शत प्रतिशत : प्रेम और मानवता के पक्ष में खड़ी मार्मिक कहानियाँ

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समीक्षक : गोविंद सेन

डॉ. हंसा दीप हिन्दी कथा साहित्य की एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। प्रस्तुत संग्रह हंसा जी का तीसरा कहानी संग्रह है। इनके खाते में तीन उपन्यास भी हैं। हंसा जी टोरंटो में निवास करती हैं पर उनका संबंध भारत के मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ के एक छोटे से कस्बे मेघनगर से रहा है। यही कारण है कि इनकी कई कहानियों का परिवेश और पात्र भारतीयता से ओतप्रोत हैं। उस अंचल की छाप इनकी कहानियों में परिलक्षित होती है। हालांकि विदेशी पात्रों और परिवेश की भी कमी नहीं है। कैनेडा में हिन्दी पढ़ाने के कारण उनका हिन्दी के प्रचार-प्रसार से भी सीधा जुड़ाव है। हंसा जी का अनुभव-संसार वास्तविक, व्यापक और विस्तृत है। यह एक देश की परिधि में बंधा हुआ नहीं है।  

शत प्रतिशत कहानी से संग्रह का नामकरण हुआ है। यह कहानी अनुक्रम में भी पहले स्थान पर है। इस कहानी का तीस साल का नायक साशा बचपन की  मनोग्रंथि से ग्रसित है। उसे बचपन में अपने पिता की क्रूरता और हिंसा झेलना पड़ती है। फलस्वरूप उसके मन में प्रबल प्रतिशोध की भावना पनप जाती है। वह अपने तीसवें जन्मदिन पर ट्रक लेकर निकलता है। वह लोगों को रौंद देना चाहता है ताकि उसके भीतर धधकती प्रतिशोध की अग्नि शांत हो सके। पर जब उसके सामने वैसी ही घटना घटती है तो उसका हृदय परिवर्तित हो जाता है। वह दुर्घटनाग्रस्त निरीह लोगों की मदद करने लगता है। शायद उस पर अपनी प्रेमिका लीसा, फ़ौस्टर पेरेंट्स पिता कीथ और माता जोएना के प्रेमपूर्ण व्यवहार का ऐसा प्रभाव पड़ा था कि वह अपनी प्रतिशोध की भावना को भूल ही गया। लेखिका ने साशा के मन में पल-प्रतिपल उठने वाली प्रतिशोध  की भावना के सहारे कुशलता से कहानी को एक सकारात्मक अंजाम तक पहुँचाया है। साशा के मन की जटिल परतों को एक-एक करके  कुशलता से खोला गया है। एक वास्तविक घटना से  प्रेरित होकर किस तरह कहानी गढ़ी जा सकती है, यह कहानी इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस कहानी में टोरंटो में घटी एक ऐसी ही घटना का रचनात्मक उपयोग किया गया है।  

कहानी गरम भुट्टा में वफादार तितरिया के प्रति अधेड़ विधवा भगवती देवी के अतिशय लगाव को कहानी में रेखांकित किया गया है। यहाँ जातिगत भेदभाव के कारण उनके प्रेम को सामाजिक मान्यता संभव नहीं था। लगातार एक द्वंद्व बना रहता है। नौकर होते हुए भी हमउम्र तितरिया भगवती देवी के जीवन का एक अविभाज्य अंग बन गया था। जब तितरिया चला जाता है तो भगवती देवी जिंदा नहीं रह पाती। तितरिया और भगवती देवी के बीच के प्रेम को लेखिका ने बहुत शिद्दत से उकेरा है। तितरिया भील समुदाय का है और उसके साथ उच्चवर्गीय समाज दोयम दर्जे का व्यवहार करता है। भगवती देवी इस असमानता का विरोध करती है। तितरिया को उसका हक दिलाने की कोशिश करती है पर अपनी माँ के तितरिया के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध नहीं कर पाती। भगवती देवी एक संवेदनशील महिला हैं। वह चाहती है कि जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो।

प्रेम मनुष्य को बदल देता है। इसके आगे धर्म की ऊंची दीवारें बौनी हो जाती हैं । प्रेम इंसानियत को जगा देता है। प्रेमी अपने प्रिय के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो जाता है। इलायची कुछ ऐसी ही कहानी है। शौकत अली पेशे से कसाई हैं। मांसाहारी हैं। पान बहुत खाते हैं। पहले केवल इलायची ही खाया करते थे। उनका मानना है कि इलायची की खूशबू में हर तरह की बदबू दब जाती है। शौकत अली साठ पार कर चुके हैं। एक दिन धूप का चश्मा पहने एक अधेड़ उम्र की मोहतरमा गाड़ी से उतरती है और शौकत अली को ‘शौकी’ कहकर संबोधित करती है। शौकत अली शुरू में उसे पहचान नहीं पाते। दरअसल वह यही लड़की रजनी थी जो बरसों पहले शौकत अली के घर के सामने रहा करती थी। इसी लड़की को शौकत अली मन ही मन चाहते थे। लड़की का परिवार शाकाहारी था। शौकत अली उनका लिहाज करते हुए पिछले दरवाजे से ग्राहकों को मांस दिया करते थे। रजनी की बिरादरी के बड़े गुरु उस गाँव से निकल रहे थे। वे उस गाँव में  आश्रय लेना चाहते हैं। शौकत अली उनके गुरु को अपने

घर पनाह देने को राजी थे। पर रजनी कहती है कि वे तभी उनके घर ठहरेंगे जब वे गंगाजल से धुलवाकर घर पवित्र कर लें। एक और खास शर्त यह थी कि वे जिंदगी भर गोश्त खाना छोड़ दें । यह शौकत अली के लिए कठिन शर्त थी पर इसे भी वे स्वीकार लेते हैं और एक अघोषित संत का दर्जा पा जाते हैं । इस कहानी को पढ़ते हुए चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’ की याद आती है।

प्रेम एक प्रबल आवेग है जब यह शिखर की ओर उठता है तो उदात्त रूप में प्रकट होता है। उसकी मुस्कान ऐसे ही एक उदात्त प्रेम संबंध की अटपटी कहानी है। बुलबुल अपने पिता की सबसे छोटी, लाड़ली किन्तु दबंग बेटी है। वह लगभग अपने पिता के उम्र के एक आदमी के साथ लीव-इन-रिलेशनशिप में है। वे दोनों पति-पत्नी की तरह रहते हैं। जब पिता बीमार पड़ते हैं तो वह अपने लकवाग्रस्त उस पति को व्हील चेयर पर लेकर पिता के घर आती है। उसके पिता को अपनी बेटी का एक बूढ़े के साथ का यह रिश्ता नागवार लगता है। वह अपनी बेटी को अपना ‘सगा दुश्मन’ मानते हैं। पर बुलबुल बताती है कि उसने प्यार कुछ पाने के लिए कुछ देने के लिए किया है। वह पिता और पति को अपनी बैशाखियाँ मानती है। अंत में उसके पिता अपनी बेटी की खातिर उसके बूढ़े पति को स्वीकार कर लेते हैं।

पन्ने जो पढ़े नहीं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की एक अन्य कहानी है। निम्मी जी अपने पति प्रोफेसर साहब की पसंदीदा छात्रा रश्मि को अपनी बेटी मानती है। वह रश्मि को अपने घर में हर तरह की सुविधा देती है। वह उसे अपने बेटे अंश की बहू बनाने का सपना देखती है। एक रात वह अपने प्रोफेसर पति और रश्मि की रासलीला देख लेती है। यह देखकर वह टूट जाती है। वह गाँव चली जाती है। लौटकर अपने पति के पास नहीं आती। रश्मि छह माह तक प्रोफेसर साहब के साथ रहने के बाद किसी और से शादी कर लेती है। अंत में प्रोफेसर की हृदयाघात से मौत हो जाती है। इस तरह कहानी में रिश्तों के टूटकर बिखर जाने का कसैलापन है।

पूर्ण विराम के पहले की नेरेटर एक महिला शिक्षिक है। वह बस से रोज अपने संस्थान जाती है। महिला ड्राइवर उससे टिकट नहीं लेती है । इस तरह रोज उसके बारह डालर बचते हैं। शिक्षिका के मन में उसके टिकिट न लेने से अनेक आशंकाएँ जन्म लेती हैं। उसे दाल में कुछ काला नजर आता है। पर एक दिन उसकी सभी आशंकाएँ निराधार सिद्ध होती हैं । महिला ड्राइवर यह बताती है कि उन जैसी एक शिक्षक ने उसके जीवन को बदला है। वह होमलेस थी। उस शिक्षक की वजह से ही वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकी है । वह टिकट न लेकर उस महिला शिक्षक के कर्ज को उतारने की कोशिश कर रही है। यह जानकर नेरेटर को अपने सोच पर शर्मिंदगी महसूस होती है।  

प्रोफेसर साहब में एक पोती अपने दादा से अपनी मैम द्वारा दिए गए एक प्रश्न का उत्तर लिखवाना चाहती है। प्रश्न में ‘अधिकार और कर्तव्य का अंतर’ बताना था। इस प्रश्न पर विचार करते हुए प्रोफेसर साहब अपने कालेज पहुँच जाते हैं। उनके कालेज में हर प्राध्यापक और विभाग के अध्यक्ष अपने अधिकार पाने के लिए जितना सजग हैं,  अपने कर्तव्य के प्रति उतने ही लापरवाह। कालेज के प्राध्यापकों की छात्रों को पढ़ाने के प्रति अरुचि को कहानी में बहुत सजीवता उकेरा गया है।  

पाँचवीं दीवार की समता जी सख्त, रौबदार और अनुशासनप्रिय प्राचार्य के रूप में सुप्रसिद्ध है। उनकी लोकप्रिय छवि को देखते हुए उनके स्कूल से रिटायर होने बाद एक राजनीतिक पार्टी उन्हें अपना उम्मीदवार बनाती है पर उन्हें यह नहीं सुहाता। उन्हें लगता है कि उनके भाषण को लोग ध्यान से नहीं सुन रहे हैं। जबकि स्कूल में उन्हें छात्रगण गौर से सुनते थे। वे खुद को दोराहे पर खड़ा पाती हैं पर अंत में जनहित का सोचकर राजनीति की राह चुन लेती है।  

कवच का मुख्य पात्र अनाथ मांगिया है जो दूसरों के काम करके अपना पेट भरता है। वह रात-बिरात इधर-उधर भटकता रहता है। उसका कोई घर नहीं है। एक मुंह बोली दादी जरूर उस पर ममता लुटाती है। पुलिस वाले उसे बार-बार चोरी-चकारी के आरोप में जेल में डाल देते हैं। दूसरों के अपराध उसके माथे पर मड़ देते हैं  । पर मांगिया को इस पर कोई आपत्ति नहीं। वह जेल को अपना ससुराल मानता है। वहाँ उसे दो जून की रोटी मिल जाती है। यह उसके लिए बहुत बड़ी नियामत है। यूं ही भटकते-भटकते एक दिन मांगिया को एक अनाथ और मंदबुद्धि लड़की मिल जाती है। उसके मन के तार उससे जुड़  जाते हैं। वह उसके साथ घर बसाना चाहता है। अब वह चाहता है कि पुलिस उसे तंग न करे। पुलिस के एक बड़े अधिकारी को इस बात का पता चलता है। वे बड़े पुलिस अधिकारी वर्दी में होते हुए भी एक इंसान थे। वे मांगिया को निश्चिंत करते हुए कहते हैं-‘चल जा मांगिया, जी ले अपनी जिंदगी।’ कहानी के अंत में उसी मांगिया का बेटा उसी थाने में पुलिस इंस्पेक्टर बनकर आता है। अब वहाँ मांगिया को आदर दिया जाता है। उसकी तस्वीर दीवार से उतर कर पुलिस इंस्पेक्टर की मेज पर आ जाती है।

अक्स का मतलब है परछाई। यह नानी के उसकी नातिन के सम्बन्धों की बहुत प्यारी कहानी है। इस कहानी की पहली ही पंक्ति पाठकों को बांध लेती है-‘सब लोग मुझे ‘प्राब्लम चाइल्ड’ कहते हैं पर मेरा दावा है कि मैं नहीं हूँ ‘प्राब्लम चाइल्ड’, मेरी नानी ‘प्राब्लम नानी’ हैं।’ नानी अपने नातिन से बहुत प्यार करती है। उसके नखरे खुशी-खुशी उठाती है पर बच्ची के माता-पिता इसे अच्छा नहीं मानते। उनके अनुसार यह लाड़ उसे बिगाड़ देगा। नातिन प्रकट में तो एतराज करती है पर मन से चाहती है कि नानी उसकी खूब परवाह करे। आठ साल की नातिन नानी के सामने एक बरस की बच्ची बन जाती है। जब वही नातिन बड़ी होकर माँ बनती है तो वह महसूस करती है-‘माँ बनकर जब मैं इतनी रोका-टोकी कर रही हूँ तो यह बात तो पक्की है नानी बनकर मेरे अंदर की माँ की माँ ‘प्राब्लम नानी’ हो ही जाएगी।’ मतलब नातिन अपनी नानी का ही अक्स बन जाएगी। माँ, बेटी और नानी के आपसी सम्बन्धों और बाल मनोविज्ञान की यह एक मार्मिक कहानी है।

डॉ. हंसा की कहानियों में प्रेम और मानवता की तलाश साफ नजर आती है। प्रेम के अनेक रूप-रंग इन कहानियों में दिखाई देते हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी इन कहानियों में विसंगतियों, विडंबनाओं के चित्रण के साथ इन स्थितियों के लिए हल्का-सा तंज़ भी दृष्टिगोचर होता है । पात्र अपनी मनोग्रंथियों से बखूबी जूझते हैं। उनकी जिजीविषा विस्मित करती है। कहानियों को धैर्यपूर्वक रचा गया है। बोलचाल की मुहावरेदार, सहज-सरल और प्रांजल भाषा पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है। संग्रह में कुल 17 विविधवर्णी कहानियाँ हैं। संग्रह का आमुख आकर्षक है। किस्सागंज पुस्तक श्रृंखला के भाग-1 के प्रतिभागियों में से चयनित विजेता डॉ. हंसा दीप का यह संग्रह पठनीय है।

किताब : शत प्रतिशत (कहानी संग्रह)
लेखिका : डॉ. हंसा दीप
प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन,
गंगापुर सिटी-322201, राजस्थान
मूल्य: 250/-
समीक्षक
गोविंद सेन
193, राधारमण कालोनी,
मनावर-454446, जिला-धार, म.प्र.
मो: 9893010439

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One Comment

  1. Rajendra jain

    Kahani sangrah ki pratyek kahani ka silsilevar satik vivechan bahut badhai sir.

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