हिन्दी के समकालीन रचनाकारों में अशोक ‘अंजुम’ का नाम अत्यंत प्रतिभाशाली और प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों में गिना जाता है। सब जानते हैं कि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ऐसे साहित्यकार हैं जो जिधर चल पड़ते हैं, उधर ही रास्ता हो जाता है। काव्य की लगभग सभी प्रचलित विधाओं में उन्होंने कई-कई कृतियाँ हिन्दी साहित्य को दी हैं । गीत, ग़ज़ल, दोहा, हास्य-व्यंग्य सहित लघुकथा, नाटक और बच्चों के लिए उनकी दो दर्जन मौलिक और तीन दर्जन संपादित किताबें पाठकों के बीच भरपूर समादृत हुई हैं। न सिर्फ इतना, अपितु विशुद्ध साहित्य को समर्पित त्रैमासिकी ‘प्रयास’ (अब ‘अभिनव प्रयास’) के सम्पादन के माध्यम से वे अनेक वर्षों से हज़ारों हिन्दी प्रेमी पाठकों से सीधे जुड़े हुए हैं। लेखन में ‘व्यंग्य’ उनका मूल स्वर है , जिसे अपनी रचनाओं में ढालकर वे समाज और व्यवस्था के विद्रूप पर पूरी निर्भीकता और ईमानदारी के साथ प्रहार करते हैं। ‘प्रेम’ उनके संस्कारों में है , इसलिए अपने गीतों, ग़ज़लों और दोहों में उन्होंने प्रेम और श्रृंगार को भी खूब लिखा है। इधर, हाल के दिनों में वे अपनी एक और विलक्षण प्रतिभा के साथ हमारे सामने आए हैं। वह है- दोहों के शिल्प में खंड काव्य की रचना। हिन्दी कविता की सुदीर्घ सृजन-परंपरा में खंडकाव्य यूँ तो अनेक कवियों द्वारा बहुत पहले से अलग-अलग छंदों में रचे जाते रहे हैं, पर संभवतः यह पहली बार है जब दोहा-छंद में कोई खंडकाव्य हिन्दी साहित्य को मिला है। यह काम अशोक अंजुम ने करके दिखाया है।‘मैं बंदूकें बो रहा’ शीर्षक से पाँच सौ पाँच दोहों में वर्णित यह खंडकाव्य भारतीय क्रांतिकारियों के इतिहास के सबसे प्रखर और जाज्वल्यमान सितारे सरदार भगतसिंह के जीवन और विचारों तथा बलिदान का जीवंत दस्तावेज है। भगतसिंह के जन्म से लेकर उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं जलियाँवाला बाग, असहयोग आंदोलन, साइमन कमीशन का विरोध, असेंबली बम कांड, लाहौर षड्यंत्र और फाँसी तक पंद्रह सर्गों में विभक्त यह खंडकाव्य भगत सिंह के बहाने ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों को परत-दर-परत उधेड़ता है। इस कृति का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यह ऐसे व्यक्ति पर केन्द्रित है, जिसके जीवन और उससे जुड़ी घटनाओं पर न सिर्फ भारतीय साहित्य और इतिहास में, दुनिया की अनेक भाषाओं में पहले से ही असंख्य कृतियाँ मौजूद हैं। ऐसे में किसी नई कृति के सृजन में मौलिकता के अभाव का ख़तरा हमेशा बना रहता है। कहना न होगा कि अशोक अंजुम ने यह ख़तरा उठाते हुए मौलिकता की चुनौती को स्वीकार किया। भगतसिंह हमारे सामने एक ऐसे नायक के रूप में आते हैं, जो मात्र तेईस वर्ष के जीवनकाल में देशप्रेम, संघर्ष और वैचारिकी के स्तर पर दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े क्रांतिकारी और विचारक के समकक्ष, बल्कि कहीं-कहीं उससे भी आगे खड़े दिखाई देते हैं। 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में जन्में भगतसिंह को अँग्रेजी हुकूमत से नफ़रत और उसके खिलाफ विद्रोह के संस्कार अपने घर से मिले। मात्र बारह साल की उम्र में उन्होने जलियाँवाला बाग हत्याकांड देखा । इस दुर्दांत घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। अंजुम जी इस घटना से आक्रोशित बालक भगत सिंह की मनोदशा को इस तरह शब्द देते हैं- बारह-साला भगत ने, सुनी खबर जिस वक्त। हुई विक्षिप्तों-सी दशा, लगा खौलने रक्त।। रँगा हुआ था रक्त से, जलियाँवाला बाग। उस बालक के हृदय में, लगी धधकने आग।। 1920 में लाहौर के नेशनल काॅलेज की पढ़ाई छोडकर वे महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाये जा रहे असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। चैदह वर्ष की आयु में उन्होंने सरकारी स्कूल की किताबें और कपड़े जला दिये। किन्तु 1922 में चैरी-चैरा हत्याकांड के बाद गांधी जी द्वारा किसानों का साथ नहीं दिये जाने से भगतसिंह बहुत उदास हुए और उन्होने भारत की आजादी के लिए सशस्त्र-संघर्ष का रास्ता अपनाने का संकल्प ले लिया –
दब्बूपन से तो कठिन, जीत सकें हम जंग। सोच-समझ कर भगत ने, लिया क्रान्ति का संग।। (पृ.27) 9 अगस्त,1925 को शाहजहाँपुर से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर रोककर उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य क्रांतिकारियों के साथ खजाने को लूट लिया। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से दर्ज है। इसके बाद वे और सुखदेव अंग्रेजों को चकमा देते हुए लाहौर अपने चाचा के पास चले गए, जहाँ उनके चाचा सरदार किशन सिंह ने उन्हें दूध के कारोबार में लगा दिया। किन्तु इन सब कामों में उनका मन कहाँ लगने वाला था। 17 दिसंबर , 1928 को उन्होंने राजगुरु के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या कर दी। अँग्रेजी हुकूमत भगतसिंह के इस दुस्साहस से बौखला उठी और उन्हें पकड़ने के लिए बेताब हो उठी। भगतसिंह ने यहाँ भी पुलिस को चकमा दिया और दुर्गा भाभी के सहयोग से कलकत्ता पहुँच गए। कुछ दिन बाद कलकत्ता से आगरा पहुँचे, जहाँ अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ असेंबली में बम फेंकने की योजना बनी। बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर उन्होंने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली में 8 अप्रैल, 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर केस शुरू हुआ। 7 मई, 1929 को कोर्ट में उनकी पहली पेशी हुई। 10 जून , 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। जेल में उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। किन्तु वे न झुके, न अपने विचारों से डिगे। अंत में 23 मार्च, 1931 को उन्हें तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। भगतसिंह लगभग दो साल तक जेल में रहे । इस मध्य उन्होंने विशद अध्ययन किया, लेख लिखे। जेल प्रवास के दौरान लिखे गए उनके लेखों और परिवार को लिखे गए पत्रों से उनकी वैचारिकी को भली-भाँति समझा जा सकता है। उन्होंने आत्मकथा लिखी, और तीन किताबें भी लिखीं। इस बीच उन्हें बचाने के भी अनेक प्रयास किए गए, किन्तु अंग्रेजों की ओर से हर बार माफ़ी माँगने की शर्त रखी गई और भगतसिंह ने हर बार इनकार कर दिया। भगत सिंह क्रांतिकारी देशभक्त तो थे ही, वे एक अध्ययनशील विचारक, चिंतक, दार्शनिक, लेखक और अत्यंत सजग पत्रकार भी थे।… और इन सबसे ऊपर वे एक सच्चे और सहृदय इंसान थे। उन्होंने मात्र तेईस वर्ष के छोटे से जीवन में बहुत बड़ा जीवन जिया। हिन्दी, उर्दू, अँग्रेजी, संस्कृत , पंजाबी और आयरिश भाषा के विद्वान भगतसिंह भारत में समाजवाद के सामभवतः पहले व्याख्याता थे। इन सारी ऐतिहासिक घटनाओं को अशोक अंजुम ने इस कृति में सिलसिलेवार और तिथिवार बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। फाँसी से पूर्व उनसे अंतिम मुलाकात करने के लिए जब उनके परिवारीजन पहुँचते हैं , उस समय जो मर्मांतक दृश्य उपस्थित हुआ होगा , उसे अशोक अंजुम के शब्दों में देखें- तीन मार्च इकतीस को, मिलने अंतिम बार। मात-पिता-भाई-बहिन, पहुँचा कुल परिवार।। (पृ.106 ) माँ से बोले भगतसिंह, भरकर ठंडी श्वास। लेने को आना नहीं, बेवे ! मेरी लाश।। कहीं आप जो रो पड़ीं, सह ना सकीं वियोग। माँ रोती है भगत की, ये बोलेंगे लोग।। (पृ.107 ) फाँसी से पूर्व जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने जो कहा, उसे सुनकर किसी भी संवेदनशील और अपने देश के प्रति प्रेम करने वाले व्यक्ति की आँखें भीग जाती हैं और सीना गर्व से भर उठता है- प्राण नाथ जी पूछते, करके उधर निगाह । भगतसिंह जी आपकी, क्या है अंतिम चाह ? भगतसिंह बोले- मिले, भारत माँ की गोद। पुनः जन्म लूँ मैं यहीं, सेवा करूँ समोद।। (पृ.109) भगतसिंह का जीवन और चरित्र तमाम आयामों से हमें रोमांचित करता है। फाँसी के एक दिन पूर्व जब उनके पास वायसराय की ओर से माफ़ी का संदेश जाता है , तो उनकी प्रतिक्रिया को अशोक भाई ने जो शब्द दिये हैं, वे बेजोड़ हैं- किन्तु जिऊँ मैं कैद में, होकर के पाबंद। मुझको ऐसी जिंदगी, हरगिज नहीं पसंद।। इंक़लाब की राह पर, पाया उच्च मुकाम। जिंदा रहकर वह नहीं, हरगिज होगा नाम।। मेरी जो कमजोरियाँ, मेरे मन के रोग। यदि फाँसी से बच गया, जानेंगे सब लोग। हँसते-हँसते थाम लूँ, मैं फाँसी की डोर। पैदा होंगे अनगिनत, भगतसिंह चहुँ ओर।। (पृ. 110-111) अपने अनेक लेखों में भगत सिंह ने पूंजीवाद का ज़ोरदार विरोध किया, उन्होंने लिखा कि पूँजीपति हमारे दुश्मन हैं। मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण से वे बहुत विचलित होते रहे। उनका कहना था कि श्रमिकों का शोषण करने वाला हिन्दुस्तानी ही क्यों न हो, उनका शत्रु है। जेल में रहते हुए उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’। यह लेख अँग्रेजी भाषा में था। जिसका बाद में दर्जनों भाषाओं में अनुवाद हुआ। इस लेख से भगतसिंह की वैचारिकी को बड़ी शिद्दत से समझा जा सकता है। जेल में रहते हुए भगतसिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की इस दौरान उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने अपने प्राण त्याग दिये। जैसा कि मैं ऊपर भी कह चुका हूँ कि अशोक अंजुम ने अपनी इस कृति में भगतसिंह के जीवन की अधिकांश घटनाओं को समेटने की कोशिश की है, तथापि ऐसा लगता है कि उनके जीवन का बहुत कुछ ऐसा छूट गया है, जिस पर यदि कवि की लेखनी और चलती तो भगत सिंह के विराट व्यक्तित्व और उनके विचारों तथा आदर्शों को पाठक और बेहतर समझ पाते। मगर यह भी सच है कि हर लेखक की अपनी सीमाएँ होती हैं, जिनके अंदर ही उसे अपना कार्य करना होता है। अशोक अंजुम जी ने संभवतः कृति के अत्यधिक विस्तार के भय से कुछ बिन्दुओं को संक्षेप में समेट लिया। इसके बावजूद यह कृति सर्वथा पठनीय और स्वागतेय है। आशा की जानी चाहिए कि हिन्दी जगत अशोक अंजुम जी की अन्य कृतियों की ही तरह इस कृति का भी भरपूर स्वागत करेगा।
पुस्तक विवरण – पुस्तक: मैं बंदूकें बो रहा (खंडकाव्य) कवि: अशोक अंजुम प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, 232 एस/एफ, पाॅकेट बी-1, लोकनायकपुरम्, नई दिल्ली-110 041 /मो.96501 00102 पृ.सं.: 120 / मूल्य: रु.160/- (पेपरबैक)
1-‘मॉरिशस के लेखक रामदेव धुरंधर की जुबानी’ की सार्थकता
विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी को डॉ. दीपक पाण्डेय की नवीनतम पुस्तक ‘मॉरिशस के लेखक रामदेव धुरंधर की जुबानी’ पुस्तक का लोकार्पण मुंबई के मुक्ति फाउंडेशन, अंधेरी वेस्ट के सभागार में हुआ। मॉरीशस में हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्ध परंपरा है जो भारतीय मजदूरों के मॉरीशस पहुँचने के साथ रोपी गई थी। आज मॉरीशस में हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में लेखन हो रहा है और वैश्विक हिंदी जगत में इसकी विशिष्ट पहचान है। मॉरीशस के कथा-साहित्य में रामदेव धुरंधर अग्रणी पंक्ति के रचनाकार हैं। डॉ.पाण्डेय ने रामदेव धुरंधर के साथ उनकी रचनाधर्मिता पर आधारित जो संवाद किया, वह इस पुस्तक में शामिल है। धुरंधर जी ने दीपक पाण्डेय के प्रश्नों का पूरी सहृदयता और गंभीरता से उत्तर दिए हैं। इस संवाद से प्रख्यात लेखक धुरंधर जी की लेखनी के वैशिष्ट को पहचाना जा सकता है।
इस संवादों को पढ़ने के बाद मैं डॉ. पाण्डेय द्वारा भूमिका में लिखी बात से सहमति रखता हूँ कि धुरंधर जी का छ्ह खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘पथरीला सोना’ हिंदी साहित्य की अनुपम निधि है जिसकी कथा लगभग 3000 पृष्ठों की है और उसमें 600 के करीब पात्र हैं। धुरंधर जी ने अपनी इस विशालतम कृति के संबंध में जो व्यखात्मक उत्तर दिए हैं वे इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यह उपन्यास भारतीय गिरमिटिया मजदूरों के जीवन की छोटी-बड़ी घटनाओं का दिग्दर्शन कराते हुए मॉरीशस के इतिहास को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया दस्तावेज़ बन गया है। धुरंधर जी की स्वीकारोक्ति है कि ‘ मेरे अतीत ने मेरे लेखन का पिटारा मुझे थमा दिया । ऐसा न हुया होता तो मैं आज कहने की स्थिति में न होता कि मेरे लेखन का सफर मेरे अतीत से शुरू होकर मेरे वर्तमान में पहुंचा है । उम्र के हिसाब से मेरा जीवन जिस पड़ाव पर है उसमें मेरे लेखन में विशेष रूप से मेरा देश हावी रहा है। मैंने उसी के चित्रण में अपने को तपाया है ।’ वास्तव में इस पुस्तक का संवाद जहाँ लेखक के साहित्यकर्म को समझने का अवसर देता है वहीं लेखक के साहित्य के माध्यम से मॉरीशस और भारत-भारतीयता के संबंधों की गहराई में उतरने का द्वार भी खोलता है। डॉ. दीपक का यह प्रयास सराहनीय है और मॉरिशस हिंदी साहित्य के बारे में जानने वालों की इच्छा को अवश्य पूरित करेगा ।
इस पुस्तक में हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार और व्यंग्य विधा को समर्पित विद्वान डॉ. प्रेम जनमेजय का प्राक्कथन पुस्तक की सार्थकता को रेखांकित करता है।
समीक्ष्य कृति : मॉरीशस के लेखक रामदेव धुरंधर की जुबानी लेखक : डॉ. दीपक कुमार पांडेय प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, पृष्ठ -152, मूल्य – हार्डबांड- रु400 /- पेपरबैक रु250/-
2- ‘नींव से निर्माण तक’ की सतत प्रक्रिया से साक्षात्कार
नींव से निर्माण तक’ पुस्तक डॉ. नूतन पाण्डेय की अभिनव कृति है। इस पुस्तक के बहाने डॉ. पाण्डेय ने मॉरिशस के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों से बातचीत करते हुए उनके जीवन और साहित्य कर्म के साथ-साथ उनके अन्य विषयों पर केन्द्रित कुछ विचारों को भी इस पुस्तक में समाहित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। लेखिका ने भूमिका में मॉरिशस के इतिहास, साहित्य और लेखन सभी पर विस्तार से लिखा है, जो उनकी अध्ययनशीलता का प्रमाण है। इस दृष्टि से यह प्रयास सार्थक प्रतीत होता है।
नवीनतम सर्वेक्षणों, गिरमिटिया के संक्षिप्त परिचय, 1834-1924 तक के 90 वर्षों के कालखंड में लगभग साढ़े चार लाख भारतीय मजदूरों की व्यथा-कथा, सारा जहाज, 39 यात्रियों के दल, पोर्टलुईस के इमीग्रेशनस्क्वायर, कुली घाट (अब आप्रवासी घाट) के प्रसंग को जिस रोचक अंदाज में लेखिका ने पाठकों के समक्ष रखा है, वह अद्भुत है। इसमें मजदूरों का जीवन-संघर्ष है तो जीवन-संघर्षों के पार निकलने की उनकी अदम्य जिजीविषा भी। “भारतवंशियों के प्रवासन की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को समेकित रूप से विश्लेषित करने पर कहा जा सकता है कि भारतीय मूल के ये लोग न तो विश्व विजय करने निकले थे, न जबरन धर्म-प्रचार के लिए और न ही अपनी भाषा और संस्कृति के किसी अन्य पर आरोपण के लिए। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक और सुखद संयोग से कम नहीं है कि जहां-जहां ये गए वहाँ-वहाँ अत्यंत सहज और स्वाभाविक ढंग से अपनी भाषा और संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन करते गए।”
इस कृति में मॉरिशस के कुल 21 प्रमुख साहित्यकारों के साक्षात्कारों में पहला साक्षात्कार मॉरिशस के प्रख्यात साहित्यकार अभिमन्यु अनत का है। इस पुस्तक में सम्मिलित मॉरीशस के प्रतिष्ठित साहित्यकारों को अकारादिक्रम में अभिमन्यु अनत, इंद्रदेव भोला, कल्पना लालजी, प्रह्लाद रामशरण, ब्रजलालधनपत, राज हीरामन, रामदेव धुरंधर, विनोद बाला अरुण, सरिता बुद्धु, हनुमान दूबे गिरधारी, हेमराज सुंदर आदि साहित्यकारों के साक्षात्कारों से पाठकों को निश्चय ही अपनी दृष्टि समृद्ध करने में मदद मिलेगी। कुल मिलाकर यह कृति डॉ. नूतन पांडेय के श्रम-संवेदना-समर्पण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
समीक्ष्य कृति : मॉरिशस नींव से निर्माण तक (मॉरिशस की साहित्यिक सांस्कृतिक परंपरा से संवाद) लेखिका : डॉ. नूतन पांडेय प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन्स प्रा.लि., 4/5-बी, आसफ अली रोड, नई दिल्ली –110002 पृष्ठ-397, मूल्य – रु 500/-
3- मॉरीशस हिंदी नाट्य साहित्य में बखोरी जी का योगदान
मॉरीशस में हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य का सृजन हो रहा है । मॉरीशस के साहित्य का हिंदी-जगत में स्वागत भी हो रहा है। इसी समृद्ध साहित्यिक परंपरा में सोमदत्त बखोरी की रचनाधर्मिता भी महत्वपूर्ण है। बखोरी जी ने ‘मुझे कुछ कहना है’, ‘बीच में बहती धारा’, ’सांप भी सपेरा भी’, ’नशे की खोज’ काव्य संग्रह, यात्रा वृतांत- ‘गंगा की पुकार’, नाटक- ‘सीता स्वयंवर’, ‘पांडव वनवास’ एवं अनेक रेडियो नाटक, एकांकी व रुपक लिखे हैं। उनका नाट्य साहित्य अप्रकाशित रह गया है ।
डॉ. नूतन पाण्डेय ने मॉरीशस प्रवास के दौरान उनके दस नाटकों की पांडुलिपियों को खोजकर अपेक्षित संशोधन के साथ उनका संकलन तैयार किया है जो ‘मॉरीशसीय हिंदी नाट्य साहित्य और सोमदत्त बखोरी’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इसमें लेखिका ने मॉरीशसीय हिंदी नाट्य साहित्य की बहती धारा के अंतर्गत मॉरीशस में लिखे गए नाटकों पर शोधपरक जानकारी दी है और सोमदत्त बखोरी के नाट्यकर्म पर विस्तार से चर्चा की है और बखोरी जी के नाटकों – बहू, सीता स्वयंवर, बहाना, घर और घरनी, निराश प्रेमी, वसंत बहार, कुर्बानी की रह पर, बिसुनी की सगाई, गुमान की गोली, जंग में रंग, गांधी बलिदान का संपादन किया है। यह साहित्य की सच्ची सेवा है जो अप्रकाशित साहित्य हिंदी संसार को मिला। मॉरीशस हिंदी साहित्य में रुचि लेने वालों और प्रवासी साहित्य पर अनुसंधान करने वालों के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी और संदर्भ के रूप में सहायक सिद्ध होगी।
समीक्ष्य कृति : मॉरीशसीय हिंदी नाट्य हिंदी नाट्य साहित्य और सोमदत्त बखोरी लेखिका : डॉ. नूतन पांडेय प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन्स प्रा.लि., 4/5-बी,आसफ अली रोड, नई दिल्ली –110002 पृष्ठ -142, मूल्य – रु 200/-
4- मॉरीशस लेखक : रामदेव धुरंधर साक्षात्कार के आईने में
यह पुस्तक मॉरीशस के प्रख्यात लेखक रामदेव धुरंधर की साहित्यिक रचनाधर्मिता पर आधारित है। इसमें डॉ. दीपक पाण्डेय ने रामदेव धुरंधर के सात साक्षात्कारों को संपादित किया है। इन साक्षात्कारों में शामिल हैं –
डॉ. नूतन पाण्डेय- ‘शब्द ब्रम्ह हैं, जिन्हें श्रम से साधा जा सकता है’
डॉ. सुधा ओम ढींगरा- ‘भारत में आलोचना को लेकर बहुत खेमेबाजी चलती है’
डॉ. जयप्रकाश कर्दम – ‘लेखक और आलोचक नदी के दो पाट हैं’
डॉ. दीपक पाण्डेय – ‘रामदेव धुरंधर के उपन्यासों के शिल्प कैमरे में कैद चित्र सदृश्य’
गोवर्धन यादव- ‘पूर्वजों की धरोहर संजोये रखता हूँ’
सुश्री शालेहा परवीन- ‘मेरा अंतस मेरे कथा-साहित्य में अभिव्यक्त हुआ है’
डॉ. कुसुमलता सिंह – ‘मानवीय ऊर्जा से भरी रचनाएं’
सभी साक्षात्कारकर्ताओं ने धुरंधर जी से उनकी साहित्य की आधारभूमि की गंभीरता से पड़ताल की है और धुरंधर जी ने बहुत ही गंभीरता और आत्मीयता से उत्तर दिए हैं। निश्चित ही ये संवाद मॉरीशस के हिंदी साहित्य के वैशिष्ट्य को समझने और परखने में सहायक होंगे। रामदेव धुरंधर के साहित्य पर आलोचनात्मक ग्रंथों के अभाव को यह पुस्तक कुछ हद तक दूर करने में बहुत उपयोगी साबित होगी। डॉ. दीपक ने भूमिका में ‘मॉरीशस का हिंदी साहित्य और रामदेव धुरंधर’ पर धुरंधर जी के साहित्यिक अवदान पर बहुत ही सारगर्भित एवं विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। पुस्तक के लिए शुभाकांक्षा संदेश में डॉ. जयप्रकाश कर्दम ने रामदेव धुरंधर के साहित्यिक वैशिष्ट्य पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा है-“रामदेव धुरंधर ऐसे ही सजग रचनाकार हैं जो अपनी रचनाओं में मनुष्यता बोध की अभिव्यक्ति के साथ पाठकों के समक्ष उपस्थित होते हैं। कथा-वस्तु या कथानक का अपना महत्व होता है किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण होती है रचनाकार की दृष्टि कि वह कथानक को किस रूप में ढालता है, अपने समय की सच्चाईयों, समस्याओं, चुनौतियों को किस तरह देखता है और उससे किस प्रकार जूझता है कि अंधेरे में भटकते समाज को रास्ता दिखाने के लिए मशाल का काम कर सके। यह कौशल ही किसी रचनाकार को बड़ा बनाता है। रामदेव धुरंधर इस कौशल से संपन्न लेखक हैं। ‘पथरीला सोना’ उपन्यास की गंभीर विषय-वस्तु से स्पष्ट हो जाता है कि कैसे वे दो सौ सालपहले भारत से बंधुआ मजदूर के रूप में मॉरीशस गए भारतीयों के शोषण और संघर्ष की कथा कहते हुए उनके जीवन की प्रतिकूलताओं और प्रश्नों को वर्तमान के साथ जोड़कर प्रस्तुत करते हैं। मुझे नहीं लगता ‘चंद्रकांता संतति’ के अलावा ‘पथरीला सोना’ जितना वृहद कोई अन्य लिखित उपन्यास हिंदी साहित्य में उपलब्ध है। यह अकेला उपन्यास रामदेव धुरंधर को हिंदी का महान लेखक सिद्ध करने में सक्षम है।”
मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक जहाँ मॉरीशस के महान रचनाकार रामदेव धुरंधर साहित्यधर्मिता को समझने में सहायक होगी वहीं मॉरीशस के हिंदी साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी होगी। उत्कृष्ट कार्य के लिए डॉ. दीपक पाण्डेय और प्रकाशक को बहुत बधाई और साधुवाद ।
समीक्ष्य कृति : मॉरीशस लेखक : रामदेव धुरंधर साक्षात्कार के आईने में संपादक : डॉ. दीपक पाण्डेय प्रकाशक : स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली –110002 पृष्ठ -152, मूल्य – रु 550/-
आदिवासी गीत-परंपरा के वाचिक रूप में उनका सहज जीवन-बोध, प्रकृति-प्रेम, संस्कृति, स्थानीयता की मौलिक गंध मौजूद है जो उनकी आत्मा के संगीत और जीवन की स्वाभाविक लय के साथ अभिव्यक्त होती रही है। जबकि वर्तमान परिवेश में लिखी जा रही आदिवासी कविता उनकी गरिमा को पहुँचाए गए आघात के विरूद्ध प्रतिरोध की आवाज़ है। साथ ही इसमें अतीत और वर्तमान परिस्थितियों के अन्तर्विरोध, सांस्कृतिक संक्रमण, सामाजिक विद्रूप, संघर्ष और यातना के चित्र भी उत्कीर्ण हुए हैं। अपने मूल निवास से बार-बार के विस्थापन का त्रास केवल पीड़ा को ही नहीं वरन् भविष्य के प्रति एक गहरी चिंता को भी जन्म देता है, जिसमें जंगल ही नहीं सम्पूर्ण प्रकृति, आदिवासी संस्कृति, भाषा और अस्मिता के लिए विकलता निहित है। इसी विकल स्वर को अभिव्यक्ति देने हेतु आदिवासी कवि हिन्दी में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। अपने स्थान से विच्छिन आदिवासी समुदाय जड़विहीन होकर जिन भीषण स्थितियों का सामना करने को विवश हुआ, दमन, हिंसा और यातना से गुजरता रहा, हिन्दी जगत को उसके विशद रूप से परिचित होना अभी शेष है। अपने मूलभूत परिवेश से उखड़ा यह समुदाय नैसर्गिक आर्थिक आत्मनिर्भरता से ही विच्छिन्न नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश, जीवन-शैली और स्वाभाविक पर्यावरण से ही विलग कर दिया जाता है, ऐसी स्थिति में उनकी पहचान का संघर्ष, पहचान के नित खंडित होते जाने का भी संघर्ष है। वर्चस्वशाली संस्कृति, भाषा और जीवन-शैली की अधीनता की स्थिति में अस्मिता के संकट की चिंता का अधिक प्रखर हो जाना स्वाभाविक है। वस्तुतः सांस्कृतिक और सामाजिक दमन, उत्पीड़न और अन्याय की स्थिति में कविता ही वह जगह है जहाँ यातना के सत्य की आवाज़ को विस्तार मिलता है। वर्तमान आदिवासी कविता अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अन्याय को स्वर देते हुए प्रकृति और मानव के संबंधों पर पुनर्विचार के लिए जगह बनाने का कार्य करती है। वंदना टेटे इसी स्वर की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, वे न केवल आदिवासी विचार और दृष्टि को दृढ़़तापूर्वक हिन्दी जगत के सम्मुख रखती हैं बल्कि अपनी रचनाशीलता द्वारा भी प्रभावित करती हैं। वंदना टेटे का आदिवासियत विषयक चिंतन अत्यंत मौलिक और प्रखर है। वे स्पष्टता से अपना मन्तव्य रखते हुए आपत्तियाँ दर्ज कराती हैं।
खड़िया भाषी वंटना टेटे की प्रथम कविता ‘समझौता’ आदिवासी’ पत्रिका में सन् 1984-85 में छपी थी। ‘कोनजोगा’ (2015) उनका प्रथम काव्य-संग्रह है। ‘कोनजोगा’ ‘एक पहाड़ है जो खड़िया आदिवासी समुदाय का सांस्कृतिक स्थल है तथा झारखंड के गुमला जिले में स्थित है। आदिवासी कवि कविता विधा को किस रूप में देखते हैं, तद्विषयक विचार जानना आवश्यक है। वंदना टेटे का साहित्य के स्थापित मानदंडों को अस्वीकार करने व कविता को अपने नज़रिए से देखने का सुस्पष्ट तर्क व दृष्टिकोण है- “मैंने कभी ये नहीं सोचा कि लिखी गयी कविता अच्छी है या नहीं। कविता है भी या कि नहीं। मुझे लगता है कि जैसे पेड़-पौधों पर नैसर्गिक रूप से फूल खिलते हैं, आसमान में सूरज, चाँद-सितारे और बादल मनोहारी कलाएँ रचते हैं वैसे ही व्यक्ति की भावनाएँ और विचार शब्दों के जरिए कोरे पन्नों पर टंग जाया करते हैं। कविता के प्रतिमान कैसे होने चाहिए या काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कविता में किन-किन लक्षणों का होना जरूरी है, ये सब वर्चस्ववादी बाधाएँ हैं। गैर आदिवासी काव्य-परंपरा से ऐसे सामंती और आलोचकीय वर्चस्व को छिनवा कर ही कविता के नैसर्गिक विश्व की रक्षा की जा सकती है। जैसे कि आदिवासी काव्य -परंपरा है जहाँ कोई आलोचक नहीं होता बस एक सामूहिक जीवन-दृष्टि होती है जिसमें निजता और सामूहिकता इस तरह से गुंथे हुए होते हैं कि दोनों को गैर आदिवासी विश्व के ‘दूध और पानी’ दर्शन की तरह अलग ही नहीं किया जा सकता। इसीलिए मेरी कविता मुझे ‘कोरोया’ सी लगती है। कोरोया जंगल का सफेद रंग का एक फूल है जो गुच्छे में खिलता है। बहुत आकर्षित करने वाली सुगंध उसमें नहीं होती पर वह हमें प्रिय है।“ (कोनजोगा, पृष्ठ-6) वस्तुतः प्रभुत्वशाली काव्यशास्त्रीय आग्रहों से विलग आदिवासी लोक-स्वर की अत्यंत सहज-सरल और सीधी कहन परंपरा है, बिना साज-सिंगार और बनावट की। इस सहज स्वाभाविक काव्य-कर्म में स्थानीयता की लोक-गंध है, आदिवासी जीवन-जगत है, जंगल और प्रकृति के बीच रचे-बसे आदिम संस्कृति के सहज स्वर हैं, वृक्ष, फल-फूल, नदी, पहाड़ के सान्निध्य में डूबे पर्व, त्योहार और ज्ञान परंपराएँ तथा उसके विलुप्त होते जाने का त्रास और चिंताएँ हैं, सामाजिक न्याय की स्वाभाविक आवाज़ है।
आदिवासी विचारक वंदना टेटे के काव्य-कर्म में कविता के प्रतिमानों और हिन्दी काव्य मुहावरे की जगह आदिवासी सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और चुनौतियों की अनलंकृत और स्वाभाविक प्रस्तुति पर दृष्टि डाली जाए तो उसमें एक सजग आदिवासी चिंतन-दृष्टि और आत्मानुभूति से संपृक्त एक प्रखर स्वर मिलेगा। वे हिन्दी में प्रस्तुत कविता में बेहिचक खड़िया भाषा और उसकी गीतात्मकता को उसकी स्थानीयता के साथ संयोजित करके एक स्वाभाविक कला-कर्म द्वारा अभिव्यक्त होती हैं – “हां, हम सुन रहे हैं लोहे का गीत/ नेतरहाट के पाट पर ए दीदी लसय लसय… /हाँ, हम सब भी कमान तान रहे हैं /डोम्बारी पहाड़ पर ए संगी रियो रियो /हाँ, हमारे भी पैर थिरक रहे हैं /बीरू दिसुम में ए सांगो धिरोम धिरोम।“ (वही पृष्ठ-85) इस काव्याभिव्यक्ति में आदिवासी गीत-परंपरा की ध्वन्यात्मकता, संगीत के साथ अत्यंत कुशलता से विरोध को भी जगह मिल गयी है। आदिवासी संस्कृति, परपंरा, भाषा व पहचान की गंभीर चिंता के साथ उनकी कविता में भूमंडलीकरण से आदिवासी क्षेत्रों में हुई घुसपैठ से उत्पन्न अस्तित्व-संकट का तीव्र बोध है। उनकी काव्य-चेतना में आदिवासी सांस्कृतिक मूल्यों, प्रतीकों को बचाने की दृढ़ता तथा आदिवासी अस्मिता और आत्मसम्मान की रक्षा का प्रबल भाव भी है। प्रकृति की उपस्थिति यहाँ सौन्दर्यवादी दृष्टि के अनुरूप नहीं है बल्कि जीवन में घुली-मिली, उसके स्वाभाविक सान्निध्य और आस्था के केन्द्र के रूप में है। ‘कोनजोगा’ की कविताएँ इसी नयी अनुभव-भूमि व भाव-दृष्टि द्वारा आदिवासी जीवन-यथार्थ से परिचय कराती हैं। आदिवासी काव्य-लेखन में अनुज लुगुन, निर्मला पुतुल, जसिंता केरकेट्टा जैसे हिन्दी द्वारा अपनाए गए हस्ताक्षरों के बीच वंदना टेटे अपनी स्वतंत्र और प्रखर भंगिमा के साथ उपस्थित हैं जहाँ वे एक कवयित्री से अधिक एक प्रखर आदिवासी स्वर होने का बोध कराती हैं। बेशक अपनी शर्तों पर टिका यह काव्य-कर्म मौलिकता का परिचय देने में सक्षम है।
वंदना टेटे को साहित्यिक संस्कार विरासत में अपने नाना प्यारा केरकेट्टा तथा माँ रोज केरकेट्टा से मिले। इन्हीं से प्राप्त सामाजिक, राजनीतिक दृष्टि और आदिवासी संस्कार ने उन्हें आदिवासियत और आधुनिक जीवन-बोध को साथ रखकर समझने की वह दृष्टि दी जिसके द्वारा वे वर्तमान परिदृश्य में आदिवासी जीवन-दर्शन, संस्कृति तथा उसके समक्ष उपस्थित संकट और चुनौतियों को संतुलित रूप से विश्लेषित करने की योग्यता अर्जित करती रही हैं। इस दृष्टि का परिचय उनकी कविताएँ भी कराती हैं। सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में वे बाह्य प्रभाव के साथ आंतरिक स्थितियों पर भी पैनी दृष्टि रखती हैं। भौतिकवादी जीवन-शैली में डूबी आधुनिकता ने आदिवासी समाज की नयी पीढ़ी को उनकी मूल संस्कृति से दूर किया है जिसके प्रति एक गहरी चिंता उनकी कविता ‘हमारे बच्चे नहीं जानते तोतो-रे नोनो-रे’ में दिखाई देती है। वस्तुतः आदिवासी समाज उन्मुक्त प्रकृति के सान्निध्य में स्वतंत्र विचरण करता हुआ अपनी ज्ञान-परंपरा, पर्व-त्योहार, और उस जीवन-दृष्टि को प्राप्त करता रहा है जिसकी बुनियाद सहजीविता, सहअस्तित्व है। प्रकृति व संपूर्ण सृष्टि के साथ जीवन जीने की यह दृष्टि उन परिस्थितियों में कैसे विकसित हो सकती है जब तकनीक से घिरी पीढ़ी अपने संकुचित संसार में सीमित हो- ‘और बंद कमरे में सारे मौसम/ गुजर जाते हैं।’ (पृष्ठ-11) आदिवासी जीवन-दृष्टि और नवशिक्षित वर्ग की आधुनिक जीवन-शैली के मध्य-बिन्दु पर अपने बच्चों के माध्यम से आदिवासी परंपरा के अस्तित्व और भविष्य को लेकर गहरी चिंता और पीड़ा इन पंक्तियों में अभिव्यक्त की गयी है- “सच में /मैं चिंतित और उदास हूँ /कि नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे / डोरी, कुसुम से तेल निकालने की /मछली और चिड़िया पकड़ने की /देशज तकनीक /महुआ लट्ठा, इमली के बीज के साथ /औटाया गया खाने का स्वाद /सरहुल पर्व से पहले /जंगल के फल फूल को तोड़ने खाने की मनाही /करमा के बाद खेतों में खड़ी / भेलवा की टहनियों का राज /आह! नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे ।“ (पृष्ठ-12)
नयी पीढ़ी को तकनीकों की बहुत सी जानकारियाँ हैं किन्तु ‘बारिश से पहले चीटियाँ अपने अंडे लेकर क्यों भागती है इसकी कोई जानकारी नहीं है। आधुनिक समाज यथार्थ से ज्यादा आभासी दुनिया की जानकारी रखता है। परिणामस्वरूप प्रकृति और जीवन-यथार्थ के साथ सहज संबंध खंडित हुए हैं तथा मनुष्य के स्वार्थ ने प्रकृति का अपार दोहन किया। आदिवासी जीवन-शैली जमीनी यथार्थ और प्रकृति से गहरी जुड़ी है तथा उसके अनुभव-जगत में प्रकृति और जीव-जगत से जुड़ी अनगिनत जानकारियाँ है, जिसका लिखित इतिहास नहीं है। इस ज्ञान-परंपरा से वंचित पीढ़ी प्रकृति और जैव विविधता के गूढ़ ज्ञान से विहीन होकर सृष्टि के कई रहस्यों से दूर चली जायेगी, यह चिंता संपूर्ण मानव जगत के लिए है – “छूट जाएगी चीजें मेरे बच्चों से /छूट जाएगी दुनिया हमारे बच्चों से !”
इस ब्रह्मांड में जिस प्रकृति से हम घिरे हैं उसके एक जीवंत अंश से कट जाने की पीड़ा और बेचैनी वंदना टेटे की कविताओं में कई तरह से अभिव्यंजित हुई है। आदिवासी-परंपरा की इस चिंतन-दृष्टि में प्रकृति की समग्रता की चिंता निहित है। इसलिए इसे केवल अस्मितागत दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कोविड 19 जैसी महामारी से जूझती दुनिया के लिए प्रकृति के अस्तित्व की चिंता उतनी ही जरूरी है जितनी मानव अस्मिता की। बल्कि मनुष्य और प्रकृति के अन्योन्याश्रित संबंध तथा आदिवासी संस्कृति और परंपरा को सूक्ष्म रूप से समझकर उसके महत्त्व को निरूपित करने का यह सर्वाधिक उचित समय है। वंदना टेटे अपने चिंतन द्वारा इसे मुखरता से प्रतिपादित करती हैं। आदिवासी जीवन-शैली में प्रकृति का आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक आधार भी है। नदी, पहाड़, पेड़-पौधे, फल-फूल, जीव-जंतु, उनकी सांस्कृतिक परंपरा में अभिन्न रूप से जुड़े हैं। प्रकृति के वे रूप जो उनके सांस्कृतिक चिह्न व धरोहर है उनकी विलुप्ति, क्षति के विरूद्ध भी एक गहरी चिंता इन कविताओं में मुखरित है- “पुरखा कथाओं में दर्ज /कोनजोगा टूट रहा है /पुरखा कथाओं में दर्ज /जतरा के ढोल की आवाज /दफन हो रही है।“ (पृष्ठ-93)
‘कोनजोगा’ खड़िया सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा एक पहाड़ है, यह एक आदिवासी दृष्टि का कथन है किन्तु दूसरी तरफ विकासवादी, विस्तारवादी भूमंडलीकरण की आर्थिक दृष्टि के लिए ऐसे कई पहाड़ (जैसे नियमगिरि के पहाड़) खनिजों के अकूत भंडार हैं और विकास की इसी दृष्टि के कारण कितने हरसूद डूब गए किन्तु प्रकृति को बचाने वाले प्रयासों के पक्ष में न्याय विलंबित रहा, ये पीड़ा आदिवासी क्षेत्रों की आम पीड़ा है- “पर हरसूद को अब भी /न्याय की उम्मीद है /उस न्यायालय से /जो बुत बने देवालय की बगल में /मौन खड़ा है /सर झुकाए हुए।“ (पृष्ठ-74) पहाड़ जंगल पर विकास की कुदृष्टि ने आदिवासी जीवन की सरल जिंदंगी को न केवल लील लिया बल्कि उनके खेत-दर-खेत ऊँची इमारतों में बदलते चले गए। इस कृत्य ने आदिवासी जीवन के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक स्वरूप को आमूलचूल क्षति पहुँचाई। आदिवासी कविता ही नहीं संपूर्ण आदिवासी लेखन में विकास के इस विनाशकारी पक्ष को सूक्ष्मतापूर्वक चित्रित किया गया है। आदिवासी समाज को पिछड़ा, असभ्य समझ कर अवहेलित ही नहीं किया गया है, वे अन्याय और शोषण के भी शिकार होते गए हैं। देश के आदिम निवासी के सवालों और पीड़ा को इन कविताओं में प्रखर स्वर मिला है- “रची जा रही है /साजिशें गहरी- गहरी /हमारे ही खात्मे के लिए /बिछाए जा रहे हैं फंदे /ताकि /तुम्हारे विकास की गाड़ी /दौड़ सके रौंदती हुई हमारे / भूत वर्तमान और भविष्य को।“ (पृष्ठ-78) विकास की नीतियों को प्रश्नों के घेरे में लेने वाली यह काव्य-दृष्टि अत्यंत सजग है। यह दृष्टि आदिवासी समाज की हितचिंतक है जो उसकी सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के साथ आधुनिक जीवन का संतुलित संस्पर्श चाहती है। वे अपने क्षेत्रों में पुल, स्कूल, अस्पताल और सुविधाएँ चाहते हैं ताकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनिवार्य जरूरतों तक उनकी पहुँच बन सके, किन्तु जब यही नीतियाँ उन्हें उनके स्वाभाविक आर्थिक स्वावलंबन- खेतों, जंगलों से बेदखल कर उन्हें मजदूर बना देती है, तब ये डर उचित है- ‘‘डरता भी हूँ /पुल बनने से /कि घूमता हूँ जिस जंगल में निर्भय /पुल के बनते ही /तुम बेदखल कर दोगे मुझे भी” ……. “मैं रिक्शापुलर कुली /मेरी बेटियाँ आया, रेजा /मेरी पत्नी धंगरीन /के नाम से पहचानी जाएंगी /और मेरा एम.ए. पास जवान बेटा /अपने प्रतिरोध के कारण /नक्सली बनाकर मार दिया जाएगा /और इसलिए मैं दुविधा में हूँ, /पुल बने या नहीं !” (पृष्ठ-72)
वंदना टेटे के समग्र लेखन में आदिवासी जीवन के अस्तित्व को लेकर गहन विकलता है। वे बेबाकी व स्पष्टता से अपना पक्ष रखती हैं जिसमें प्रायः तनिक आक्रोश भी प्रकट होता है। वर्तमान परिदृश्य में यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि एक आदिवासी द्वारा की गयी प्रकृति की चिंता में पूरी मानवता की रक्षा के सूत्र निहित हैं। आदिवासी संस्कृति, भाषा और उसके वाचिक साहित्य में वह जीवन-बोध है जो प्रकृति में रमा-रचा-बसा है और उसके प्रत्येक अंग का आदर करता है। जीव-जंतुओं की भांति वे भी प्रकृति से आवश्यकतानुसार ही लेते हैं तथा उसे हानि नहीं पहुँचाते हैं। एक आदिवासी जब किसी विपरीत स्थिति में वृक्ष पर कुल्हाड़ी से प्रहार करता है तो उससे पूर्व उससे क्षमा-याचना करता है। इसलिए आदिवासी जीवन-दर्शन में प्रकृति के प्रति आस्था का भाव है। इसी प्रकृति के आंगन में विकास के नाम पर विनाश-लीला के प्रति आदिवासी कविताएँ आपत्ति दर्ज कराती हैं। वंदना टेटे की कविताओं में आदिवासी क्षेत्रों, जनजीवन में सतत हो रहे परिवर्तन व प्रभाव को चिह्नित किया गया है तथा आदिवासी संस्कृति के विलुप्त होते जाने की विकल चिंता अभिव्यक्त हुई है। प्रकृति के सौन्दर्य को एक आदिवासी की दृष्टि जिस तरह से देखती है वह हिन्दी कविता के रूढ़ दृश्यों से सर्वथा भिन्न है –“लाल धवई के फूल /खिल रहे हैं /जंगल में फूलचीभी /रस जोभ रही है रासे रासे/ जिरहुल के छोटे फूल /खुश हैं बहुत खुश /परास हांकवा कर रहा /डंपर के पैरों तले रौंदी धूल /जंगल से निकली हवा से मिल /जदूर खेल रही है /कुजाम पाट झूम रहा है।“ (पृष्ठ-81) आदिवासी-दृष्टि से उन्हीं के भाषिक-सौन्दर्य के साथ प्रकृति का यह रूप निश्चित ही हिन्दी कविता के लिए नया ही है। ‘रासे रासे’, “लसय लसय’, ‘रियो रियो’ शब्दों का आदिम सौन्दर्य आदिवासी गीत-परंपरा के संगीत व ध्वनि की देन है जो उनकी वाचिक-परंपरा के मौलिक स्वरूप से परिचय कराती है। प्रकृति और भाषा का समवेत सौन्दर्य इन पंक्तियों में भी दर्शनीय है, जिसके सहज रूप में आदिवासी चेतना की गूंज भी ध्वनित है- “छउवा समय है संगी /आओ खेलेंगे पहाड़-पहाड़ /आओ गाएंगे नदी-नदी /आओ नाचेंगे जंगल-जंगल /छउवा समय है सहिया /आओ बतियाएंगे संग-संग /…….. / आओ संगी /आओ सहिया /आओ गुइया /हम बनाए मिलकर /इस दुर्दांत समय को /छउवा समय /निद्र्वन्द्व निडर निर्मल।“ (पृष्ठ-82-83)
स्पष्टतः वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी पहचान और आवाज की कविताएँ हैं। वे किसी हिन्दी मुहावरे या रूढ़ सांचे का अनुकरण नहीं करती। उनके पास कहने को अपनी बात है और अपना भाषिक लहजा। इसलिए उनकी काव्याभिव्यक्ति में विविधता है। वे अपनी जड़ों से जुड़ी रहकर हिन्दी में सृजनशीलता का परिचय देती हैं। हिन्दी में इस खड़ियाभाषी कवयित्री की उपस्थिति अपने आदिवासी वैशिष्टय के साथ है जो उनके स्वतंत्रचेता काव्य-व्यक्तित्व का उदाहरण है। एक ईमानदार और सघन अनुभूति की अभिव्यक्ति का मार्ग स्वतःस्फूर्त रूप से अपने लिए एक सांचा, एक रास्ता चुनता है जिसमें व्यंजना, बिम्ब या प्रतीक स्वाभाविक रूप से आते हैं। वंदना टेटे जिस काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों को खारिज करती हैं उनकी काव्याभिव्यक्ति के सहज प्रवाह में वे स्वाभाविक उपस्थिति दर्ज कराते हैं, उसे अधिक व्यंजक बनाते हैं। किन्तु ये बिंब आदिवासी जीवन-यथार्थ का अभिन्न हिस्सा हैं। इस जीवन को खंडित करते बाह्य हस्तक्षेपों के चित्रण में बिम्बधर्मिता व रूपक की स्वाभाविकता ही इन पंक्तियों का वैशिष्टय बनकर सम्मुख आता है- “कविताओं वाली नदी /सूखने लगी है /गीतों के पहाड़ /उजाड़ है /जटंगी के खेतों में /हिंडाल्को की माइंस खुदी है /सूख गए हैं पोखरे /बादल पहाड़ों से /आँख चुरा रहे हैं /और जंगल से गुजरती हवा /गुनगुनाना गुदगुदाना भूल गयी है।“ (पृष्ठ-16) इस अभिव्यक्ति में प्रकृति और बिम्बधर्मिता की उपस्थिति सायास नहीं है। विसंगतियों और विडंबनाओं को ये कविताएँ इसी तरह अपने परिवेश में डूबकर प्रस्तुत करती हैं। यही कारण है कि एक आदिवासी की पीड़ा और आवाज संपूर्ण उपेक्षित, अन्याय और शोषण की शिकार मानवता की आवाज बन जाती है- “और कविताओं की नदियों में /डूबने की इच्छा /बंदूक की बटों /और बूटों के नीचे /कराहती रहती है /दिन रात।“ (पृष्ठ-16)
वंदना टेटे की कविता में खड़िया भाषा के शब्दों का सहज प्रयोग हुआ है। अर्थ न जानते हुए भी वे कविता को जो प्रवाह और लय देते हैं उसका सौन्दर्य प्रभावित करता है। रासे-रासे, लसय-लसय, रियो-रियो, धइरे-धइरे जैसे शब्दयुग्म की आवृत्तियों का संगीत हो या सीमधने, फोंफड़ने, रसजोभ, रूसुम, छउवा, पिछलन, ओगरा, कुंबो, डूबोः, हिलिर, हिलिर जैसे शब्द प्रयोग – ये एक विशिष्ट ध्वनि के कारण भाषा को प्रभावी बनाते हैं। कवयित्री की आदिवासी-चेतना व दृष्टि का विस्तार उसके जीवन-द्रश्यों, विसंगतियों, सांस्कृतिक पक्ष, भाषा के साथ साथ उसकी वर्तमान स्थिति तक जाता हैं इसलिए ‘कोनजोगा’ की कविताएँ आदिवासी जीवन के यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। इसमें यदि ‘सलवा जुडुम के डर से फुसफुसाती जिंदगी’ के दृश्य हैं तो वहीं ‘बोरसी की आग के पास नानी दादी से कहानी सुनने का मजा’ भी है, साथ ही आदिवासी दैनंदिन में रचे बसे निसर्ग के अनुभवों का जीवंत रूप भी, उसके खो जाने की चिंता भी- “पहली तेज बारिश का पानी जब /सूखी नदी में उतरता है /तो अपने आने की सूचना कैसे देता है /और पातर काका /क्यों जुते बैलों को तोतो-रे नोनो-रे कहते हैं /पथराई धरती /क्यों सोंधी महक से लबरेज हो जाती है।“ (पृष्ठ-12) इन कविताओं की जड़ें आदिवासी जीवन-शैली व संस्कृति में है इसी कारण उनकी काव्याभिव्यक्ति में मौलिकता है। सामान्य चीजें भी यहाँ जगह बनाती हैं- “नींबू की तरह /निचोड़ दिया है /और भर दिया है /मिर्च की तरह बेचैनी /सच बहुत अजीब सी /शांति है !” (पृष्ठ-45)
वंदना टेटे का काव्येतर लेखन आदिवासी समाज की चिंताओं और चुनौतियों से निरंतर मुठभेड़ करता है। उनकी सचेत दृष्टि आदिवासी जन को अपने अस्तित्व की लड़ाई खुद लड़ने हेतु निरंतर प्रेरित करती है। आसन्न संकट और संघर्ष की प्रेरणा के बीच आदिवासी मिथक पुरूष तिलका मांझी की स्मृतियाँ व उम्मीद के स्वर भी उनके काव्य-जगत को समृद्ध करते हैं- “कब तक जोहते रहोगे /अपनी पहचान जानने /के लिए दूसरे का मुंह /और कब तक आसरे में /रहोगे कि कोई आए /और तुम्हारे लिए लड़े।“ (पृष्ठ-68) अतीत और वर्तमान के संघर्ष-चित्र उकेरते हुए वे पूंजीवादी विकास के तले रौंदे जा रहे विस्थापितों को उनकी पहचान, अधिकार और श्रम के लिए सचेत करती हैं- “पूंजी के उड़न खटोले पर /सवार होकर वह /ले जाएगा तुम्हारी /जमीन, श्रम और पहचान।“ (पृष्ठ-79) समृद्ध सांस्कृतिक अतीत और जंगल, खेतों के उजड़ते चले जाने से वर्तमान पर संकट की चिंता आदिवासी लेखन की प्रत्येक विधा में मुखर हुई है। आदिवासी विद्रोह और उलगुलान का अपना इतिहास है। आदिवासी चेतना में उसकी जीवंत स्मृतियाँ हैं। ‘कोनजोगा’ की कविताओं में भी पुरखा पुरूष तिलका मांझी की स्मृति और उलगुलान की तड़प मौजूद है- “जमा कर रहा अपने भीतर /बोरसी की गरमी /जुटा रहा पोर पोर में /पुरखों सी ताकत /कंपनी के बड़े बड़े डूबोः के खिलाफ।“ (पृष्ठ-90) (डूबो :: भूत-प्रेत) ….. “दर्द अपमान और आक्रोश से आँखें /कोयल कारो सी ऊब डूब हो रही है /छातियों में पहाड़ फूल रहे हैं/कोख में सरसरा रहा है उलगुलान।“ (पृष्ठ-92) आदिवासी-चेतना में आशा, उम्मीद और खुशी के स्वर भी इन कविताओं में जगह बनाते हैं। आदिवासी जन में जागरूकता और शोषण के विरूद्ध उठाये गये स्वर के द्वारा वे भविष्य के प्रति उम्मीद से देखती हैं- “क्योंकि असुर और उरांव/झंडा लेते हुए /धइरे-धइरे आ रहे हैं।“ (पृष्ठ-81) ….. “मुस्कुराएगा चांद /घोटुल में गूजेगी हंसी /ये उम्मीद /कौंधती रहती हैं /बिजली की तरह।“ (पृष्ठ-14)
वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी संस्कृति, परंपरा, जीवन-दर्शन, भाषा और उनके जीवन में विकासवादी हस्तक्षेप से हुए परिवर्तन को दिखाते हुए एक पुख्ता जमीन तैयार करती हैं जिसके आधार पर वे अपना पक्ष रखते हुए सटीक विरोध दर्ज कराती हैं। आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करती नीतियों के प्रति ये कविताएँ आवाज़ उठाती हैं तो साथ ही प्रकृति और पुरखों से चली आ रही परंपराओं को लेकर भी सजग है। किन्तु इन चिंताओं और विरोधी तेवर के बावजूद जमीनी हकीकत से वे वाकिफ हैं। पूंजीवादी प्रसार और मानव के स्वार्थ और अहंकार ने हाशिए के समुदायों का न केवल शोषण किया है बल्कि निरंतर धर्म, नस्ल, रंग, जाति, धनबल के नाम पर उनकी घोर उपेक्षा की है। प्रकृति का गुस्सा कई तरह से प्रकट हो रहा है। तूफान और भूकंप उस प्रकृति के कुपित स्वर हैं, जिसके प्रति पूंजीवादी दुराग्रहों ने अति की है। आदिवासी जीवन इसी प्रकृति के आंगन में फलने -फूलने वाली सांस्कृतिक पहचान का नाम है। प्रकृति के विनाश में आदिवासी जीवन-जगत और पहचान के भी खोने की चिंता, उदासी और डर को इन पंक्तियों में मार्मिक रूप से ध्वनि मिली है- “जैसे सूख गयी दामोदर सुवर्ण रेखा /जैसे आसमान में बिला गयी सुगंधित हवाएँ /जैसे चूर-चूर हो गए मजबूत पहाड़ /जैसे छंटते कटते चले गए जंगल /हम भी जा रहे हैं /हम जा रहे हैं /जैसे चले गए पुरखे /जैसे जा रही है ये धरती /सबकी पहुँच से बाहर /धीरे धीरे हर क्षण।“ (पृष्ठ-95-96)
आदिवासी समाज के सहजीवी, सामूहिकता और सहअस्तित्व के सिद्धांत में समानता का भाव निहित है। फलस्वरूप वंदना टेटे के आदिवासी समुदाय विषयक चिंतन में यह बात बार-बार दोहराई गयी है कि आदिवासी समाज में लैंगिक असमानता नहीं है और न ही पितृसत्तात्मकता की प्रभुताशाली व्यवस्था। किन्तु उनकी कविताओं में आदिवासी‘ चेतना के समानांतर स्त्री-चेतना के जो स्वर हैं वे स्पष्ट करते हैं कि कथित सभ्य समाज में शामिल आदिवासी समाज भी लैंगिक भेदभाव के दुष्प्रभाव को भोगता है। आदिवासी समाज के संघर्ष के भीतर स्त्री को एक निजी संघर्ष का भी सामना करना होता है जो उसके स्त्रीत्व को लेकर है। शिक्षित समाज के वर्तमान स्वरूप में स्त्री की भूमिका और स्थिति उसे कई तरह के संघर्ष की ओर ले जाती हैं। वंदना टेटे के काव्य-कर्म में आदिवासियत के बरअक्स स्त्री को लेकर भी सर्वथा अलहदा किस्म का संघर्ष भाव है, जिसको अभिव्यक्ति देने में भी वे स्पष्ट और मुखर हैं- “तुम्हारी खिंची लक्ष्मण रेखा /के खिलाफ /उसने बो दिए हैं संघर्ष बीज।“ ….. “मिटाने को आतुर हैं उसके हाथ /हर उस लकीर को /जो बांधते हैं उसकी सीमा।“ (पृष्ठ-35) घर-परिवार के दैनंदिन कार्य-कलापों के भीतर स्त्री के कसमसाते अनुभवों, उसके मौन के भीतर की चिंगारी को वे रसोई के एक दृश्य के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोती हैं- “वह उठती है /चूल्हा सुलगाती है /और साथ ही /सुलगते हैं /उसके विचार /चूल्हें में चढ़े बर्तन की तरह /गर्म होते हैं, खदबदाते, ठंडे होते हैं /फिर राख की तरह /एक चिंगारी दबाए/ चुप हो जाती है।“ ……. “वह /अनाज बीनने बैठती है /और बीनती है अपनी सोच /जो उसके लिए अहम है।“ (पृष्ठ-48) वंदना टेटे की काव्याभिव्यक्ति में विरोध और तीक्ष्ण प्रश्न वाचकता के पीछे उनके ऊर्जावान विचार है, जिसके बारे में वे स्पष्ट है कि ये विचारशीलता उनके लिए ‘अहम’ है। इसी के कारण वे सामाजिक असंगतियों को प्रश्न के घेरे में लेती हैं। आदिवासी चेतना के साथ ही स्त्री-चेतना उनके काव्य-कर्म में प्रमुखता से स्थान प्राप्त करती है- “तुम जला दी जाती हो /रूप कुंवर की तरह /समाज कत्ल कर देता है तुम्हें /जब तुम प्रेम करती हो /संस्कृति की गर्म सलाखों से /फोड़ दी जाती हैं तुम्हारी आँखें /और जब जबान खुलती है तुम्हारी /तुम्हें बदचलन करार दे दिया जाता है।“ (पृष्ठ-51) सामाजिक विद्रूप से मुठभेड़ करती स्त्री अपने लिए एकांत चुनती है जिसमें विघ्न उसे पसंद नहीं। एकांत का एकालाप उसे नयी ऊर्जा देता है। जीवन-यथार्थ से प्राप्त अनुभवों को वैचारिक फलक से जोड़कर एक सटीक दिशा प्राप्त करने में यह एकांत एक कवि मन को सहयोग देता है- “मेरे एकालाप में /विघ्न अब सहन नहीं /बारिश की बूंदों /की हठधर्मिता /हवाओं से आते /पदचापों के स्वर /तोड़ते हैं मेरा एकालाप।“ (पृष्ठ-53)
आदिवासी जीवन-शैली तड़क-भड़क पूर्ण नहीं वरन् अत्यंत सरल, सादगी पूर्ण है, किन्तु स्त्री होने के नाते घर से मिलने वाली सीधे चलने की हिदायतों की मंशा भिन्न है। सामाजिक विसंगतियों के इस परिवेश में सीधे चलने की इच्छा कितनी दुष्कर है इसे बड़ी सहजता से यह कविता अभिव्यंजित करती है- “माँ ने कहा /पिता ने भी कहा /सीधे रास्ते पर चलना /सामने देखना /इधर उधर नहीं /सीधा रास्ता पकड़ना।“ ….. “और रास्ते ही रास्ते /पिछलन ही पिछलन /कहाँ जाऊँ माँ जोई /सीधी कैसे चलूं ।“ (पृष्ठ-56-57) आदिवासी समाज लैंगिक भेदभाव को नहीं मानता तथा स्त्रियों के महत्त्व को स्वीकार करता है। यद्यपि कथित सभ्य समाज में ऐसी स्थिति नहीं है। यहाँ स्त्री का संघर्ष कई मोर्चे पर है। आदिवासी समाज सहअस्तित्व के विचार को प्रत्येक स्तर पर स्वीकार करता है। ऐसे में कवयित्री का यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है जहाँ वे साधारण चीजों के बीच स्त्री के असाधारण महत्त्व को निरूपित कर जाती हैं- “लड़कियाँ /घर की छप्पर /खेत की लहलहाती फसल /चूल्हे की आग /बूढ़े आँखों की रोशनी /और झुकी कमर की लाठी होती हैं /दोस्त ! /क्या तुम्हारे यहाँ भी लड़कियाँ ऐसी होती हैं।“ (पृष्ठ-62) वंदना टेटे का हिन्दी में अभी तक केवल एक ही कविता संग्रह सम्मुख आया है किन्तु उनकी काव्य-दृष्टि व मूल्यों में किसी तरह की अस्पष्टता नहीं है। उनकी चिन्तन-दृष्टि ने ‘आदिवासियत’ शब्द का प्रयोग करते हुए आदिवासी जीवन-मूल्यों, वैचारिक पक्ष, जीवन-यथार्थ से हिन्दी-जगत को परिचित कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य सतत रूप से किया है। उनका काव्य-कर्म भी अत्यंत सचेत रूप से समुदाय की पीड़ा, शोषण, अन्याय के साथ आदिवासी जन की जिजीविषा व संघर्ष-चेतना को रूपायित करता है। उनके काव्य-स्वर में एक तरफ चिंता है तो दूसरी ओर जूझने की अदम्य क्षमता भी। काल्पनिकता की जगह ठोस यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती ये कविताएँ आत्मविश्लेष्ण की क्षमता भी रखती हैं। निजी जगत से व्यापक विष्व चेतना तक वे अत्यंत सहजता से पहुँच बनाती है। वस्तुतः इसके पीछे भी आदिवासी जीवन-दर्शन का सहअस्तित्व का विचार क्रियाशील है। आदिवासी जीवन‘दृष्टि व संस्कृति के वैषिष्ट्य के साथ कथित सभ्य समाज की संकीर्ण और एकांगी दृष्टि विकास की एकपक्षीय नीतियों पर नज़र रखते हुए वे बेबाकी से प्रश्न करती हैं और आपत्तियाँ सम्मुख लाती हैं। आदिवासी समाज की जातीय स्मृतियों को जीवंत रखते हुए सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में अस्तित्व की रक्षा हेतु सचेत रहने का भाव भी उनमें प्रखर है। नवशिक्षित आदिवासी समुदाय में सांस्कृतिक पहचान की चिंता के साथ परिवेश की विडंबनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि है। आदिवासी जीवन के अपरिहार्य अंग पर्व-त्योहार, सांस्कृतिक प्रतीक, गीत-संगीत-नृत्य परंपरा, देशज ज्ञान, भाषा और प्रकृति से गहन संपृक्ति को लेकर उनका चिंतन कविता में सृजनशील होकर हिन्दी को एक नव-आस्वाद-भूमि उपलब्ध कराता है, जो आदिवासी कवि के रूप में उनकी पहचान को पुष्ट करता है। आदिवासी कविता पर वैमर्शिक राजनीति का कोई प्रभाव नहीं है उनके विद्रोही भाव में भी जीवन-जगत की विसंगत स्थितियों की स्वाभाविक उपस्थिति है। वंदना टेटे की मुखरता और आदिवासी-चेतना भी जीवन के अनुभवों से उत्पन्न है, आरोपित नहीं। जीवन-यथार्थ से नैकट्य के परिणामस्वरूप ही वे आदिवासी विरासत और आधुनिक दृष्टि-बोध को संतुलित रूप से साधती हैं। आदिवासी जनजीवन, परिवेश और समाज से उपजा काव्य-बोध आदिवासी-लोक के यथार्थ का प्रतिनिधि स्वर बनने में सक्षम हैं, वंदना टेटे का काव्य-कर्म इसी का उदाहरण है।
डॉ. हंसा दीप हिन्दी कथा साहित्य की एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। प्रस्तुत संग्रह हंसा जी का तीसरा कहानी संग्रह है। इनके खाते में तीन उपन्यास भी हैं। हंसा जी टोरंटो में निवास करती हैं पर उनका संबंध भारत के मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ के एक छोटे से कस्बे मेघनगर से रहा है। यही कारण है कि इनकी कई कहानियों का परिवेश और पात्र भारतीयता से ओतप्रोत हैं। उस अंचल की छाप इनकी कहानियों में परिलक्षित होती है। हालांकि विदेशी पात्रों और परिवेश की भी कमी नहीं है। कैनेडा में हिन्दी पढ़ाने के कारण उनका हिन्दी के प्रचार-प्रसार से भी सीधा जुड़ाव है। हंसा जी का अनुभव-संसार वास्तविक, व्यापक और विस्तृत है। यह एक देश की परिधि में बंधा हुआ नहीं है।
शत प्रतिशत कहानी से संग्रह का नामकरण हुआ है। यह कहानी अनुक्रम में भी पहले स्थान पर है। इस कहानी का तीस साल का नायक साशा बचपन की मनोग्रंथि से ग्रसित है। उसे बचपन में अपने पिता की क्रूरता और हिंसा झेलना पड़ती है। फलस्वरूप उसके मन में प्रबल प्रतिशोध की भावना पनप जाती है। वह अपने तीसवें जन्मदिन पर ट्रक लेकर निकलता है। वह लोगों को रौंद देना चाहता है ताकि उसके भीतर धधकती प्रतिशोध की अग्नि शांत हो सके। पर जब उसके सामने वैसी ही घटना घटती है तो उसका हृदय परिवर्तित हो जाता है। वह दुर्घटनाग्रस्त निरीह लोगों की मदद करने लगता है। शायद उस पर अपनी प्रेमिका लीसा, फ़ौस्टर पेरेंट्स पिता कीथ और माता जोएना के प्रेमपूर्ण व्यवहार का ऐसा प्रभाव पड़ा था कि वह अपनी प्रतिशोध की भावना को भूल ही गया। लेखिका ने साशा के मन में पल-प्रतिपल उठने वाली प्रतिशोध की भावना के सहारे कुशलता से कहानी को एक सकारात्मक अंजाम तक पहुँचाया है। साशा के मन की जटिल परतों को एक-एक करके कुशलता से खोला गया है। एक वास्तविक घटना से प्रेरित होकर किस तरह कहानी गढ़ी जा सकती है, यह कहानी इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस कहानी में टोरंटो में घटी एक ऐसी ही घटना का रचनात्मक उपयोग किया गया है।
कहानी गरम भुट्टा में वफादार तितरिया के प्रति अधेड़ विधवा भगवती देवी के अतिशय लगाव को कहानी में रेखांकित किया गया है। यहाँ जातिगत भेदभाव के कारण उनके प्रेम को सामाजिक मान्यता संभव नहीं था। लगातार एक द्वंद्व बना रहता है। नौकर होते हुए भी हमउम्र तितरिया भगवती देवी के जीवन का एक अविभाज्य अंग बन गया था। जब तितरिया चला जाता है तो भगवती देवी जिंदा नहीं रह पाती। तितरिया और भगवती देवी के बीच के प्रेम को लेखिका ने बहुत शिद्दत से उकेरा है। तितरिया भील समुदाय का है और उसके साथ उच्चवर्गीय समाज दोयम दर्जे का व्यवहार करता है। भगवती देवी इस असमानता का विरोध करती है। तितरिया को उसका हक दिलाने की कोशिश करती है पर अपनी माँ के तितरिया के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध नहीं कर पाती। भगवती देवी एक संवेदनशील महिला हैं। वह चाहती है कि जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो।
प्रेम मनुष्य को बदल देता है। इसके आगे धर्म की ऊंची दीवारें बौनी हो जाती हैं । प्रेम इंसानियत को जगा देता है। प्रेमी अपने प्रिय के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो जाता है। इलायची कुछ ऐसी ही कहानी है। शौकत अली पेशे से कसाई हैं। मांसाहारी हैं। पान बहुत खाते हैं। पहले केवल इलायची ही खाया करते थे। उनका मानना है कि इलायची की खूशबू में हर तरह की बदबू दब जाती है। शौकत अली साठ पार कर चुके हैं। एक दिन धूप का चश्मा पहने एक अधेड़ उम्र की मोहतरमा गाड़ी से उतरती है और शौकत अली को ‘शौकी’ कहकर संबोधित करती है। शौकत अली शुरू में उसे पहचान नहीं पाते। दरअसल वह यही लड़की रजनी थी जो बरसों पहले शौकत अली के घर के सामने रहा करती थी। इसी लड़की को शौकत अली मन ही मन चाहते थे। लड़की का परिवार शाकाहारी था। शौकत अली उनका लिहाज करते हुए पिछले दरवाजे से ग्राहकों को मांस दिया करते थे। रजनी की बिरादरी के बड़े गुरु उस गाँव से निकल रहे थे। वे उस गाँव में आश्रय लेना चाहते हैं। शौकत अली उनके गुरु को अपने
घर पनाह देने को राजी थे। पर रजनी कहती है कि वे तभी उनके घर ठहरेंगे जब वे गंगाजल से धुलवाकर घर पवित्र कर लें। एक और खास शर्त यह थी कि वे जिंदगी भर गोश्त खाना छोड़ दें । यह शौकत अली के लिए कठिन शर्त थी पर इसे भी वे स्वीकार लेते हैं और एक अघोषित संत का दर्जा पा जाते हैं । इस कहानी को पढ़ते हुए चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’ की याद आती है।
प्रेम एक प्रबल आवेग है जब यह शिखर की ओर उठता है तो उदात्त रूप में प्रकट होता है। उसकी मुस्कान ऐसे ही एक उदात्त प्रेम संबंध की अटपटी कहानी है। बुलबुल अपने पिता की सबसे छोटी, लाड़ली किन्तु दबंग बेटी है। वह लगभग अपने पिता के उम्र के एक आदमी के साथ लीव-इन-रिलेशनशिप में है। वे दोनों पति-पत्नी की तरह रहते हैं। जब पिता बीमार पड़ते हैं तो वह अपने लकवाग्रस्त उस पति को व्हील चेयर पर लेकर पिता के घर आती है। उसके पिता को अपनी बेटी का एक बूढ़े के साथ का यह रिश्ता नागवार लगता है। वह अपनी बेटी को अपना ‘सगा दुश्मन’ मानते हैं। पर बुलबुल बताती है कि उसने प्यार कुछ पाने के लिए कुछ देने के लिए किया है। वह पिता और पति को अपनी बैशाखियाँ मानती है। अंत में उसके पिता अपनी बेटी की खातिर उसके बूढ़े पति को स्वीकार कर लेते हैं।
पन्ने जो पढ़े नहीं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की एक अन्य कहानी है। निम्मी जी अपने पति प्रोफेसर साहब की पसंदीदा छात्रा रश्मि को अपनी बेटी मानती है। वह रश्मि को अपने घर में हर तरह की सुविधा देती है। वह उसे अपने बेटे अंश की बहू बनाने का सपना देखती है। एक रात वह अपने प्रोफेसर पति और रश्मि की रासलीला देख लेती है। यह देखकर वह टूट जाती है। वह गाँव चली जाती है। लौटकर अपने पति के पास नहीं आती। रश्मि छह माह तक प्रोफेसर साहब के साथ रहने के बाद किसी और से शादी कर लेती है। अंत में प्रोफेसर की हृदयाघात से मौत हो जाती है। इस तरह कहानी में रिश्तों के टूटकर बिखर जाने का कसैलापन है।
पूर्ण विराम के पहले की नेरेटर एक महिला शिक्षिक है। वह बस से रोज अपने संस्थान जाती है। महिला ड्राइवर उससे टिकट नहीं लेती है । इस तरह रोज उसके बारह डालर बचते हैं। शिक्षिका के मन में उसके टिकिट न लेने से अनेक आशंकाएँ जन्म लेती हैं। उसे दाल में कुछ काला नजर आता है। पर एक दिन उसकी सभी आशंकाएँ निराधार सिद्ध होती हैं । महिला ड्राइवर यह बताती है कि उन जैसी एक शिक्षक ने उसके जीवन को बदला है। वह होमलेस थी। उस शिक्षक की वजह से ही वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकी है । वह टिकट न लेकर उस महिला शिक्षक के कर्ज को उतारने की कोशिश कर रही है। यह जानकर नेरेटर को अपने सोच पर शर्मिंदगी महसूस होती है।
प्रोफेसर साहब में एक पोती अपने दादा से अपनी मैम द्वारा दिए गए एक प्रश्न का उत्तर लिखवाना चाहती है। प्रश्न में ‘अधिकार और कर्तव्य का अंतर’ बताना था। इस प्रश्न पर विचार करते हुए प्रोफेसर साहब अपने कालेज पहुँच जाते हैं। उनके कालेज में हर प्राध्यापक और विभाग के अध्यक्ष अपने अधिकार पाने के लिए जितना सजग हैं, अपने कर्तव्य के प्रति उतने ही लापरवाह। कालेज के प्राध्यापकों की छात्रों को पढ़ाने के प्रति अरुचि को कहानी में बहुत सजीवता उकेरा गया है।
पाँचवीं दीवार की समता जी सख्त, रौबदार और अनुशासनप्रिय प्राचार्य के रूप में सुप्रसिद्ध है। उनकी लोकप्रिय छवि को देखते हुए उनके स्कूल से रिटायर होने बाद एक राजनीतिक पार्टी उन्हें अपना उम्मीदवार बनाती है पर उन्हें यह नहीं सुहाता। उन्हें लगता है कि उनके भाषण को लोग ध्यान से नहीं सुन रहे हैं। जबकि स्कूल में उन्हें छात्रगण गौर से सुनते थे। वे खुद को दोराहे पर खड़ा पाती हैं पर अंत में जनहित का सोचकर राजनीति की राह चुन लेती है।
कवच का मुख्य पात्र अनाथ मांगिया है जो दूसरों के काम करके अपना पेट भरता है। वह रात-बिरात इधर-उधर भटकता रहता है। उसका कोई घर नहीं है। एक मुंह बोली दादी जरूर उस पर ममता लुटाती है। पुलिस वाले उसे बार-बार चोरी-चकारी के आरोप में जेल में डाल देते हैं। दूसरों के अपराध उसके माथे पर मड़ देते हैं । पर मांगिया को इस पर कोई आपत्ति नहीं। वह जेल को अपना ससुराल मानता है। वहाँ उसे दो जून की रोटी मिल जाती है। यह उसके लिए बहुत बड़ी नियामत है। यूं ही भटकते-भटकते एक दिन मांगिया को एक अनाथ और मंदबुद्धि लड़की मिल जाती है। उसके मन के तार उससे जुड़ जाते हैं। वह उसके साथ घर बसाना चाहता है। अब वह चाहता है कि पुलिस उसे तंग न करे। पुलिस के एक बड़े अधिकारी को इस बात का पता चलता है। वे बड़े पुलिस अधिकारी वर्दी में होते हुए भी एक इंसान थे। वे मांगिया को निश्चिंत करते हुए कहते हैं-‘चल जा मांगिया, जी ले अपनी जिंदगी।’ कहानी के अंत में उसी मांगिया का बेटा उसी थाने में पुलिस इंस्पेक्टर बनकर आता है। अब वहाँ मांगिया को आदर दिया जाता है। उसकी तस्वीर दीवार से उतर कर पुलिस इंस्पेक्टर की मेज पर आ जाती है।
अक्स का मतलब है परछाई। यह नानी के उसकी नातिन के सम्बन्धों की बहुत प्यारी कहानी है। इस कहानी की पहली ही पंक्ति पाठकों को बांध लेती है-‘सब लोग मुझे ‘प्राब्लम चाइल्ड’ कहते हैं पर मेरा दावा है कि मैं नहीं हूँ ‘प्राब्लम चाइल्ड’, मेरी नानी ‘प्राब्लम नानी’ हैं।’ नानी अपने नातिन से बहुत प्यार करती है। उसके नखरे खुशी-खुशी उठाती है पर बच्ची के माता-पिता इसे अच्छा नहीं मानते। उनके अनुसार यह लाड़ उसे बिगाड़ देगा। नातिन प्रकट में तो एतराज करती है पर मन से चाहती है कि नानी उसकी खूब परवाह करे। आठ साल की नातिन नानी के सामने एक बरस की बच्ची बन जाती है। जब वही नातिन बड़ी होकर माँ बनती है तो वह महसूस करती है-‘माँ बनकर जब मैं इतनी रोका-टोकी कर रही हूँ तो यह बात तो पक्की है नानी बनकर मेरे अंदर की माँ की माँ ‘प्राब्लम नानी’ हो ही जाएगी।’ मतलब नातिन अपनी नानी का ही अक्स बन जाएगी। माँ, बेटी और नानी के आपसी सम्बन्धों और बाल मनोविज्ञान की यह एक मार्मिक कहानी है।
डॉ. हंसा की कहानियों में प्रेम और मानवता की तलाश साफ नजर आती है। प्रेम के अनेक रूप-रंग इन कहानियों में दिखाई देते हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी इन कहानियों में विसंगतियों, विडंबनाओं के चित्रण के साथ इन स्थितियों के लिए हल्का-सा तंज़ भी दृष्टिगोचर होता है । पात्र अपनी मनोग्रंथियों से बखूबी जूझते हैं। उनकी जिजीविषा विस्मित करती है। कहानियों को धैर्यपूर्वक रचा गया है। बोलचाल की मुहावरेदार, सहज-सरल और प्रांजल भाषा पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है। संग्रह में कुल 17 विविधवर्णी कहानियाँ हैं। संग्रह का आमुख आकर्षक है। किस्सागंज पुस्तक श्रृंखला के भाग-1 के प्रतिभागियों में से चयनित विजेता डॉ. हंसा दीप का यह संग्रह पठनीय है।
किताब : शत प्रतिशत (कहानी संग्रह) लेखिका : डॉ. हंसा दीप प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी-322201, राजस्थान मूल्य: 250/-