बदलते परिदृश्य में स्त्री का स्वरूप

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-स्वाति सौरभ

वक्त के साथ सोच और भारत में स्त्रियों की स्थिति में बहुत बदलाव हुए हैं। आज जहाँ नारी पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है, वहीं किसी-किसी क्षेत्र में तो पुरूषों को पीछे छोड़ती भी नजर आ रही हैं। पुरुष प्रधान समाज में प्राचीन काल से ही नारी कई रूढ़िवादी परम्पराओं की बेड़ियों में बंधी रही है। जो आज कम जरूर हुई हैं परन्तु खत्म नहीं। कल भी नारी पर ही उंगली उठती थी और आज भी कटघरे में नारी ही खड़ी रहती है। चुनौतियां खत्म नहीं हो रही बल्कि बदलते परिदृश्य में नए नए रूपों में सामने खड़ी हो रही हैं।

ये भी कटु सत्य है कि वक्त चाहे कितना भी बदल जाए लेकिन औरत को अपने हक के लिए पहले खुद को साबित ही करना पड़ा है। रामायण में जहाँ सीता के चरित्र पर ही उंगली उठी, राम पर नहीं। सीता को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और धरा में समाकर खुद को पवित्र साबित करना पड़ा। महाभारत में भी द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया गया, बिना उनकी मर्ज़ी के। क्योंकि शायद औरत होने के कारण उनसे उनकी मर्ज़ी जानना जरूरी नहीं समझा गया। आज भी वक्त जरूर बदला है, नारी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति में सुधार हुई है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नारी की क्षमता पर आज भी सवाल खड़े किए जाते हैं। जिसका एक ताज़ा उदाहरण है अभी हाल में 17 वर्षों से चल रही लंबी कानूनी लड़ाई के बाद महिलाओं को सेना में बराबरी का हक मिला है। इस कानूनी लड़ाई में विपक्ष की ओर से दलील में महिलाओं की शारीरिक, मानसिक क्षमताओं पर सवाल उठाए गए थे। जिसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी कि सरकार अपनी मानसिकता बदले। हम महिलाओं पर एहसान नहीं कर रहे, उन्हें उनका हक दे रहे हैं। अजीब बात है न ! नारी की क्षमता पर ही सवाल क्यों? सुप्रीम कोर्ट द्वारा मिली इस जीत ने ये तो जरूर साबित कर दिया कि महिलाओं को कमजोर समझने वाली मानसिकता में अब बदलाव लाने की जरूरत है।

आज नारीशक्ति ने लगभग हर क्षेत्र में अपना परचम लहराया है। सिर्फ घर की ही शोभा बनकर आज नारी नहीं रह गई है, जिस भी क्षेत्र में काम करती हैं अपनी निष्ठा पूर्वक काम करने के तरीके से, अपनी मेहनत से खुद की अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं। आईएमएफ जैसी संस्था की चीफ भी बनकर नारी ने दिखाया दिया है कि कोई भी क्षेत्र या कार्य उनसे अछूता नहीं है। बैंक, रेलवे, टीचिंग जैसे क्षेत्रों में सेवा देकर अपनी पहचान बना चुकी हैं वहीं अब खेल के क्षेत्र में भी अपना दमखम दिखाया है। एवरेस्ट की चोटी पर भी फतह करने वाली नारी की शारीरिक क्षमता पर सवाल उठाया जाना कितना सही है! जो स्त्री 25-30 वर्षों तक अपने घर रहकर जब शादी कर दूसरे के घर जाती है तो उस परिवार को भी अपना बनाने का प्रयास करती है। जो स्त्री दूसरे परिवार में खुद को शामिल कर लेती है, उन्हें अपना बना लेती है, उनकी मानसिक क्षमता पर सवाल उठना क्या सही है?

नारी मां बनकर अपनी जिम्मेदारियां संभालती हैं तो पत्नी बनकर अपना धर्म भी निभाती हैं। बेटी बनकर घर की शोभा बढ़ाती हैं तो बहन बनकर साथ भी निभाती हैं और जब जरूरत पड़ती है तो यही नारी शस्त्र भी उठाती हैं। अगर नारी ने हाथ में चूड़ी, गले में मंगलसूत्र और मांग पर सिंदूर लगा कर अपने संस्कारों का परिचय देती हैं तो यही नारी रानी लक्ष्मीबाई बनकर अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए तलवार भी उठाती हैं। सावित्री बनकर यमराज से पति के प्राण भी वापस मांगकर लाने की क्षमता रखती हैं। अगर नारी की सहनशक्ति धरा स्वरूप है तो यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी का भी रूप धारण करती है।

इस पुरुष प्रधान समाज ने कई तरह के कुरीतियों और अंधविश्वासों को संस्कार और परम्परा का नाम देकर महिलाओं को हमेशा से ही जंजीरों में बांधे रखने की कोशिश की है। जैसे – जैसे महिलाएं शिक्षित होती गईं खुद को इन जंजीरों से तोड़कर बाहर निकालने में सफल हुई हैं। लेकिन आज के दौर में भी कई परम्पराओं की बेड़ियों से बंधी महिलाएं, अंधविश्वास को आस्था का नाम देती नजर आती हैं। परन्तु वक्त में काफी हद तक बदलाव हुए हैं और होते भी रहेंगे। महिलाएं हर क्षेत्र में खुद को साबित कर चुकी हैं और अपना परचम भी लहरा रही हैं और लहराती रहेंगी।

स्वाति सौरभ
भोजपुर, बिहार
sourabh.swati6@gmail.com

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