एक क्रांतिकारी की सजीव जीवनगाथा: मैं बंदूकें बो रहा
-जय चक्रवर्ती
हिन्दी के समकालीन रचनाकारों में अशोक ‘अंजुम’ का नाम अत्यंत प्रतिभाशाली और प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों में गिना जाता है। सब जानते हैं कि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ऐसे साहित्यकार हैं जो जिधर चल पड़ते हैं, उधर ही रास्ता हो जाता है। काव्य की लगभग सभी प्रचलित विधाओं में उन्होंने कई-कई कृतियाँ हिन्दी साहित्य को दी हैं । गीत, ग़ज़ल, दोहा, हास्य-व्यंग्य सहित लघुकथा, नाटक और बच्चों के लिए उनकी दो दर्जन मौलिक और तीन दर्जन संपादित किताबें पाठकों के बीच भरपूर समादृत हुई हैं। न सिर्फ इतना, अपितु विशुद्ध साहित्य को समर्पित त्रैमासिकी ‘प्रयास’ (अब ‘अभिनव प्रयास’) के सम्पादन के माध्यम से वे अनेक वर्षों से हज़ारों हिन्दी प्रेमी पाठकों से सीधे जुड़े हुए हैं। लेखन में ‘व्यंग्य’ उनका मूल स्वर है , जिसे अपनी रचनाओं में ढालकर वे समाज और व्यवस्था के विद्रूप पर पूरी निर्भीकता और ईमानदारी के साथ प्रहार करते हैं। ‘प्रेम’ उनके संस्कारों में है , इसलिए अपने गीतों, ग़ज़लों और दोहों में उन्होंने प्रेम और श्रृंगार को भी खूब लिखा है।
इधर, हाल के दिनों में वे अपनी एक और विलक्षण प्रतिभा के साथ हमारे सामने आए हैं। वह है- दोहों के शिल्प में खंड काव्य की रचना। हिन्दी कविता की सुदीर्घ सृजन-परंपरा में खंडकाव्य यूँ तो अनेक कवियों द्वारा बहुत पहले से अलग-अलग छंदों में रचे जाते रहे हैं, पर संभवतः यह पहली बार है जब दोहा-छंद में कोई खंडकाव्य हिन्दी साहित्य को मिला है। यह काम अशोक अंजुम ने करके दिखाया है।‘मैं बंदूकें बो रहा’ शीर्षक से पाँच सौ पाँच दोहों में वर्णित यह खंडकाव्य भारतीय क्रांतिकारियों के इतिहास के सबसे प्रखर और जाज्वल्यमान सितारे सरदार भगतसिंह के जीवन और विचारों तथा बलिदान का जीवंत दस्तावेज है। भगतसिंह के जन्म से लेकर उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं जलियाँवाला बाग, असहयोग आंदोलन, साइमन कमीशन का विरोध, असेंबली बम कांड, लाहौर षड्यंत्र और फाँसी तक पंद्रह सर्गों में विभक्त यह खंडकाव्य भगत सिंह के बहाने ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों को परत-दर-परत उधेड़ता है।
इस कृति का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यह ऐसे व्यक्ति पर केन्द्रित है, जिसके जीवन और उससे जुड़ी घटनाओं पर न सिर्फ भारतीय साहित्य और इतिहास में, दुनिया की अनेक भाषाओं में पहले से ही असंख्य कृतियाँ मौजूद हैं। ऐसे में किसी नई कृति के सृजन में मौलिकता के अभाव का ख़तरा हमेशा बना रहता है। कहना न होगा कि अशोक अंजुम ने यह ख़तरा उठाते हुए मौलिकता की चुनौती को स्वीकार किया।
भगतसिंह हमारे सामने एक ऐसे नायक के रूप में आते हैं, जो मात्र तेईस वर्ष के जीवनकाल में देशप्रेम, संघर्ष और वैचारिकी के स्तर पर दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े क्रांतिकारी और विचारक के समकक्ष, बल्कि कहीं-कहीं उससे भी आगे खड़े दिखाई देते हैं। 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में जन्में भगतसिंह को अँग्रेजी हुकूमत से नफ़रत और उसके खिलाफ विद्रोह के संस्कार अपने घर से मिले। मात्र बारह साल की उम्र में उन्होने जलियाँवाला बाग हत्याकांड देखा । इस दुर्दांत घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। अंजुम जी इस घटना से आक्रोशित बालक भगत सिंह की मनोदशा को इस तरह शब्द देते हैं-
बारह-साला भगत ने, सुनी खबर जिस वक्त।
हुई विक्षिप्तों-सी दशा, लगा खौलने रक्त।।
रँगा हुआ था रक्त से, जलियाँवाला बाग।
उस बालक के हृदय में, लगी धधकने आग।।
1920 में लाहौर के नेशनल काॅलेज की पढ़ाई छोडकर वे महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाये जा रहे असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। चैदह वर्ष की आयु में उन्होंने सरकारी स्कूल की किताबें और कपड़े जला दिये। किन्तु 1922 में चैरी-चैरा हत्याकांड के बाद गांधी जी द्वारा किसानों का साथ नहीं दिये जाने से भगतसिंह बहुत उदास हुए और उन्होने भारत की आजादी के लिए सशस्त्र-संघर्ष का रास्ता अपनाने का संकल्प ले लिया –
दब्बूपन से तो कठिन, जीत सकें हम जंग।
सोच-समझ कर भगत ने, लिया क्रान्ति का संग।। (पृ.27)
9 अगस्त,1925 को शाहजहाँपुर से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर रोककर उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य क्रांतिकारियों के साथ खजाने को लूट लिया। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से दर्ज है। इसके बाद वे और सुखदेव अंग्रेजों को चकमा देते हुए लाहौर अपने चाचा के पास चले गए, जहाँ उनके चाचा सरदार किशन सिंह ने उन्हें दूध के कारोबार में लगा दिया। किन्तु इन सब कामों में उनका मन कहाँ लगने वाला था। 17 दिसंबर , 1928 को उन्होंने राजगुरु के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या कर दी। अँग्रेजी हुकूमत भगतसिंह के इस दुस्साहस से बौखला उठी और उन्हें पकड़ने के लिए बेताब हो उठी। भगतसिंह ने यहाँ भी पुलिस को चकमा दिया और दुर्गा भाभी के सहयोग से कलकत्ता पहुँच गए। कुछ दिन बाद कलकत्ता से आगरा पहुँचे, जहाँ अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ असेंबली में बम फेंकने की योजना बनी। बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर उन्होंने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली में 8 अप्रैल, 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर केस शुरू हुआ। 7 मई, 1929 को कोर्ट में उनकी पहली पेशी हुई। 10 जून , 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। जेल में उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। किन्तु वे न झुके, न अपने विचारों से डिगे। अंत में 23 मार्च, 1931 को उन्हें तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे।
भगतसिंह लगभग दो साल तक जेल में रहे । इस मध्य उन्होंने विशद अध्ययन किया, लेख लिखे। जेल प्रवास के दौरान लिखे गए उनके लेखों और परिवार को लिखे गए पत्रों से उनकी वैचारिकी को भली-भाँति समझा जा सकता है। उन्होंने आत्मकथा लिखी, और तीन किताबें भी लिखीं। इस बीच उन्हें बचाने के भी अनेक प्रयास किए गए, किन्तु अंग्रेजों की ओर से हर बार माफ़ी माँगने की शर्त रखी गई और भगतसिंह ने हर बार इनकार कर दिया। भगत सिंह क्रांतिकारी देशभक्त तो थे ही, वे एक अध्ययनशील विचारक, चिंतक, दार्शनिक, लेखक और अत्यंत सजग पत्रकार भी थे।… और इन सबसे ऊपर वे एक सच्चे और सहृदय इंसान थे। उन्होंने मात्र तेईस वर्ष के छोटे से जीवन में बहुत बड़ा जीवन जिया। हिन्दी, उर्दू, अँग्रेजी, संस्कृत , पंजाबी और आयरिश भाषा के विद्वान भगतसिंह भारत में समाजवाद के सामभवतः पहले व्याख्याता थे। इन सारी ऐतिहासिक घटनाओं को अशोक अंजुम ने इस कृति में सिलसिलेवार और तिथिवार बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। फाँसी से पूर्व उनसे अंतिम मुलाकात करने के लिए जब उनके परिवारीजन पहुँचते हैं , उस समय जो मर्मांतक दृश्य उपस्थित हुआ होगा , उसे अशोक अंजुम के शब्दों में देखें-
तीन मार्च इकतीस को, मिलने अंतिम बार।
मात-पिता-भाई-बहिन, पहुँचा कुल परिवार।। (पृ.106 )
माँ से बोले भगतसिंह, भरकर ठंडी श्वास।
लेने को आना नहीं, बेवे ! मेरी लाश।।
कहीं आप जो रो पड़ीं, सह ना सकीं वियोग।
माँ रोती है भगत की, ये बोलेंगे लोग।। (पृ.107 )
फाँसी से पूर्व जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने जो कहा, उसे सुनकर किसी भी संवेदनशील और अपने देश के प्रति प्रेम करने वाले व्यक्ति की आँखें भीग जाती हैं और सीना गर्व से भर उठता है-
प्राण नाथ जी पूछते, करके उधर निगाह ।
भगतसिंह जी आपकी, क्या है अंतिम चाह ?
भगतसिंह बोले- मिले, भारत माँ की गोद।
पुनः जन्म लूँ मैं यहीं, सेवा करूँ समोद।। (पृ.109)
भगतसिंह का जीवन और चरित्र तमाम आयामों से हमें रोमांचित करता है। फाँसी के एक दिन पूर्व जब उनके पास वायसराय की ओर से माफ़ी का संदेश जाता है , तो उनकी प्रतिक्रिया को अशोक भाई ने जो शब्द दिये हैं, वे बेजोड़ हैं-
किन्तु जिऊँ मैं कैद में, होकर के पाबंद।
मुझको ऐसी जिंदगी, हरगिज नहीं पसंद।।
इंक़लाब की राह पर, पाया उच्च मुकाम।
जिंदा रहकर वह नहीं, हरगिज होगा नाम।।
मेरी जो कमजोरियाँ, मेरे मन के रोग।
यदि फाँसी से बच गया, जानेंगे सब लोग।
हँसते-हँसते थाम लूँ, मैं फाँसी की डोर।
पैदा होंगे अनगिनत, भगतसिंह चहुँ ओर।। (पृ. 110-111)
अपने अनेक लेखों में भगत सिंह ने पूंजीवाद का ज़ोरदार विरोध किया, उन्होंने लिखा कि पूँजीपति हमारे दुश्मन हैं। मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण से वे बहुत विचलित होते रहे। उनका कहना था कि श्रमिकों का शोषण करने वाला हिन्दुस्तानी ही क्यों न हो, उनका शत्रु है। जेल में रहते हुए उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’। यह लेख अँग्रेजी भाषा में था। जिसका बाद में दर्जनों भाषाओं में अनुवाद हुआ। इस लेख से भगतसिंह की वैचारिकी को बड़ी शिद्दत से समझा जा सकता है। जेल में रहते हुए भगतसिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की इस दौरान उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने अपने प्राण त्याग दिये।
जैसा कि मैं ऊपर भी कह चुका हूँ कि अशोक अंजुम ने अपनी इस कृति में भगतसिंह के जीवन की अधिकांश घटनाओं को समेटने की कोशिश की है, तथापि ऐसा लगता है कि उनके जीवन का बहुत कुछ ऐसा छूट गया है, जिस पर यदि कवि की लेखनी और चलती तो भगत सिंह के विराट व्यक्तित्व और उनके विचारों तथा आदर्शों को पाठक और बेहतर समझ पाते। मगर यह भी सच है कि हर लेखक की अपनी सीमाएँ होती हैं, जिनके अंदर ही उसे अपना कार्य करना होता है। अशोक अंजुम जी ने संभवतः कृति के अत्यधिक विस्तार के भय से कुछ बिन्दुओं को संक्षेप में समेट लिया। इसके बावजूद यह कृति सर्वथा पठनीय और स्वागतेय है।
आशा की जानी चाहिए कि हिन्दी जगत अशोक अंजुम जी की अन्य कृतियों की ही तरह इस कृति का भी भरपूर स्वागत करेगा।
पुस्तक विवरण –
पुस्तक: मैं बंदूकें बो रहा (खंडकाव्य)
कवि: अशोक अंजुम
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, 232 एस/एफ, पाॅकेट बी-1, लोकनायकपुरम्, नई दिल्ली-110 041 /मो.96501 00102
पृ.सं.: 120 / मूल्य: रु.160/- (पेपरबैक)
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