भूमंडलीकरण के संदर्भ में भारत और हिंदी

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*सुरजीत सिंह वरवाल

इंद्र मित्रं करुणमग्नि माहुरथो दिव्य:स सुपुर्णो गुरुत्मान,

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यम:मातरिश्वानमाह ।[1]

(अर्थात ईश्वर एक है, सिर्फ नाम के फर्क हैं )

जिस प्रकार से ईश्वर के विभिन्न नाम होते हुए भी उसकी सत्ता, अस्तित्व को मनुष्य अहसास कर सकता है, विश्वास कर सकता हैं ठीक उसी प्रकार से ग्लोबलाइजेशन का दौर भी मनुष्य के हित की दृष्टि को रेखाकिंत करता है । जब कोई नया विचार, समाज में आता है तो उसके दो परिणाम सर्वप्रमुख उभर कर आते है एक पोजिटिव (सकारात्मक ), दूसरा नेगिटिव (नकारात्मक) । भूमंडलीकरण ने जहाँ विभिन्न विचारों को, तर्कों को, संस्कृतियों को, एक दूसरे से जोड़ा तो वहीं दूसरी ओर कुछ खामियाजे भी समाज को भुगतने पड़े । भारत एक प्राचीन सभ्यता, ऋषि- मुनियों का देश रहा है । लोक विश्वास, रीति रिवाज लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर आधारित 21वीं सदी में एक महान शक्ति बनकर सामने आ रहा है । भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में, विश्व का सबसे तेजी से प्रगति करने वाला मुक्त बाजार का लोकतान्त्रिक देश है ।

संप्रति, राजनीति, अर्थनीति समाज व् संस्कृति को गहरे रूप से प्रभावित करने वाली भूमंडलीकरण की प्रक्रिया कब आरम्भ हुई, इसे लेकर विद्वानों में कोई मतैक्य नहीं है । विद्वानों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि अतीत में हम पूंजी और श्रम के आवागमन के रूप में भूमंडलीकरण की शुरुआत देख सकते हैं, वहीं दूसरा वर्ग यह मानता है कि अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की प्रक्रिया को भूमंडलीकरण की संज्ञा देना इसलिए उचित नहीं होगा, क्योंकि यह समूची प्रक्रिया वैश्विक नहीं थी, बल्कि यह कुछ सीमित राष्ट्रों के मध्य स्थापित संबंध था । उनकी एक दलील यह भी है कि इसमें एशिया व अफ्रीका के ज्यादातर राष्ट्रों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं था । बहरहाल, 1870 से 1914 के मध्य को उन्मुक्त बाजार या ‘अबाध वाणिज्य’ के युग की तरह परिभाषित किया जाना सुविधाजनक प्रतीत होता है, क्योंकि इस दौरान ‘पूंजी और श्रम’ के आवागमन पर कोई विशेष रोक नहीं देखी जा सकती हैं, इसी प्रकार व्यापार के विस्तार के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था के एकीकरण की प्रक्रिया देखी जा सकती है । इस प्रक्रिया को यातायात व संचार जैसे रेलवे, तार व वाष्प इंजन के प्रयोगों से साहयता मिली ।”[2]

हस्र्ट एवं  थांपसन जैसे अर्थशास्त्रियों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि आज की तुलना में वर्ष 1913 के आस-पास भूमंडलीकरण की प्रवृतियां कहीं ज्यादा दृष्टिगोचर होती है । इस संबंध में दोनों विद्वानों ने बड़े रोचक ढंग से आकड़े भी प्रस्तुत किए हैं । वे दलील देते हैं कि महत्वपूर्ण आर्थिक शक्तियों के राष्ट्रीय जीडीपी के पूंजी- निर्गम का प्रतिशत भी 1905-14, 1965-75 और 1982-86 में क्रमशः 6.61, 1.17 व 1.10  प्रतिशत देखा जा सकता है ।”[3] इस धारणा को पाल क्रुगमैन और रॉबर्ट गिलीपिन ने भी स्वीकार किया है और इसके पक्ष में दमदार आकड़े भी प्रस्तुत किए हैं । यही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग प्रथम विश्व-युद्ध  के काल को अन्तराष्ट्रीय एकीकरण के युग का स्वर्ण काल कहने से भी नहीं चूकता । प्रथम विश्व- युद्ध से भूमंडलीकरण के इस सिलसिले से खासा परिवर्तन दिखाई देता है । भूमंडलीकरण के स्थान पर राष्ट्रों की सरहदों ने ‘पूंजी और श्रम’ के बेरोकटोक आवागमन को मुश्किल बना दिया ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को चुना जिसके अंतर्गत सरकार ने विकास का मार्ग अपनाया । इसके कई बड़े उद्योग स्थापित किए और धीरे- धीरे निजी क्षेत्र को विकसित होने दिया । बरसों तक भारत अपने निर्धारित लक्ष्य पाने में सक्षम नहीं हो सका । कल्याणकारी कार्यों के लिए भारत  अन्य देशों से ऋण लेने की विश्वसनीयता खो बैठा । कई अन्य समस्याओं जैसे- ‘बढ़ती कीमतें, पर्याप्त पूंजी की कमी, धीमी विकास गति और प्रौद्योगिकी के पिछड़ेपन’ ने संकट को बढ़ा दिया । सरकारी खर्च आय से कही अधिक हो गया । इसने भारत को भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करने तथा दो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सुझाव के अनुसार अपने बाजार खोलने को विवश किया । सरकार द्वारा अपनाई गई रणनीति को नई आर्थिक नीति कहा जाता है । इस नीति के अंतर्गत कई गतिविधियों को, जो सरकारी क्षेत्र द्वारा ही की जाती थी, निजी क्षेत्र के लिए भी खोल दिया गया । निजी क्षेत्र को कई प्रतिबंध से भी मुक्त कर दिया गया । उन्हें उद्योग प्रारम्भ करने तथा व्यापारिक गतिविधिया चलाने के लिए कई प्रकार की रियायतें भी दी गई । देश के बाहर से उद्योगपतियों एवं व्यापारियों को उत्पादन करने तथा अपना माल और सेवाएँ भारत में बेचने के लिए आमंत्रित किया गया । कई विदेशी वस्तुओं को, जिन्हें पहले भारत में बेचनें की अनुमति नहीं थी, अब अनुमति दी जा रही है ।

भारत में भूमंडलीकरण के अंतर्गत विगत एक दशक में कई विदेशी कंपनियों द्वारा मोटरगाड़ियों, सूचना प्रौद्योगिकी,इलैक्ट्रोनिक्स, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के क्षेत्र में उत्पादन इकाईयां लगाई गई हैं । इससे भी बढ़कर कई उपभोक्ता वस्तुओं विशेषत: इलोक्ट्रोनिक्स उद्योग में जैसे रेडियों, टेलीविजन और अन्य घरेलू उपकरणों की कीमतें घटी हैं । दूरसंचार क्षेत्र ने असाधारण प्रगति की है । अतीत में जहाँ हम टेलीविजन पर एक या दो चैनल देख पाते थे, उसके स्थान पर अब हम अनेक चैनल देख सकते हैं । हमारे यहाँ सेल्युलर फोन प्रयोग करने वालों की संख्या लगभग दो करोड़ हो गई है, कंप्यूटर और अन्य आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग खूब बढ़ा है । जब विकासशील देशों को व्यापार के लिए विकसित देशों से सौदेबाजी करनी होती है तो भारत एक नेता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । एक क्षेत्र जिसमें भूमंडलीकरण भारत के लिए उपयोगी नहीं है वह है- रोजगार पैदा करना । यद्धपि इसने कुछ अत्यधिक कुशल कारीगरों को अधिक कमाई के अवसर प्रदान किए परन्तु भूमंडलीकरण का लाभ मिलना शेष है । भारत के अनेक भू-भागों को विश्व के अन्य भागों में उपलब्ध भिन्न प्रकार की प्रौद्योगिकी का कुशल से प्रयोग कर सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़  बनाने की आवश्यकता है । विकसित देशों में खेती के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों को अपनाने के लिए भारतीय कृषको को शिक्षित करना है । यहाँ अस्पतालों को अधिक आधुनिक उपकरणों की आवश्यकता है । भूमंडलीकरण द्वारा अभी भारत के लाखों घरों में सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध करवानी है ।

“भूमंडलीकरण की बात शुरू की जाए तो सबसे पहले हम भाषा का ही सवाल ले- अंग्रेजी और भारतीय भाषओं के अंतर्सबंध; जब मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत की थी, तब भूमंडलीकरण का सवाल नहीं था । अंग्रेजी सत्ता हमें विश्व नागरिक बनाने के लिए अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही थी । उपनिवेशवादी दौर में उन्हें अपने लिए अंग्रेजी पढ़े- लिखे कार्टून चाहिए थे । इंगलिस्तासन  के विधि-विधान और कानून को देश में लागू करने के लिए न्यायाधीश और वकील चाहिए थे । भारत में वकीलों का तबका ही पहला अंग्रेजी पढ़ा- लिखा तबका था । तब की अंग्रेजी शिक्षा और आज की अंग्रेजी शिक्षा में अंतर है । आज भारत की अंग्रेजी हमे अपने ही देश में व्यक्तिहीन बनाती है और साथ ही हमें विश्वबाजार में विश्व- नागरिक बनाती है । भूमंडलीकरण की स्पर्धा में यह हमारी सहायक भी है । लेकिन भूमंडलीकरण से अलग जब राष्ट्रीयकरण का सवाल आता है तो अंग्रेजी के कारण हमारा सम्पर्क और सम्बन्ध अपने ही देश के दलित, शोषित और अशिक्षित वर्ग से टूट जाता है, इतना ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में हमारी सोच का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होता है । भूमंडलीकरण लगातार हमारी संस्कृति को विकृत करता जा रहा है । हमारे सदियों पुराने मानवीय सरोकारों और संस्कारों को तोड़ता जा रहा है । भूमंडलीकरण के साथ आई है, स्पर्धा, मुनाफे की संस्कृति और मानवाधिकारों को मसलना ।

भारत में भूमंडलीकरण का जो भूचाल आया है, वह कल्याणकारी पूंजीवाद तो नहीं है ।  पर मुमकिन है कि विकसित पूंजीवादी देशों में वह कोई कल्याणकारी शक्ल रखता हो, पर विकासशील देशों में वह शोषक की शक्ल में ही आया है । वह कल्याणकारी नहीं विनाशकारी है भूमंडलीकरण की छतरी के नीचे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जो हमला आज हो रहा है, वह केवल हमारी अर्थव्यवस्था पर नहीं है । इसे समझना जरूरी है यह हमला प्रगतिगामी जीवंत भारतीय संस्कृति, परम्परा, जीवन- शैली पर ही नहीं, बल्कि वैचारिक संघर्ष से जैसे- तैसे विकसित होते हुए लोकतान्त्रिक मूल्यों पर भी है । भारत ने जो लोकतान्त्रिक संविधान बनाया है, उसके अंतर्गत बनने वाली सरकारों का स्वरूप ट्रस्टी का है । वे सरकारें जनता की परिवर्तनकामी, न्यायपूर्ण समाज रचना के मिशन को लेकर सत्ता संभालती है ।

बाजारवाद का जीवन दर्शन है – निर्लज्ज उपभोक्तावाद, इसके लिए वह आज के तीव्रगामी सूचनातंत्र का सहारा लेता है । वह दस सेकण्ड में यह बताता है कि कोई वाशिंग मशीन आपके लिए कितनी उपयोगी है और यही अनकहे तरीके से वह हमारी समाज-रचना के उस धागे को तोड़ देता है जो हमारे समाज में हमे परस्पर पूरक बनाता हैं अपने एक समकालीन अग्रज समाजशास्त्री सिद्धराज जी ढड्ढा के हवाले से कहूँ तो ‘वाशिंग मशीन के बारे में सोचते ही हमारा रिश्ता घर के धोबी से टूटने लगता है’ इसी तरह उपभोक्तावादी संस्कृति में नई चीजों की भूख पैदा की जाती है, फिर चाहे वे चीजें जीवन के लिए जरूरी हो या न हों । व्यापार का पुराना नियम था- मांग के अनुसार पूर्ति, वैश्विक बाजारवाद ने यह नियम एकदम सही दिया है । अब पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली अपना उत्पादन इस नजरिए से करती है कि किस चीज को बनाकर अधिकतम मुनाफा बटोरा जा सके । फिर वह उद्योगपति अपने प्रोडक्ट की मांग पैदा करता हैं । जरूरत न हो तो भी मध्यवर्ग उस प्रोडक्ट को खरीदने लगता है । फिर उसे लगने लगता है कि वह प्रोडक्ट उसके कुलीन व्यक्तित्व का जरूरी हिस्सा बन गया है ।

समाजशास्त्री सिद्धराज ढड्ढा के शब्दों में “ऐसे में हमे उपभोक्ता उत्पादनों का ग्लोबलाइजेशन नहीं, बल्कि स्वदेशी उत्पादनों का (लोकलाइजेशन) स्थानीकरण चाहिए” ।[4] हाँ ग्लोबलाइजेशन का हम स्वागत करते हैं, यदि विचार, सूचना विज्ञान के क्षेत्र में हो । क्षमा, करुणा, दया, अहिंसा, संवेदना, मैत्री और शांति के पक्ष में हो । वह कोम्पीटीटिव न होकर पूरक (कोम्प्लीमैट्रि) हो । लेकिन हो उल्टा रहा है । स्वर्ग का सपना देखते-देखते हम नरक में पहुँच गए हैं  । भारत दुनियाभर के उत्पादन निर्माताओं के लिए एक बड़ा खरीददार और उपभोक्ता बाजार है । बेशक, हमारे पास भी काफी उत्पादन हैं और हम भी उन्हें बदले में दुनियाभर के बाजार में उतार रहे हैं, क्योंकि बाजार केवल खरीदने की ही नहीं, बेंचने की भी जगह होती है । इस क्रय-विक्रय की अंतर्राष्ट्रीय मेले में संचार माध्यमों का केन्द्रीय महत्त्व है, वे किसी भी उत्पादन को खरीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं । यह उत्पाद वस्तु से लेकर विचार तक कुछ भी हो सकता है । यही कारण है कि आज भूमंडलीकरण की भाषा का प्रसार हो रहा है, तथा मातृ-बोलियाँ सिकुड़ और मर रही है ।

आज के भाषा संकट को इस रूप में देखा जा रहा है कि भारतीय भाषाओं के समक्ष उच्चारित रूप भर बनकर रह जाने का खतरा उपस्थित है क्योंकि सम्प्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण उत्तरआधुनिकता माध्यम टी.वी अपने विज्ञापनों से लेकर करोड़पति बनाने वाले अतिशय लोकप्रिय कार्यक्रमों तक में हिंदी बोलता भर है, लिखता अंग्रेजी में ही है । इसके बावजूद यह सच है कि इसी माध्यम के सहारे हिंदी अखिल भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विस्तार के नए आयाम छू रही है । विज्ञापनों की भाषा और प्रोमोशन वीडियो की भाषा के रूप में सामने आने वाली हिंदी शुद्धतावादियों को भले ही न पच रही हो, युवा वर्ग ने उसे देश भर में अपने सक्रिय भाषा कोष में शामिल कर लिया है । इसे हिंदी के संदर्भ में संचार माध्यम की बड़ी देन कहा जा सकता है ।

समाज के दर्पण के रूप में साहित्य भी तो संचार माध्यम ही है, जो सूचनाओं का व्यापक सम्प्रेषण करता है । साहित्य की तुलना में संचार माध्यमों का ताना- बाना अधिक जटिल और व्यापक है क्योंकि वे तुरंत और दूरगामी असर करते हैं । भूमंडलीकरण ने उन्हें अनेक चैनल ही उपलब्ध नहीं करवाए है, बल्कि इंटरनेट और वेबसाइट के रूप में अंतर्राष्ट्रीयता के नए अस्त्र- शस्त्र भी मुहैया करवाए हैं । हिंदी भाषा के सामर्थ्य में वृद्धि हुई है । संचार माध्यम यदि आज के आदमी को पूरी दुनिया से जोड़ते हैं तो वे ऐसी भाषा के माध्यम से ही करते हैं । अत: संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है । साहित्य लेखन की भाषा आज भी संस्कृतनिष्ठ बनी हुई है तो दूसरी तरफ संचार माध्यम की भाषा ने जन भाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की हुई है । समाचार विश्लेषण तक में कोडमिश्रित हिंदी का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है ।

हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है । इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ दिखाई देता है । ऐसे अवसरों पर हिंदी, व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदाहरण के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है यही प्रवृति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृति है तब तक हिंदी का विकास रूक नहीं सकता । बाजारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्विकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमे पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ । अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है । बाजारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुडी हुई है । यदि इसका माध्यम अंग्रेजी होता तो अंग्रेजियत का प्रचार होता । लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते । इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाजार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं हैं । विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी, अंग्रेजी और अंग्रेजियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुडी हुई है ।

संपर्क :
सुरजीत सिंह वरवाल
(शोधार्थी),  हिंदी- विभाग
डॉ. हरी सिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र.
singh.surjeet886@gmail.com

[1] ऋग्वेद – (1-46-164 ).

[2] भूमंडलीकरण और भारत : परिदृश्य और विकल्प, अमित कुमार सिंह, सामियक प्रकाशन- नई दिल्ली, पृ सं 7-8.

[3] भूमंडलीकरण : साहित्य और संस्कृति – श्री कमलेश्वर, 24- सितम्बर-2001, लेख “भूमंडलीकरण, साहित्य और संस्कृति”.

[4] भूमंडलीकरण की चुनौतियां : संचार माध्यम और हिंदी का सन्दर्भ, डॉ ऋषभदेव शर्मा, विक्की बुक्स ट्रस्ट, दिल्ली.

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