आदिवासी विरासत और जीवन-यथार्थ का प्रतिनिधि स्वर: कोनजोगा
समीक्षक : पुनीता जैन
आदिवासी गीत-परंपरा के वाचिक रूप में उनका सहज जीवन-बोध, प्रकृति-प्रेम, संस्कृति, स्थानीयता की मौलिक गंध मौजूद है जो उनकी आत्मा के संगीत और जीवन की स्वाभाविक लय के साथ अभिव्यक्त होती रही है। जबकि वर्तमान परिवेश में लिखी जा रही आदिवासी कविता उनकी गरिमा को पहुँचाए गए आघात के विरूद्ध प्रतिरोध की आवाज़ है। साथ ही इसमें अतीत और वर्तमान परिस्थितियों के अन्तर्विरोध, सांस्कृतिक संक्रमण, सामाजिक विद्रूप, संघर्ष और यातना के चित्र भी उत्कीर्ण हुए हैं। अपने मूल निवास से बार-बार के विस्थापन का त्रास केवल पीड़ा को ही नहीं वरन् भविष्य के प्रति एक गहरी चिंता को भी जन्म देता है, जिसमें जंगल ही नहीं सम्पूर्ण प्रकृति, आदिवासी संस्कृति, भाषा और अस्मिता के लिए विकलता निहित है। इसी विकल स्वर को अभिव्यक्ति देने हेतु आदिवासी कवि हिन्दी में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। अपने स्थान से विच्छिन आदिवासी समुदाय जड़विहीन होकर जिन भीषण स्थितियों का सामना करने को विवश हुआ, दमन, हिंसा और यातना से गुजरता रहा, हिन्दी जगत को उसके विशद रूप से परिचित होना अभी शेष है। अपने मूलभूत परिवेश से उखड़ा यह समुदाय नैसर्गिक आर्थिक आत्मनिर्भरता से ही विच्छिन्न नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश, जीवन-शैली और स्वाभाविक पर्यावरण से ही विलग कर दिया जाता है, ऐसी स्थिति में उनकी पहचान का संघर्ष, पहचान के नित खंडित होते जाने का भी संघर्ष है। वर्चस्वशाली संस्कृति, भाषा और जीवन-शैली की अधीनता की स्थिति में अस्मिता के संकट की चिंता का अधिक प्रखर हो जाना स्वाभाविक है। वस्तुतः सांस्कृतिक और सामाजिक दमन, उत्पीड़न और अन्याय की स्थिति में कविता ही वह जगह है जहाँ यातना के सत्य की आवाज़ को विस्तार मिलता है। वर्तमान आदिवासी कविता अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अन्याय को स्वर देते हुए प्रकृति और मानव के संबंधों पर पुनर्विचार के लिए जगह बनाने का कार्य करती है। वंदना टेटे इसी स्वर की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, वे न केवल आदिवासी विचार और दृष्टि को दृढ़़तापूर्वक हिन्दी जगत के सम्मुख रखती हैं बल्कि अपनी रचनाशीलता द्वारा भी प्रभावित करती हैं। वंदना टेटे का आदिवासियत विषयक चिंतन अत्यंत मौलिक और प्रखर है। वे स्पष्टता से अपना मन्तव्य रखते हुए आपत्तियाँ दर्ज कराती हैं।
खड़िया भाषी वंटना टेटे की प्रथम कविता ‘समझौता’ आदिवासी’ पत्रिका में सन् 1984-85 में छपी थी। ‘कोनजोगा’ (2015) उनका प्रथम काव्य-संग्रह है। ‘कोनजोगा’ ‘एक पहाड़ है जो खड़िया आदिवासी समुदाय का सांस्कृतिक स्थल है तथा झारखंड के गुमला जिले में स्थित है। आदिवासी कवि कविता विधा को किस रूप में देखते हैं, तद्विषयक विचार जानना आवश्यक है। वंदना टेटे का साहित्य के स्थापित मानदंडों को अस्वीकार करने व कविता को अपने नज़रिए से देखने का सुस्पष्ट तर्क व दृष्टिकोण है- “मैंने कभी ये नहीं सोचा कि लिखी गयी कविता अच्छी है या नहीं। कविता है भी या कि नहीं। मुझे लगता है कि जैसे पेड़-पौधों पर नैसर्गिक रूप से फूल खिलते हैं, आसमान में सूरज, चाँद-सितारे और बादल मनोहारी कलाएँ रचते हैं वैसे ही व्यक्ति की भावनाएँ और विचार शब्दों के जरिए कोरे पन्नों पर टंग जाया करते हैं। कविता के प्रतिमान कैसे होने चाहिए या काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कविता में किन-किन लक्षणों का होना जरूरी है, ये सब वर्चस्ववादी बाधाएँ हैं। गैर आदिवासी काव्य-परंपरा से ऐसे सामंती और आलोचकीय वर्चस्व को छिनवा कर ही कविता के नैसर्गिक विश्व की रक्षा की जा सकती है। जैसे कि आदिवासी काव्य -परंपरा है जहाँ कोई आलोचक नहीं होता बस एक सामूहिक जीवन-दृष्टि होती है जिसमें निजता और सामूहिकता इस तरह से गुंथे हुए होते हैं कि दोनों को गैर आदिवासी विश्व के ‘दूध और पानी’ दर्शन की तरह अलग ही नहीं किया जा सकता। इसीलिए मेरी कविता मुझे ‘कोरोया’ सी लगती है। कोरोया जंगल का सफेद रंग का एक फूल है जो गुच्छे में खिलता है। बहुत आकर्षित करने वाली सुगंध उसमें नहीं होती पर वह हमें प्रिय है।“ (कोनजोगा, पृष्ठ-6) वस्तुतः प्रभुत्वशाली काव्यशास्त्रीय आग्रहों से विलग आदिवासी लोक-स्वर की अत्यंत सहज-सरल और सीधी कहन परंपरा है, बिना साज-सिंगार और बनावट की। इस सहज स्वाभाविक काव्य-कर्म में स्थानीयता की लोक-गंध है, आदिवासी जीवन-जगत है, जंगल और प्रकृति के बीच रचे-बसे आदिम संस्कृति के सहज स्वर हैं, वृक्ष, फल-फूल, नदी, पहाड़ के सान्निध्य में डूबे पर्व, त्योहार और ज्ञान परंपराएँ तथा उसके विलुप्त होते जाने का त्रास और चिंताएँ हैं, सामाजिक न्याय की स्वाभाविक आवाज़ है।
आदिवासी विचारक वंदना टेटे के काव्य-कर्म में कविता के प्रतिमानों और हिन्दी काव्य मुहावरे की जगह आदिवासी सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और चुनौतियों की अनलंकृत और स्वाभाविक प्रस्तुति पर दृष्टि डाली जाए तो उसमें एक सजग आदिवासी चिंतन-दृष्टि और आत्मानुभूति से संपृक्त एक प्रखर स्वर मिलेगा। वे हिन्दी में प्रस्तुत कविता में बेहिचक खड़िया भाषा और उसकी गीतात्मकता को उसकी स्थानीयता के साथ संयोजित करके एक स्वाभाविक कला-कर्म द्वारा अभिव्यक्त होती हैं – “हां, हम सुन रहे हैं लोहे का गीत/ नेतरहाट के पाट पर ए दीदी लसय लसय… /हाँ, हम सब भी कमान तान रहे हैं /डोम्बारी पहाड़ पर ए संगी रियो रियो /हाँ, हमारे भी पैर थिरक रहे हैं /बीरू दिसुम में ए सांगो धिरोम धिरोम।“ (वही पृष्ठ-85) इस काव्याभिव्यक्ति में आदिवासी गीत-परंपरा की ध्वन्यात्मकता, संगीत के साथ अत्यंत कुशलता से विरोध को भी जगह मिल गयी है। आदिवासी संस्कृति, परपंरा, भाषा व पहचान की गंभीर चिंता के साथ उनकी कविता में भूमंडलीकरण से आदिवासी क्षेत्रों में हुई घुसपैठ से उत्पन्न अस्तित्व-संकट का तीव्र बोध है। उनकी काव्य-चेतना में आदिवासी सांस्कृतिक मूल्यों, प्रतीकों को बचाने की दृढ़ता तथा आदिवासी अस्मिता और आत्मसम्मान की रक्षा का प्रबल भाव भी है। प्रकृति की उपस्थिति यहाँ सौन्दर्यवादी दृष्टि के अनुरूप नहीं है बल्कि जीवन में घुली-मिली, उसके स्वाभाविक सान्निध्य और आस्था के केन्द्र के रूप में है। ‘कोनजोगा’ की कविताएँ इसी नयी अनुभव-भूमि व भाव-दृष्टि द्वारा आदिवासी जीवन-यथार्थ से परिचय कराती हैं। आदिवासी काव्य-लेखन में अनुज लुगुन, निर्मला पुतुल, जसिंता केरकेट्टा जैसे हिन्दी द्वारा अपनाए गए हस्ताक्षरों के बीच वंदना टेटे अपनी स्वतंत्र और प्रखर भंगिमा के साथ उपस्थित हैं जहाँ वे एक कवयित्री से अधिक एक प्रखर आदिवासी स्वर होने का बोध कराती हैं। बेशक अपनी शर्तों पर टिका यह काव्य-कर्म मौलिकता का परिचय देने में सक्षम है।
वंदना टेटे को साहित्यिक संस्कार विरासत में अपने नाना प्यारा केरकेट्टा तथा माँ रोज केरकेट्टा से मिले। इन्हीं से प्राप्त सामाजिक, राजनीतिक दृष्टि और आदिवासी संस्कार ने उन्हें आदिवासियत और आधुनिक जीवन-बोध को साथ रखकर समझने की वह दृष्टि दी जिसके द्वारा वे वर्तमान परिदृश्य में आदिवासी जीवन-दर्शन, संस्कृति तथा उसके समक्ष उपस्थित संकट और चुनौतियों को संतुलित रूप से विश्लेषित करने की योग्यता अर्जित करती रही हैं। इस दृष्टि का परिचय उनकी कविताएँ भी कराती हैं। सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में वे बाह्य प्रभाव के साथ आंतरिक स्थितियों पर भी पैनी दृष्टि रखती हैं। भौतिकवादी जीवन-शैली में डूबी आधुनिकता ने आदिवासी समाज की नयी पीढ़ी को उनकी मूल संस्कृति से दूर किया है जिसके प्रति एक गहरी चिंता उनकी कविता ‘हमारे बच्चे नहीं जानते तोतो-रे नोनो-रे’ में दिखाई देती है। वस्तुतः आदिवासी समाज उन्मुक्त प्रकृति के सान्निध्य में स्वतंत्र विचरण करता हुआ अपनी ज्ञान-परंपरा, पर्व-त्योहार, और उस जीवन-दृष्टि को प्राप्त करता रहा है जिसकी बुनियाद सहजीविता, सहअस्तित्व है। प्रकृति व संपूर्ण सृष्टि के साथ जीवन जीने की यह दृष्टि उन परिस्थितियों में कैसे विकसित हो सकती है जब तकनीक से घिरी पीढ़ी अपने संकुचित संसार में सीमित हो- ‘और बंद कमरे में सारे मौसम/ गुजर जाते हैं।’ (पृष्ठ-11) आदिवासी जीवन-दृष्टि और नवशिक्षित वर्ग की आधुनिक जीवन-शैली के मध्य-बिन्दु पर अपने बच्चों के माध्यम से आदिवासी परंपरा के अस्तित्व और भविष्य को लेकर गहरी चिंता और पीड़ा इन पंक्तियों में अभिव्यक्त की गयी है- “सच में /मैं चिंतित और उदास हूँ /कि नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे / डोरी, कुसुम से तेल निकालने की /मछली और चिड़िया पकड़ने की /देशज तकनीक /महुआ लट्ठा, इमली के बीज के साथ /औटाया गया खाने का स्वाद /सरहुल पर्व से पहले /जंगल के फल फूल को तोड़ने खाने की मनाही /करमा के बाद खेतों में खड़ी / भेलवा की टहनियों का राज /आह! नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे ।“ (पृष्ठ-12)
नयी पीढ़ी को तकनीकों की बहुत सी जानकारियाँ हैं किन्तु ‘बारिश से पहले चीटियाँ अपने अंडे लेकर क्यों भागती है इसकी कोई जानकारी नहीं है। आधुनिक समाज यथार्थ से ज्यादा आभासी दुनिया की जानकारी रखता है। परिणामस्वरूप प्रकृति और जीवन-यथार्थ के साथ सहज संबंध खंडित हुए हैं तथा मनुष्य के स्वार्थ ने प्रकृति का अपार दोहन किया। आदिवासी जीवन-शैली जमीनी यथार्थ और प्रकृति से गहरी जुड़ी है तथा उसके अनुभव-जगत में प्रकृति और जीव-जगत से जुड़ी अनगिनत जानकारियाँ है, जिसका लिखित इतिहास नहीं है। इस ज्ञान-परंपरा से वंचित पीढ़ी प्रकृति और जैव विविधता के गूढ़ ज्ञान से विहीन होकर सृष्टि के कई रहस्यों से दूर चली जायेगी, यह चिंता संपूर्ण मानव जगत के लिए है – “छूट जाएगी चीजें मेरे बच्चों से /छूट जाएगी दुनिया हमारे बच्चों से !”
इस ब्रह्मांड में जिस प्रकृति से हम घिरे हैं उसके एक जीवंत अंश से कट जाने की पीड़ा और बेचैनी वंदना टेटे की कविताओं में कई तरह से अभिव्यंजित हुई है। आदिवासी-परंपरा की इस चिंतन-दृष्टि में प्रकृति की समग्रता की चिंता निहित है। इसलिए इसे केवल अस्मितागत दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कोविड 19 जैसी महामारी से जूझती दुनिया के लिए प्रकृति के अस्तित्व की चिंता उतनी ही जरूरी है जितनी मानव अस्मिता की। बल्कि मनुष्य और प्रकृति के अन्योन्याश्रित संबंध तथा आदिवासी संस्कृति और परंपरा को सूक्ष्म रूप से समझकर उसके महत्त्व को निरूपित करने का यह सर्वाधिक उचित समय है। वंदना टेटे अपने चिंतन द्वारा इसे मुखरता से प्रतिपादित करती हैं। आदिवासी जीवन-शैली में प्रकृति का आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक आधार भी है। नदी, पहाड़, पेड़-पौधे, फल-फूल, जीव-जंतु, उनकी सांस्कृतिक परंपरा में अभिन्न रूप से जुड़े हैं। प्रकृति के वे रूप जो उनके सांस्कृतिक चिह्न व धरोहर है उनकी विलुप्ति, क्षति के विरूद्ध भी एक गहरी चिंता इन कविताओं में मुखरित है- “पुरखा कथाओं में दर्ज /कोनजोगा टूट रहा है /पुरखा कथाओं में दर्ज /जतरा के ढोल की आवाज /दफन हो रही है।“ (पृष्ठ-93)
‘कोनजोगा’ खड़िया सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा एक पहाड़ है, यह एक आदिवासी दृष्टि का कथन है किन्तु दूसरी तरफ विकासवादी, विस्तारवादी भूमंडलीकरण की आर्थिक दृष्टि के लिए ऐसे कई पहाड़ (जैसे नियमगिरि के पहाड़) खनिजों के अकूत भंडार हैं और विकास की इसी दृष्टि के कारण कितने हरसूद डूब गए किन्तु प्रकृति को बचाने वाले प्रयासों के पक्ष में न्याय विलंबित रहा, ये पीड़ा आदिवासी क्षेत्रों की आम पीड़ा है- “पर हरसूद को अब भी /न्याय की उम्मीद है /उस न्यायालय से /जो बुत बने देवालय की बगल में /मौन खड़ा है /सर झुकाए हुए।“ (पृष्ठ-74) पहाड़ जंगल पर विकास की कुदृष्टि ने आदिवासी जीवन की सरल जिंदंगी को न केवल लील लिया बल्कि उनके खेत-दर-खेत ऊँची इमारतों में बदलते चले गए। इस कृत्य ने आदिवासी जीवन के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक स्वरूप को आमूलचूल क्षति पहुँचाई। आदिवासी कविता ही नहीं संपूर्ण आदिवासी लेखन में विकास के इस विनाशकारी पक्ष को सूक्ष्मतापूर्वक चित्रित किया गया है। आदिवासी समाज को पिछड़ा, असभ्य समझ कर अवहेलित ही नहीं किया गया है, वे अन्याय और शोषण के भी शिकार होते गए हैं। देश के आदिम निवासी के सवालों और पीड़ा को इन कविताओं में प्रखर स्वर मिला है- “रची जा रही है /साजिशें गहरी- गहरी /हमारे ही खात्मे के लिए /बिछाए जा रहे हैं फंदे /ताकि /तुम्हारे विकास की गाड़ी /दौड़ सके रौंदती हुई हमारे / भूत वर्तमान और भविष्य को।“ (पृष्ठ-78) विकास की नीतियों को प्रश्नों के घेरे में लेने वाली यह काव्य-दृष्टि अत्यंत सजग है। यह दृष्टि आदिवासी समाज की हितचिंतक है जो उसकी सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के साथ आधुनिक जीवन का संतुलित संस्पर्श चाहती है। वे अपने क्षेत्रों में पुल, स्कूल, अस्पताल और सुविधाएँ चाहते हैं ताकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनिवार्य जरूरतों तक उनकी पहुँच बन सके, किन्तु जब यही नीतियाँ उन्हें उनके स्वाभाविक आर्थिक स्वावलंबन- खेतों, जंगलों से बेदखल कर उन्हें मजदूर बना देती है, तब ये डर उचित है- ‘‘डरता भी हूँ /पुल बनने से /कि घूमता हूँ जिस जंगल में निर्भय /पुल के बनते ही /तुम बेदखल कर दोगे मुझे भी” ……. “मैं रिक्शापुलर कुली /मेरी बेटियाँ आया, रेजा /मेरी पत्नी धंगरीन /के नाम से पहचानी जाएंगी /और मेरा एम.ए. पास जवान बेटा /अपने प्रतिरोध के कारण /नक्सली बनाकर मार दिया जाएगा /और इसलिए मैं दुविधा में हूँ, /पुल बने या नहीं !” (पृष्ठ-72)
वंदना टेटे के समग्र लेखन में आदिवासी जीवन के अस्तित्व को लेकर गहन विकलता है। वे बेबाकी व स्पष्टता से अपना पक्ष रखती हैं जिसमें प्रायः तनिक आक्रोश भी प्रकट होता है। वर्तमान परिदृश्य में यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि एक आदिवासी द्वारा की गयी प्रकृति की चिंता में पूरी मानवता की रक्षा के सूत्र निहित हैं। आदिवासी संस्कृति, भाषा और उसके वाचिक साहित्य में वह जीवन-बोध है जो प्रकृति में रमा-रचा-बसा है और उसके प्रत्येक अंग का आदर करता है। जीव-जंतुओं की भांति वे भी प्रकृति से आवश्यकतानुसार ही लेते हैं तथा उसे हानि नहीं पहुँचाते हैं। एक आदिवासी जब किसी विपरीत स्थिति में वृक्ष पर कुल्हाड़ी से प्रहार करता है तो उससे पूर्व उससे क्षमा-याचना करता है। इसलिए आदिवासी जीवन-दर्शन में प्रकृति के प्रति आस्था का भाव है। इसी प्रकृति के आंगन में विकास के नाम पर विनाश-लीला के प्रति आदिवासी कविताएँ आपत्ति दर्ज कराती हैं। वंदना टेटे की कविताओं में आदिवासी क्षेत्रों, जनजीवन में सतत हो रहे परिवर्तन व प्रभाव को चिह्नित किया गया है तथा आदिवासी संस्कृति के विलुप्त होते जाने की विकल चिंता अभिव्यक्त हुई है। प्रकृति के सौन्दर्य को एक आदिवासी की दृष्टि जिस तरह से देखती है वह हिन्दी कविता के रूढ़ दृश्यों से सर्वथा भिन्न है –“लाल धवई के फूल /खिल रहे हैं /जंगल में फूलचीभी /रस जोभ रही है रासे रासे/ जिरहुल के छोटे फूल /खुश हैं बहुत खुश /परास हांकवा कर रहा /डंपर के पैरों तले रौंदी धूल /जंगल से निकली हवा से मिल /जदूर खेल रही है /कुजाम पाट झूम रहा है।“ (पृष्ठ-81) आदिवासी-दृष्टि से उन्हीं के भाषिक-सौन्दर्य के साथ प्रकृति का यह रूप निश्चित ही हिन्दी कविता के लिए नया ही है। ‘रासे रासे’, “लसय लसय’, ‘रियो रियो’ शब्दों का आदिम सौन्दर्य आदिवासी गीत-परंपरा के संगीत व ध्वनि की देन है जो उनकी वाचिक-परंपरा के मौलिक स्वरूप से परिचय कराती है। प्रकृति और भाषा का समवेत सौन्दर्य इन पंक्तियों में भी दर्शनीय है, जिसके सहज रूप में आदिवासी चेतना की गूंज भी ध्वनित है- “छउवा समय है संगी /आओ खेलेंगे पहाड़-पहाड़ /आओ गाएंगे नदी-नदी /आओ नाचेंगे जंगल-जंगल /छउवा समय है सहिया /आओ बतियाएंगे संग-संग /…….. / आओ संगी /आओ सहिया /आओ गुइया /हम बनाए मिलकर /इस दुर्दांत समय को /छउवा समय /निद्र्वन्द्व निडर निर्मल।“ (पृष्ठ-82-83)
स्पष्टतः वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी पहचान और आवाज की कविताएँ हैं। वे किसी हिन्दी मुहावरे या रूढ़ सांचे का अनुकरण नहीं करती। उनके पास कहने को अपनी बात है और अपना भाषिक लहजा। इसलिए उनकी काव्याभिव्यक्ति में विविधता है। वे अपनी जड़ों से जुड़ी रहकर हिन्दी में सृजनशीलता का परिचय देती हैं। हिन्दी में इस खड़ियाभाषी कवयित्री की उपस्थिति अपने आदिवासी वैशिष्टय के साथ है जो उनके स्वतंत्रचेता काव्य-व्यक्तित्व का उदाहरण है। एक ईमानदार और सघन अनुभूति की अभिव्यक्ति का मार्ग स्वतःस्फूर्त रूप से अपने लिए एक सांचा, एक रास्ता चुनता है जिसमें व्यंजना, बिम्ब या प्रतीक स्वाभाविक रूप से आते हैं। वंदना टेटे जिस काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों को खारिज करती हैं उनकी काव्याभिव्यक्ति के सहज प्रवाह में वे स्वाभाविक उपस्थिति दर्ज कराते हैं, उसे अधिक व्यंजक बनाते हैं। किन्तु ये बिंब आदिवासी जीवन-यथार्थ का अभिन्न हिस्सा हैं। इस जीवन को खंडित करते बाह्य हस्तक्षेपों के चित्रण में बिम्बधर्मिता व रूपक की स्वाभाविकता ही इन पंक्तियों का वैशिष्टय बनकर सम्मुख आता है- “कविताओं वाली नदी /सूखने लगी है /गीतों के पहाड़ /उजाड़ है /जटंगी के खेतों में /हिंडाल्को की माइंस खुदी है /सूख गए हैं पोखरे /बादल पहाड़ों से /आँख चुरा रहे हैं /और जंगल से गुजरती हवा /गुनगुनाना गुदगुदाना भूल गयी है।“ (पृष्ठ-16) इस अभिव्यक्ति में प्रकृति और बिम्बधर्मिता की उपस्थिति सायास नहीं है। विसंगतियों और विडंबनाओं को ये कविताएँ इसी तरह अपने परिवेश में डूबकर प्रस्तुत करती हैं। यही कारण है कि एक आदिवासी की पीड़ा और आवाज संपूर्ण उपेक्षित, अन्याय और शोषण की शिकार मानवता की आवाज बन जाती है- “और कविताओं की नदियों में /डूबने की इच्छा /बंदूक की बटों /और बूटों के नीचे /कराहती रहती है /दिन रात।“ (पृष्ठ-16)
वंदना टेटे की कविता में खड़िया भाषा के शब्दों का सहज प्रयोग हुआ है। अर्थ न जानते हुए भी वे कविता को जो प्रवाह और लय देते हैं उसका सौन्दर्य प्रभावित करता है। रासे-रासे, लसय-लसय, रियो-रियो, धइरे-धइरे जैसे शब्दयुग्म की आवृत्तियों का संगीत हो या सीमधने, फोंफड़ने, रसजोभ, रूसुम, छउवा, पिछलन, ओगरा, कुंबो, डूबोः, हिलिर, हिलिर जैसे शब्द प्रयोग – ये एक विशिष्ट ध्वनि के कारण भाषा को प्रभावी बनाते हैं। कवयित्री की आदिवासी-चेतना व दृष्टि का विस्तार उसके जीवन-द्रश्यों, विसंगतियों, सांस्कृतिक पक्ष, भाषा के साथ साथ उसकी वर्तमान स्थिति तक जाता हैं इसलिए ‘कोनजोगा’ की कविताएँ आदिवासी जीवन के यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। इसमें यदि ‘सलवा जुडुम के डर से फुसफुसाती जिंदगी’ के दृश्य हैं तो वहीं ‘बोरसी की आग के पास नानी दादी से कहानी सुनने का मजा’ भी है, साथ ही आदिवासी दैनंदिन में रचे बसे निसर्ग के अनुभवों का जीवंत रूप भी, उसके खो जाने की चिंता भी- “पहली तेज बारिश का पानी जब /सूखी नदी में उतरता है /तो अपने आने की सूचना कैसे देता है /और पातर काका /क्यों जुते बैलों को तोतो-रे नोनो-रे कहते हैं /पथराई धरती /क्यों सोंधी महक से लबरेज हो जाती है।“ (पृष्ठ-12) इन कविताओं की जड़ें आदिवासी जीवन-शैली व संस्कृति में है इसी कारण उनकी काव्याभिव्यक्ति में मौलिकता है। सामान्य चीजें भी यहाँ जगह बनाती हैं- “नींबू की तरह /निचोड़ दिया है /और भर दिया है /मिर्च की तरह बेचैनी /सच बहुत अजीब सी /शांति है !” (पृष्ठ-45)
वंदना टेटे का काव्येतर लेखन आदिवासी समाज की चिंताओं और चुनौतियों से निरंतर मुठभेड़ करता है। उनकी सचेत दृष्टि आदिवासी जन को अपने अस्तित्व की लड़ाई खुद लड़ने हेतु निरंतर प्रेरित करती है। आसन्न संकट और संघर्ष की प्रेरणा के बीच आदिवासी मिथक पुरूष तिलका मांझी की स्मृतियाँ व उम्मीद के स्वर भी उनके काव्य-जगत को समृद्ध करते हैं- “कब तक जोहते रहोगे /अपनी पहचान जानने /के लिए दूसरे का मुंह /और कब तक आसरे में /रहोगे कि कोई आए /और तुम्हारे लिए लड़े।“ (पृष्ठ-68) अतीत और वर्तमान के संघर्ष-चित्र उकेरते हुए वे पूंजीवादी विकास के तले रौंदे जा रहे विस्थापितों को उनकी पहचान, अधिकार और श्रम के लिए सचेत करती हैं- “पूंजी के उड़न खटोले पर /सवार होकर वह /ले जाएगा तुम्हारी /जमीन, श्रम और पहचान।“ (पृष्ठ-79) समृद्ध सांस्कृतिक अतीत और जंगल, खेतों के उजड़ते चले जाने से वर्तमान पर संकट की चिंता आदिवासी लेखन की प्रत्येक विधा में मुखर हुई है। आदिवासी विद्रोह और उलगुलान का अपना इतिहास है। आदिवासी चेतना में उसकी जीवंत स्मृतियाँ हैं। ‘कोनजोगा’ की कविताओं में भी पुरखा पुरूष तिलका मांझी की स्मृति और उलगुलान की तड़प मौजूद है- “जमा कर रहा अपने भीतर /बोरसी की गरमी /जुटा रहा पोर पोर में /पुरखों सी ताकत /कंपनी के बड़े बड़े डूबोः के खिलाफ।“ (पृष्ठ-90) (डूबो :: भूत-प्रेत) ….. “दर्द अपमान और आक्रोश से आँखें /कोयल कारो सी ऊब डूब हो रही है /छातियों में पहाड़ फूल रहे हैं/कोख में सरसरा रहा है उलगुलान।“ (पृष्ठ-92) आदिवासी-चेतना में आशा, उम्मीद और खुशी के स्वर भी इन कविताओं में जगह बनाते हैं। आदिवासी जन में जागरूकता और शोषण के विरूद्ध उठाये गये स्वर के द्वारा वे भविष्य के प्रति उम्मीद से देखती हैं- “क्योंकि असुर और उरांव/झंडा लेते हुए /धइरे-धइरे आ रहे हैं।“ (पृष्ठ-81) ….. “मुस्कुराएगा चांद /घोटुल में गूजेगी हंसी /ये उम्मीद /कौंधती रहती हैं /बिजली की तरह।“ (पृष्ठ-14)
वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी संस्कृति, परंपरा, जीवन-दर्शन, भाषा और उनके जीवन में विकासवादी हस्तक्षेप से हुए परिवर्तन को दिखाते हुए एक पुख्ता जमीन तैयार करती हैं जिसके आधार पर वे अपना पक्ष रखते हुए सटीक विरोध दर्ज कराती हैं। आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करती नीतियों के प्रति ये कविताएँ आवाज़ उठाती हैं तो साथ ही प्रकृति और पुरखों से चली आ रही परंपराओं को लेकर भी सजग है। किन्तु इन चिंताओं और विरोधी तेवर के बावजूद जमीनी हकीकत से वे वाकिफ हैं। पूंजीवादी प्रसार और मानव के स्वार्थ और अहंकार ने हाशिए के समुदायों का न केवल शोषण किया है बल्कि निरंतर धर्म, नस्ल, रंग, जाति, धनबल के नाम पर उनकी घोर उपेक्षा की है। प्रकृति का गुस्सा कई तरह से प्रकट हो रहा है। तूफान और भूकंप उस प्रकृति के कुपित स्वर हैं, जिसके प्रति पूंजीवादी दुराग्रहों ने अति की है। आदिवासी जीवन इसी प्रकृति के आंगन में फलने -फूलने वाली सांस्कृतिक पहचान का नाम है। प्रकृति के विनाश में आदिवासी जीवन-जगत और पहचान के भी खोने की चिंता, उदासी और डर को इन पंक्तियों में मार्मिक रूप से ध्वनि मिली है- “जैसे सूख गयी दामोदर सुवर्ण रेखा /जैसे आसमान में बिला गयी सुगंधित हवाएँ /जैसे चूर-चूर हो गए मजबूत पहाड़ /जैसे छंटते कटते चले गए जंगल /हम भी जा रहे हैं /हम जा रहे हैं /जैसे चले गए पुरखे /जैसे जा रही है ये धरती /सबकी पहुँच से बाहर /धीरे धीरे हर क्षण।“ (पृष्ठ-95-96)
आदिवासी समाज के सहजीवी, सामूहिकता और सहअस्तित्व के सिद्धांत में समानता का भाव निहित है। फलस्वरूप वंदना टेटे के आदिवासी समुदाय विषयक चिंतन में यह बात बार-बार दोहराई गयी है कि आदिवासी समाज में लैंगिक असमानता नहीं है और न ही पितृसत्तात्मकता की प्रभुताशाली व्यवस्था। किन्तु उनकी कविताओं में आदिवासी‘ चेतना के समानांतर स्त्री-चेतना के जो स्वर हैं वे स्पष्ट करते हैं कि कथित सभ्य समाज में शामिल आदिवासी समाज भी लैंगिक भेदभाव के दुष्प्रभाव को भोगता है। आदिवासी समाज के संघर्ष के भीतर स्त्री को एक निजी संघर्ष का भी सामना करना होता है जो उसके स्त्रीत्व को लेकर है। शिक्षित समाज के वर्तमान स्वरूप में स्त्री की भूमिका और स्थिति उसे कई तरह के संघर्ष की ओर ले जाती हैं। वंदना टेटे के काव्य-कर्म में आदिवासियत के बरअक्स स्त्री को लेकर भी सर्वथा अलहदा किस्म का संघर्ष भाव है, जिसको अभिव्यक्ति देने में भी वे स्पष्ट और मुखर हैं- “तुम्हारी खिंची लक्ष्मण रेखा /के खिलाफ /उसने बो दिए हैं संघर्ष बीज।“ ….. “मिटाने को आतुर हैं उसके हाथ /हर उस लकीर को /जो बांधते हैं उसकी सीमा।“ (पृष्ठ-35) घर-परिवार के दैनंदिन कार्य-कलापों के भीतर स्त्री के कसमसाते अनुभवों, उसके मौन के भीतर की चिंगारी को वे रसोई के एक दृश्य के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोती हैं- “वह उठती है /चूल्हा सुलगाती है /और साथ ही /सुलगते हैं /उसके विचार /चूल्हें में चढ़े बर्तन की तरह /गर्म होते हैं, खदबदाते, ठंडे होते हैं /फिर राख की तरह /एक चिंगारी दबाए/ चुप हो जाती है।“ ……. “वह /अनाज बीनने बैठती है /और बीनती है अपनी सोच /जो उसके लिए अहम है।“ (पृष्ठ-48) वंदना टेटे की काव्याभिव्यक्ति में विरोध और तीक्ष्ण प्रश्न वाचकता के पीछे उनके ऊर्जावान विचार है, जिसके बारे में वे स्पष्ट है कि ये विचारशीलता उनके लिए ‘अहम’ है। इसी के कारण वे सामाजिक असंगतियों को प्रश्न के घेरे में लेती हैं। आदिवासी चेतना के साथ ही स्त्री-चेतना उनके काव्य-कर्म में प्रमुखता से स्थान प्राप्त करती है- “तुम जला दी जाती हो /रूप कुंवर की तरह /समाज कत्ल कर देता है तुम्हें /जब तुम प्रेम करती हो /संस्कृति की गर्म सलाखों से /फोड़ दी जाती हैं तुम्हारी आँखें /और जब जबान खुलती है तुम्हारी /तुम्हें बदचलन करार दे दिया जाता है।“ (पृष्ठ-51) सामाजिक विद्रूप से मुठभेड़ करती स्त्री अपने लिए एकांत चुनती है जिसमें विघ्न उसे पसंद नहीं। एकांत का एकालाप उसे नयी ऊर्जा देता है। जीवन-यथार्थ से प्राप्त अनुभवों को वैचारिक फलक से जोड़कर एक सटीक दिशा प्राप्त करने में यह एकांत एक कवि मन को सहयोग देता है- “मेरे एकालाप में /विघ्न अब सहन नहीं /बारिश की बूंदों /की हठधर्मिता /हवाओं से आते /पदचापों के स्वर /तोड़ते हैं मेरा एकालाप।“ (पृष्ठ-53)
आदिवासी जीवन-शैली तड़क-भड़क पूर्ण नहीं वरन् अत्यंत सरल, सादगी पूर्ण है, किन्तु स्त्री होने के नाते घर से मिलने वाली सीधे चलने की हिदायतों की मंशा भिन्न है। सामाजिक विसंगतियों के इस परिवेश में सीधे चलने की इच्छा कितनी दुष्कर है इसे बड़ी सहजता से यह कविता अभिव्यंजित करती है- “माँ ने कहा /पिता ने भी कहा /सीधे रास्ते पर चलना /सामने देखना /इधर उधर नहीं /सीधा रास्ता पकड़ना।“ ….. “और रास्ते ही रास्ते /पिछलन ही पिछलन /कहाँ जाऊँ माँ जोई /सीधी कैसे चलूं ।“ (पृष्ठ-56-57) आदिवासी समाज लैंगिक भेदभाव को नहीं मानता तथा स्त्रियों के महत्त्व को स्वीकार करता है। यद्यपि कथित सभ्य समाज में ऐसी स्थिति नहीं है। यहाँ स्त्री का संघर्ष कई मोर्चे पर है। आदिवासी समाज सहअस्तित्व के विचार को प्रत्येक स्तर पर स्वीकार करता है। ऐसे में कवयित्री का यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है जहाँ वे साधारण चीजों के बीच स्त्री के असाधारण महत्त्व को निरूपित कर जाती हैं- “लड़कियाँ /घर की छप्पर /खेत की लहलहाती फसल /चूल्हे की आग /बूढ़े आँखों की रोशनी /और झुकी कमर की लाठी होती हैं /दोस्त ! /क्या तुम्हारे यहाँ भी लड़कियाँ ऐसी होती हैं।“ (पृष्ठ-62) वंदना टेटे का हिन्दी में अभी तक केवल एक ही कविता संग्रह सम्मुख आया है किन्तु उनकी काव्य-दृष्टि व मूल्यों में किसी तरह की अस्पष्टता नहीं है। उनकी चिन्तन-दृष्टि ने ‘आदिवासियत’ शब्द का प्रयोग करते हुए आदिवासी जीवन-मूल्यों, वैचारिक पक्ष, जीवन-यथार्थ से हिन्दी-जगत को परिचित कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य सतत रूप से किया है। उनका काव्य-कर्म भी अत्यंत सचेत रूप से समुदाय की पीड़ा, शोषण, अन्याय के साथ आदिवासी जन की जिजीविषा व संघर्ष-चेतना को रूपायित करता है। उनके काव्य-स्वर में एक तरफ चिंता है तो दूसरी ओर जूझने की अदम्य क्षमता भी। काल्पनिकता की जगह ठोस यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती ये कविताएँ आत्मविश्लेष्ण की क्षमता भी रखती हैं। निजी जगत से व्यापक विष्व चेतना तक वे अत्यंत सहजता से पहुँच बनाती है। वस्तुतः इसके पीछे भी आदिवासी जीवन-दर्शन का सहअस्तित्व का विचार क्रियाशील है। आदिवासी जीवन‘दृष्टि व संस्कृति के वैषिष्ट्य के साथ कथित सभ्य समाज की संकीर्ण और एकांगी दृष्टि विकास की एकपक्षीय नीतियों पर नज़र रखते हुए वे बेबाकी से प्रश्न करती हैं और आपत्तियाँ सम्मुख लाती हैं। आदिवासी समाज की जातीय स्मृतियों को जीवंत रखते हुए सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में अस्तित्व की रक्षा हेतु सचेत रहने का भाव भी उनमें प्रखर है। नवशिक्षित आदिवासी समुदाय में सांस्कृतिक पहचान की चिंता के साथ परिवेश की विडंबनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि है। आदिवासी जीवन के अपरिहार्य अंग पर्व-त्योहार, सांस्कृतिक प्रतीक, गीत-संगीत-नृत्य परंपरा, देशज ज्ञान, भाषा और प्रकृति से गहन संपृक्ति को लेकर उनका चिंतन कविता में सृजनशील होकर हिन्दी को एक नव-आस्वाद-भूमि उपलब्ध कराता है, जो आदिवासी कवि के रूप में उनकी पहचान को पुष्ट करता है। आदिवासी कविता पर वैमर्शिक राजनीति का कोई प्रभाव नहीं है उनके विद्रोही भाव में भी जीवन-जगत की विसंगत स्थितियों की स्वाभाविक उपस्थिति है। वंदना टेटे की मुखरता और आदिवासी-चेतना भी जीवन के अनुभवों से उत्पन्न है, आरोपित नहीं। जीवन-यथार्थ से नैकट्य के परिणामस्वरूप ही वे आदिवासी विरासत और आधुनिक दृष्टि-बोध को संतुलित रूप से साधती हैं। आदिवासी जनजीवन, परिवेश और समाज से उपजा काव्य-बोध आदिवासी-लोक के यथार्थ का प्रतिनिधि स्वर बनने में सक्षम हैं, वंदना टेटे का काव्य-कर्म इसी का उदाहरण है।
किताब : कोनजोगा (कविता संग्रह) लेखिका : वंदना टेटे प्रकाशक : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन (2015) | समीक्षक : पुनीता जैन प्राध्यापक -हिन्दी शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, भेल, भोपाल मो. 94250-10223 rajendraj823@gmail.com |
Leave a Reply