भगवती देवी की कविताएँ
कैद के अन्दर कैद
देखा सड़कों को उदास
गलियों को रोते हुए
मैंने देखा
सड़कों को सुबकते हुए
समय बिलकुल थम गया
हमें घर में कैद
होना पड़ा
और छोड़ना पड़ा
सड़कों को सड़कों पर उदास।
यह ऐसा समय था
जिसमें सड़कों पर
नहीं थे स्कूल जाते बच्चे
न ही अख़बार बेचते बच्चे
नहीं था ठेले वाला
नहीं था रिक्शे वाला
नहीं थी गाड़ी
नहीं थी रेलगाड़ी
हवाई जहाज़ के पहिए भी
रुक गए
ये ऐसा समय था
जब योगी गेट* की सांसे भी
फूल चुकी थी
अन्तिम यात्रा को कंधा नहीं था
सड़कों के साथ
पूरा संसार उदास था
ये संदेह से भरा समय था
डर को और ज़्यादा महसूस किया
यह कैद के अन्दर
एक और कैद की यातना का समय था।
*(योगी गेट – जम्मू में एक शमशान घाट)
उसकी आँख
मुझमें वह ढूँढ़ा गया
जो मुझमें था ही नहीं
मीलों चलकर भी
वह मुझ तक कभी न पहुँच सका
वह जिस दिशा में चलता रहा
वहाँ मेरी तलाश का एक बीज तक न था
वहाँ तो उसकी अपनी आँख टंगी थी।
नाप
जीवन जीना सबके हिस्से में कहाँ
बेहतर सोचना सबके हिस्से में कहाँ
मन की पतंगे उड़ाना सबके बस में कहाँ
सबकी छाप में कहाँ-
भीड़ छोड़कर
सामूहिक गीत गाना सबके गलों की नाप में कहाँ !
दिलवाला ना मिला…
सुबह से शाम
महीने से साल
साल भर से साल भर
घूमा गया शहर
कोई रूह में
उतरता ना मिला
ठग मिले
लोभी मिले
बातों में बातें डालने वाले मिलें
कान के कच्चे मिलें
बने बनाएं दिमाग के मिलें
हाथ से तंग मिलें
कईं बेढंग मिलें
कोई बड़े दिल वाला ना मिला …
एक दूसरे को
चूसने वाले मिलें
नोचने वाले मिलें
रीड की हड्डी
तोड़ने वाले मिलें …
टूटते घर मिलें
टूटे व्यक्ति मिलें
बिखरे-बिखरे
पल मिलें
कोई अपना ना मिला ।
माँ
मैं देख रही थी
चुपके से
खिड़की के झरोखे से
मां के माथे पर
उभर आईं सिलवटें …
वहां नहीं थी वह
जहां दिख रही थी
वह पढ़ रही थी
खोज रही थी खुद को
65 की उम्र में…
जो बहुत पहले थी
इस समय हरगिज़ नहीं थी वह
उसके द्वारा बुने गए
तमाम सपने,
तमाम उड़ानें और आकांक्षाएं हवा में ही थीं…
कहां गया उसका समय
जो उसकी मुट्ठी में था
कहीं फिसलता ही चला गया
रेत की भांति
जीवन की पगडंडी पर
चलते-चलते…
माथे की सिलवटें बताती
वह भरे पूरे घर में
अकेलेपन का दंश झेल रही है
सबकी ज़िंदगियां बनाने के बाद
अब वह कहीं नहीं थी…
उसी दिन निहार रही थी शीशा
तलाश रही थी वह खुद को
झुर्रियों से भरे चेहरे में…
आज वह थकी हुई
बैठी थी चूल्हे के पास…
बस चूल्हा ही था
जो उसे भीतर तक समझ पाया
भरे पूरे घर में…
वही एक खास साथी निकला
जिससे मां
जीवन के गूढ़ रहस्य
साझा करती
और तृप्त रहती…
कर भी क्या सकते हो
जो रास्ते में हैं
मंज़िल पा ही लेंगें
यू भ्रमित करने से
थोड़ा ही घबराती हूं
होले होले से
तोड़ने की कोशिश…
यह सब बेकार है
तुम्हारी चिकनी चुपड़ी बातों में
थोड़ा ही आने वाली हूँ
तमाम साजिशों को
मिट्टी में मिलाने वाली हूँ।
यह मेरी पीठ के निशान
मिटाने से तो नहीं मिटेंगे
रचा है तुमने अपने कर्मो का इतिहास
तुम्हारी चालाकियों से थोड़े ही मिट जाएगा।
अहं से चूर कर भी क्या कर सकते हो
यही कर सकते हो ।
इस शहर से…
यहाँ तो
बड़े-बड़े लोगों की
छोटी-छोटी बातें हैं
यह चाहिए क्या…
यहाँ तो
छोटे-छोटे लोगों के
बड़े-बड़े सपनें
फैक्टरी से निकलते धुंएं में ही
धुआंधार हो जाते हैं
यहाँ एक्सक्यूज मी कहकर
बदले जाते हैं इरादे
खचाखच शहर में
चींखें नहीं देती सुनाई कहीं भी
मन की भयंकर पीड़ा
मन में ही घूमतीं है यहां
मन में ही लड़े जाते हैं युद्ध
और हिल जाती हैं
व्यक्ति की ही पसलियां …
यहाँ तो
अच्छा भला व्यक्ति
या तो
मनोरोगी हो जाता है
या फिर
भोगी हो जाता है
इस शहर से
तुम्हें चाहिए क्या…
संपर्क : भगवती देवी लेक्चरर, हिंदी विभाग जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू जम्मू – कश्मीर drbhagwativ@gmail.com |
Neha Bandral
Excellent writing, Proud of you…my Dear
Balwan Singh
सभी कविताएँ उम्दा हैं विशेषकर ‘ क़ैद के अंदर क़ैद ‘ और ‘ माँ ‘ । क़ैद के अंदर क़ैद को पढ़कर भयावह समय के वो मनहूस दिन पुनः आँखों में चित्रपट की तरह दौड़ने लगते हैं । निःसंदेह यह आपकी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में हमेशा शुमार की जाती रहेगी । माँ कविता में माँ का बिम्ब सशक्त बन पड़ा है । कविता वाली माँ के संघर्ष , उसके अकेलेपन की पीड़ा में पाठक को अपनी माँ का अक़्स नज़र आता है ।
बहुत बढ़िया ।
अच्छा लिखो और खूब लिखो ।
स्नेह ।
डॉ. रवि कुमार
मेम बहुत अच्छी कविता करती हैं आप पड़ते समय लगता है मानव हम अपने बारे में ही पड़ रहे हैं । आप एक दिन जम्मू कश्मीर का नाम रोशन करोगी
मोहित मेहरा
बहुत सुंदर कविताएं आपकी इन रचनाओं का जवाब नहीं मेरी तरफ से शुभकामनाएं
Sonia jamwal
Wah janab ………