं । यहां वैसी ही छोटी-छोटी टिकिया जैसी कविताओं का संसार रचने वाले शंकरानंद की कविताएं सीधे आम जनता से बात करती हैं । तो वहीं मजदूर किसानों से बात करती हुई खेत खलिहानों में विचरण करती हैं । इनकी कविताएं सरकारी आवास योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल को भी तार-तार करती हैं । इसी तरह कवि नक्शे के माध्यम से बम में तब्दील होती पृथ्वी को बचाने की जुगत में है तो वहीं अराजक तत्त्व इसे नष्ट करने पर तूले हुए हैं । ये लोग पृथ्वी को क्यों नष्ट करना चाहते हैं । यह एक बहुत बड़ा सवाल है हमारे समय से । और कवि है कि जद्दोजहद की स्थिति में भी बहुत कुछ कह जाता है ।

‘नक्शा’ कविता की ये पंक्तियां-

इसी से हैं सीमाएँ और/टूटती भी इसी के कारण हैं

बच्चे सादे कागज पर बनाकर /अभ्यास करते हैं इसका और

तानाशाह सिरहाने रखकर सो जाते हैं इसे

इसी से चुने जाते हैं ठिकाने और

इसी से तलाशी जाती है विस्फोट की जगह

छोटे से नक्शे में दुनिया भी/सिमट कर रह जाती है

इतनी कि हर कोई इसे मुट्ठी में बंद करना चाहता है ।

अपनी कविताओं में टटके बिंबों एवं शिल्प गठन की उच्च गुणवत्ता की वजह से छोटी कविताएं भी चुंबक की तरह अपनी ओर आकर्षित करती हैं । लीक से हटकर चलने वाले शंकरानंद ने एक नया मुकाम हासिल किया है । सबसे बड़ी बात तो ये है कि गम्भीर से गम्भीर बात को भी सरल व सहज तरीके से कह जाते हैं जो बहुत देर तक दिमाग को मथती रहती है । ‘किसान‘ कविता की बानगी देखिए-

जीवन का एक-एक रेशा/बह रहा पसीना की तरह

एक-एक साँस उफान पर है/उसके खून में आज भी वही ताप है

जो कीचड़ में धँसा बुन रहा है अपने दिन/धरती उसके बिना पत्थर है!

एक ऐसा कवि जिसकी कविताओं की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है । इस कवि की कविताएं यथार्थ के जिस धरातल पर लिखी गयी हैं कविता का यथार्थ और जीवन का यथार्थ अलग-अलग नहीं है । यह कवि प्रेम चन्द्र नंदन ही हो सकते हैं जो अपनी बात बड़ी बेबाकी से कह जाते हैं ।

इनकी कविता में जन सामान्य की संघर्षशील चेतना की अभिव्यक्ति नाना रूपों में हुई है ।इनकी कविता के केन्द्रीय चरित्र सामान्य जन ही हैं जो अपनी मिट्टी में रचे बसे हैं । ग्रामीण शोषण की प्रक्रिया और रूढ़ियां कवि की चेतना को उद्वेलित करती हैं ।‘बड़े सपने बनाम छोटे सपने ‘ नामक कविता में बखूबी देखा जा सकता है-

आजादी के इतने सालों बाद भी/जिनकी रोटी/छोटी होती जा रही है

और काम पहुंच से बाहर/जिनके छोटे-छोटे सपने/इसमें ही परेशान हैं

कि अगली बरसात/कैसे झेलेंगे इनके छप्पर/भतीजी की शादी में

कैसे दें एक साड़ी/कैसे खरीदें /अपने लिए टायर के जूते

यहां एक ऐसा भी समाज है, जो पूंजी की ताकत से वर्तमान को इतना बर्बाद कर रहा है कि भविष्य स्वंयमेव नष्ट हो जाए । यही सब स्थितियां भ्रष्टाचार और शोषण को बढ़ावा दे रही हैं । यह विडम्बना ही है कि एक ओर सम्पन्न वर्ग बेहिसाब संपत्ति का मालिक बनता जा रहा है, तो दूसरी ओर गरीब और गरीब होता जा रहा है । सामाजिक क्षोभ और लोक की पीड़ा दोनों ने कवि की कविता को बल प्रदान किया है ।

हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में कवयित्रियों की कम सक्रियता थोड़ा निराश करती है । ऐसे में नताशा जैसी कवयित्री की उपस्थिति सकून देती है । नताशा को सरल शब्दों में तल्ख बात कहने की जो महारथ हासिल है वह उन्हें अपने समकालिनों से अलग करती है । तथाकथित ऐसे कलाकर्मी जो श्रमजीवियों को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल तो कर लेते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उनके लिए कोई ठोस कल्याणकारी कदम नहीं उठाते, पर भी तंज कसने से नहीं चूकती हैं नताशा । इनकी पैनी नजर आज के बदलते मूल्यों और सरोकारों पर तो है ही, बाजारीकरण और वैश्विककरण की जटिल होती गतिविधियों पर भी है । ‘इस समय‘ कविता की चंद पक्तियां –

इस समय /छिन चुका है चांद से/परियों का बसेरा

और बच्चे भी तोड़ चुके हैं/किस्सागोई का जाल

वहां की पथरीली जमीन पर/वे बल्ला घुमाने की सोच रहे हैं ।

इस समय /बारिश की बूंदें/नहीं रह गई हैं किसी नायिका के/

काम भाव का उद्दीपक/और बसंत से नहीं कोई शिकायत

किसी प्रोषितपतिका को ।

युवतर अनुज लुगुन एक ऐसे आदिवासी इलाके से आते हैं जहां जीवन और संघर्ष एक दूसरे के पर्याय हैं । इनकी कविताओं ने हिन्दी साहित्य में एक नया अध्याय जोड़ दिया है । इनकी कविताओं में आदिवासी जीवन की कड़वी सच्चाइयां परत दर परत अपने आप खुलती जाती  हैं । इनकी कविता में इसे बखूबी देखा जा सकता है-

लड़ रहे हैं आदिवासी/अघोषित उलगुलान में

कट रहे हैं वृक्ष/माफियाओं की कुल्हाड़ी से और

बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल /दान्डू जाए तो कहां जाए

कटते जंगल में/या बढ़ते जंगल में ।

यहां के सामान्य जन की पठार की तरह समृद्ध पीठें, पहाड़ की तरह विशाल हृदय, झरने के जल की तरह कोमल व पवित्र मन जिनकी थाती है । जिसकी तश्करी करने में एक वर्ग पूरी तन्मयता से लगा हुआ है उससे अनुज बहुत आहत हैं । जीवन के दंश की पीड़ा से आहत खुद्दार कविताएं जो संघर्षरत हैं, समय और सियासत से जिनके पोर -पोर में सुरमयी रातें और महुवाई गंध समाई हुई है । अपनी जातीय स्मृति और सामूहिक स्वप्न को अनुज जिस आत्म विश्वास के साथ अभिव्यक्ति दे रहे हैं, वह अचम्भे में डालने वाला है । लच्छेदार भाषा से दूर, अपनी भाषा और बोली पर अद्भुत्त पकड़ रखते हैं अनुज । दूसरी कविता की कुछ पंक्तियां –

ओ मेरी सुरमई पत्नी! /तुम्हारे बालों से झरते हुए महुए

तुम्हारे बालों की महुवाई गंध/मुझे ले आती है

अपने गांव में ,और/शहर की धूल -गर्दों के बीच

मेरे बदन से पसीने का टपटपाना

तुम्हें ले जाता है/महुए के छांव में /ओ मेरी सुरमई पत्नी!

तुम्हारी सखियां तुमसे झगड़ती हैं कि/महुवाई गंध महुए में है ।

इनकी कविताओं में मुहावरे कथ्य की तान एवं शिल्प की कसावट में आदिवासी संगीत की धुन पर थिरक उठते हैं । वंचित समाज की विदीर्ण स्थितियों को नई दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है अनुज ने । जिससे इनकी कविताओं में सभ्यताओं की बनावट में छिपे दो असमान जीवन मूल्यों की टकराहट को स्पष्टतः सुना जा सकता है । भविष्य में अनुज से बहुत संभावनाएं हैं क्योंकि ऐसे कवि यदा-कदा ही पैदा होते हैं बशर्ते कि तथाकथित हिन्दी के कुछ मठाधिशों से बचकर रहने की जरूरत है ।

इधर के कवियों में हरे प्रकाश उपाध्याय ने बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में अपनी जगह बनायी है । यह नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है । इन्होंने अपने कथन से कविता को नया विस्तार दिया है । इस कवि ने अपने पूर्ववर्ती कवियों से प्रभाव ग्रहण करने की कोशिश नहीं की है । बल्कि इन्होंने कविताओं में काव्य-रीति की सहजता,कथ्य सौंदर्य और विमोहन की क्षमता को नये  शिल्प में ढालने की कोशिश की है जो अन्य कवियों से अलग पहचान दिलाती है । एक कवितांश ‘हम पत्थर हो रहे हैं’ द्रष्टव्य है-

सारी चिट्ठियां अनुत्तरित चली जाती हैं/कहीं से कोई लौट कर नहीं आता

दोस्त मतलबी हो गये हैं/देखो मैं ही अपनी कुंठाओं में

कितना उलझ गया हूं

संवेदना के सब दरवाजों को /उपेक्षा की घुन खाये जा रहीं हैं

बेकार के हाथ इतने नाराज हैं/कि पीठ की उदासी हांक नहीं सकते

एक और महत्वपूर्ण कवि प्रांजल धर जिसने अपने लेखों व कविताओं की सतत व सार्थक सक्रियता से अपनी ओर लोंगो का ध्यान आकृष्ट किया है । प्रांजल के पास विशाल जीवनानुभव है जिससे इनकी रचनात्मकता जटिल और भावार्थ विस्तृत हो जाता है । इनकी एक कविता ‘कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं‘ की चंद पंक्तियां-

सुरक्षित संवाद वहीं हैं जो द्वि-अर्थी हों /ताकि

बाद में आप से कहा जा सके कि /मेरा तो मतलब यह था ही नहीं

भ्रांन्ति और भ्रम के बीच संदेह की संकरी

लकीरें रेंगती हैं/इसीलिए /सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ

भी कहना/खतरे से खाली नहीं रहा अब  ।

अमित कल्ला की कविताएं हिन्दी साहित्य में एक नया वितान रचती हैं । जब इनकी कविताओं में गांव-जवांर, बाग -बगीचे, नदी, रेगिस्तान, बादल, हवांए, पर्वत ,झरने इत्यादि आते हैं तो अर्थों की कई नई परतें अपने आप खुलती चली जाती हैं । सबसे बड़ी बात यह है कि इनकी कविताएं अनावश्यक उलझावों से बच कर नपी-तुली भाषा में काव्य सौंदर्य की रचना करती हैं । इसकी बानगी इस कवितांश में बखूबी देखा जा सकता है-

तुम्हारे सपनों का हरापन/किस जादुई तोते में कैद है

कहां छुपे हैं/तुम्हारे हंसी के मटियारे बादल

चट्टान के किस कोने में

तुम्हारी जड़ें तलाश रही हैं/अपने हिस्से की मिट्टी ।

दीपक चौरसिया मशाल की कविताएं पढ़कर ऐसा लगता है कि आम जन की पीड़ा को बहुत बारीकी से उकेरा है । यही वजह है कि भोगे हुए यथार्थ को धारा प्रवाह भाषा में आनंद की लहरें उठा देते हैं । और सच को सच की तरह कहने के लिए कितने जोखिम उठाने पड़ते हैं ।

दीपक मशाल की कवितांश ‘अधूरी जीत‘ की बानगी हमारे सामने है –

तुम्हारे सच की लेबल लगी फाइलों में रखीं/झूठी अर्जियों में से एक को

एक कस्बाई नेता की दलाली के जरिये/मेरे कुछ अपने लोग

हकीकत के थोड़ा करीब हो आए

आज बोलने पड़े कई झूठ मुझे/एक सच को सच साबित करने के वास्ते

वो झूठ जो तुम्हारे ही एक/ कानून के घर में सेंध लगाने वाले विशेषज्ञ ने

लिख कर दिए थे मुझे  ।

पद्य और गद्य में समान रूप से लिखने वाले अच्युतानंद मिश्र अपने समकालीनों में अलग पहचान बनायी है । सामन्तवादी प्रवृति वाले लोगों, बंधुआ मजदूरों, किसानों की फटेहाली, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भूखमरी, सूखा-बाढ़ के अलावा आतंकवादी एवं उग्रवादी गतिविधियों पर भी पैनी नजर रखने वाले अच्युतानंद बड़े सलिके से अपनी बात कह ले जाते हैं । भाषा पर जबरदस्त पकड़ एवं स्वअर्जित काव्य कौशल के बूते अच्युतानंद ने अलग किस्म की कविता बुनने में महारत हासिल की है । हिन्दी साहित्य जगत में इनसे काफी संभावनाएं हैं । एक कविता ‘मुसहर’ की बानगी-

गांव से लौटते हए /इस बार पिता ने सारा सामान/लदवा दिया है

ठकवा मुसहर की पीठ पर/कितने बरस लग गए ये जानने में

मुसहर किसी जाति को नहीं/दुख को कहते हैं ।

अर्चना भैंसारे जैसी युवा कवयित्री भारत के ऐसे पिछड़े पठारी इलाके से आती हैं जो खनिजों में समृद्धि के बावजूद भी अभावों के साम्राज्य का जाल पूरे दमखम के साथ फैला हुआ है । अर्चना जी के जीवन में यही अभाव संघर्ष करने की प्रेरणा देता है । इनकी कविताओं में गरीबी, भूखमरी, अकाल, बेरोजगारी और लोगों के पलायन की पीड़ा को सिद्दत से महसूसा जा सकता है । अपने आस-पास के परिवेश को मजबूत ढाल की तरह प्रयोग करते हुए हिन्दी साहित्य में कविता का एक नया मुहावरा गढ़ा है । अपनी माटी से गहरा जुड़ाव रखने वाली अर्चना जी की कविताएं भावों और अर्थों की कई गहरी परतों को तोड़ा है । ‘गहरी जड़ें लिए ‘ कविता में इसे महसूस सकते हैं-

तुम आंगन के बरगद हो पिता/जो धंसे रहे गहरी जड़ें लिए

जिसकी बलिष्ठ भुजाएं/उठा सकीं मेरे झूलों का बोझ

और जिन्होंने थामे रखी/मजबूती से आंगन की मिट्टी

ताकि एक भी कण रिश्तों का/विषमता की बाढ़ में न बह पाए

उसकी आंखें निगरानी करे/ताकि ना आने पाए मेरे घर सर्द हवा

और बचा रहे मेरा खपरैल छाया घर/किसी धूप -छांव से ।

साहित्य समृद्धि की विरासत वाले हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड की भूमि से आने वाले खेम करण सोमन ने जिस यथार्थ जीवन को देखा,सुना व भोगा है को अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी है । सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद व उग्रवाद जैसी खतरनाक बन चुकी बिमारियों से बचने का  आगाह भी करते हैं । स्त्री विमर्श का तमगा लगाये कलाकर्मियों की तरह शोर-शराबा नहीं करते बल्कि अपनी बात बहुत दमदार तरीके से कहते हैं । ‘स्त्रियों ने कथाएं कहीं’ कविता में –

पुरूषों ने कथाएं कहीं/स्त्रियों ने भी कथाएं कहीं/पुरूषों में

कुछ ही पुरूष समझ पाए /स्त्रियों ने जो कथाएं कहीं

कथाएं नहीं/अपनी-अपनी व्यथाएं कहीं ।

बहुत कम उम्र में ही कविता से शुरूआत करने वाले ज्ञान प्रकाश चौबे ने बहुत जल्द ही कविताओं की ठोस जमीन तैयार कर ली । अपनी बोली-बानी के शब्दों को धार देकर कविता में ऐसे पिरोते हैं कि विचलन की स्थिति नहीं आती । बल्कि इनकी काव्य भाषा चमक उठती है । इस सदी के पहले दशक में हिन्दी साहित्य में खूब धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी लेकिन बाद में कई सालों तक अज्ञातवास की स्थिति में चले गये थे । अब पुनः दमखम के साथ उपस्थित हैं । इनके ‘जंगल कथा’ कवितांश की धमक देखिए –

आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से/हमारे वक्त का अधूरा सूरज

जिसकी अधूरी रोशनी में/हमारा गुमेठा हुआ भविष्य /हुंकारता है

बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो /और कहो कि समय का पहाड़

हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं

ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद ।

अब तक जितने कवियों के बारे में कुछ कहने की कोशिश की वह अंतिम नहीं है । इन कवियों के अलावा और भी युवा स्वर हैं जो लिख रहे हैं लेकिन यहां सबको समेटना सम्भव नहीं है । इतना जरूर है कि हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व करने वाले ये कवि नाउम्मीदी में भी उम्मीद तलाश लेते हैं । यह अलग बात है कि समय साहित्य की चालन से उम्दा रचनाओं को सहेज कर बेकार को बाहर कर देगा । फिर भी इन कवियों की रचनाएं इतना उम्मीद तो दिलाती ही हैं कि हिन्दी साहित्य का संसार संभावनाओं से भरा हुआ है । हमें इतना भरोसा है कि आने वाले समय में और बेहतर रचनाओं के आने की उम्मीदें हैं जिसका बेसब्री से हिन्दी को प्रतीक्षा है ।

संपर्क :
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल),
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
chauhanarsi123@gmail.com
यह आलेख परिवर्तन पत्रिका के प्रवेशांक में प्रकाशित हुआ था.

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