साहित्य और समाज

*डॉ. मो. मजीद मिया

साहित्य, संस्कृत के सहित शब्द से बना है । साहित्य की उत्पति को संस्कृत साहित्य के आचार्यों ने “हितेन सह सहित तस्य भवः” की संज्ञा दी हैं जिसका अर्थ है कल्याणकारी भाव । साहित्य में जीवन एवं जगत का कल्याण होना अनिवार्य है क्योंकि इसमें ‘स:हित’ की भावना होती है, जो लोक जीवन के कल्याणकारी भाव का सम्पादन करता है । साहित्य के हर क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ के योग के साथ-साथ लोक कल्याण की भावना का होना आवश्यक है । संस्कृत में सहित शब्द का दो अर्थ होता है, एक स्वभाव एवं दूसरा हितयुक्त अर्थात स्वभाव एवं हित का संतुलित रूप ही साहित्य है । साहित्य शब्द की व्युत्पति ने ही इसे लोगों के साथ जोड़ा है क्योंकि लोक साहित्य में लोक का अर्थ व्यापक एवं विस्तृत होता है । पर हम इसे साधारण अर्थ में समाज कह सकते हैं । यह संसार एक समाज है इसलिए साहित्य हमेशा समाज के हित की कामना करता है । यदि समाज शरीर है तो साहित्य उसकी आत्मा । अगर देखा जाए तो साहित्य मनुष्य के मस्तिष्क से उत्पन्न होता है क्योंकि मनुष्य समाज का अभिन्न अंग है । जन्म से मृत्यु तक मनुष्य समाज से जुड़ा रहता है वह चाह कर भी समाज से अलग नहीं हो सकता है । उसका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा तथा जीवन का निर्वाह समाज द्वारा ही होता है । मनुष्य समाज में रहकर अनेक प्रकार का अनुभव ग्रहण करता है एवं जब वह प्राप्त अनुभव को शब्द द्वारा अभिव्यक्त करता है तो वह साहित्य बन जाता है । और यही अभिव्यक्ति की शक्ति उस व्यक्ति को आगे चलकर साहित्यकार बना देती है । अतः जैसा समाज होता है वैसी ही साहित्यकार की रचना होती है और वैसे ही समाज की झलक उस साहित्य में देखने को मिलती है । साहित्य एवं समाज का संबंध युगों-युगों से देखा गया है दूसरे अर्थ में कहे तो साहित्य एवं समाज एक ही सिक्के के दो पहलू एवं एक दूसरे के पूरक भी हैं । साहित्य का सृजन समाज के लिए एवं समाज द्वारा ही होता है इसीलिए तो कहते हैं, साहित्य समाज का दर्पण है ।

साहित्य का सृजन मानव पटल में होता है क्योंकि यह एक कला है । यह कल्पना द्वारा पूर्ण होता है पर मानव कल्पना जीवन एवं जगत के अनुभव से प्राप्त करता है और वह अनुभव समाज से प्राप्त होता है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है और वह समाज से हर पल नए-नए अनुभव प्राप्त करता है एवं प्रत्येक अनुभवों को कल्पना के माध्यम द्वारा मनुष्य अपने कला को सृजित करता है इसी कारण प्रसिद्ध ग्रीस आचार्य एरिस टोटल ने साहित्य को जीवन एवं जगत का अनुकरण मानते थे । उनके मतानुसार साहित्य, जीवन एवं जगत की नकल है । जीवन एवं जगत में हो रहे घटनाओं को साहित्यकार अपने कला से नकल करता है एवं फिर से उसी समाज को लौटा देता है । साहित्यकार जिस समाज एवं वातावरण में रहते हैं उस समाज एवं वातावरण की सभी स्थितियाँ उसे हमेशा प्रभावित करती रहती हैं । साहित्यकार अपने रचना के जरिए जो भी समाज को देना चाहता है उसे वह बड़ी ही चतुराई से प्रस्तुत करता है एवं समाज के प्रत्येक सुख-दुख एवं समस्याओं का चित्र समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है । समाज का उत्थान-पतन, समाज की रीति-रिवाज, आस्था एवं संस्कृति स्पष्ट रूप से साहित्य में अपना प्रभाव डालता रहता है । साहित्य भी समाज के परिवर्तित स्वरूप के साथ बदलता रहता है । आधुनिक संदर्भ में भी साहित्य एवं समाज में परस्पर संबंध है । दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं । समाज में हो रही विसंगति एवं विकृति, प्रगति, उपलब्धि, अभाव, विषमता, समानता, सौंदर्यता, प्रेम, स्नेह, मातृत्व, देशप्रेम, विश्व बंधुत्व जैसे विविध पक्षों को साहित्यकार अपने साहित्य में सृजित करते हैं, जो नितांत लोकहित के लिए होता है । जिस प्रकार से समाज का प्रभाव साहित्य के ऊपर पड़ता है वैसे ही साहित्य का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है । क्योंकि कवि अथवा लेखक समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, अतः वे लोग समाज को अपने नवीन विचार प्रदान करते रहते हैं । जब समाज में कोई समस्या आती है, समाजिक जीवन मूल्य का पतन होने लगता है तब साहित्य ही उसे दूर करने में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है । ऐसे समय में साहित्यकार समाज को नया रास्ता दिखाने का काम करता है । साहित्य के द्वारा राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों को देखा जाता है । आज विश्व में धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, अलगाववाद तथा आतंकवाद गंभीर समस्याओं के विनाश के लिए साहित्य प्रयत्नशील है ।

साहित्यकार साहित्य का सृजन अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि समाज के उपयोग के लिए करता है । चाहे वह ऋग्वेदिक रचनाकार हो या वह वेदव्यास का भगवद् गीता हो या फिर बाल्मीकि का रामायण, शेक्सपियर का नाटक या  एरिस्टोटल का काव्यशास्त्र ही हो सभी समाज के उपयोग एवं मार्ग दर्शन के लिए सृजित किए गए थे । हिन्दी साहित्य के  लोककल्याणकारी कवि तुलसीदास ने समाज के कल्याण के लिए रामचरितमानस का सृजन किया यह उनके पहले श्लोक से ही स्पष्ट होता है । उसके बाद तो हिन्दी समाज में आमूल-चूल परिवर्तन आया । तुलसीदास रचित रामचरितमानस पढ़ने के लिए लोगों ने शिक्षार्जन करना शुरू किया, जिसके द्वारा हिन्दी समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ जिससे समाज में नवचेतना का प्रसार हुआ । इसी से यह कथन स्पष्ट होता है कि साहित्य की रचना लोक हित के लिए होती है ।  

साहित्य सृजन के लिए साहित्यकार विषयवस्तु समाज के ही विभिन्न पक्षों से लेता है । चाहे वह ऐतिहासिक, पौराणिक या फिर सामाजिक विषयवस्तु क्यों न हो । इन सभी विषयवस्तु का समाज में ही सृजन होता है और इसी से साहित्यकार अपने दृष्टिकोण द्वारा समाज को उसके मूल्यांकन एवं विश्लेषण करने का अवसर प्रदान करता है । प्राचीनकाल से आज तक साहित्यकार समाज के प्रत्येक परिवर्तनों को देखते आया है इसी से यह प्रमाणित होता है कि साहित्य का सृजन एवं समाज की भूमिका एक दूसरे के पूरक हैं ।

प्रत्येक समाज का अपना अलग रहन-सहन, परंपरा, संस्कृति , संस्कार और इतिहास है पर साहित्य इन सभी बातों को समेटकर प्रत्येक समाज की घटना को दूसरे समाज से आदान-प्रदान करता है । शेक्सपियर के नाटक, बालजाक की कहानी, लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ, मेक्सिम गोर्की के उपन्यास, ओ. हेनरी के कहानी, वर्ल्ड हवितम्यान की  कविताएं, शैली एवं किट्स की कविताएं, जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ, रवीन्द्रनाथ की कविताएं, प्रेमचंद के उपन्यास आदि इन सभी को देखने पर ही साहित्य एवं समाज के बीच का संबंध समझ में आता हैं । यह सभी साहित्य, सृजनाओं के द्वारा समाज के विभिन्न घटनाक्रम को लिखकर अनुभव एवं कल्पना द्वारा सृजन किया गया है । इसप्रकार से मानव सभ्यता के विकास में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका को देखा जा सकता है ।

साहित्य हमेशा मानव को सकारात्मक सोच के साथ-साथ समाज के लिए मनुष्य को कुछ करने की प्रेरणा प्रदान करता है । राष्ट्र-प्रेम की भावना जागृत कराता है और वसुधैव-कुटुम्बकम् की भावना विकसित कराता है । यह संसार मानव समाज का घर है और इसमें मानव समाज को किस प्रकार की भूमिका निर्वाह करने पर समाज का कल्याण होगा यही सीख देना साहित्य का काम है । अपने साहित्य सृजन में विषय-वस्तु के अतिरिक्त पात्रों को भी लेखक समाज से ही चुनता है । समाज से लिया गया पात्र किसी विशेष समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ कतिपय पात्र विश्वजनित बन जाता है, जो समाज को कुछ न कुछ संदेश दे रहा होता है । किसी भी समाज को निकट से पहचानने का जरिया ही साहित्य है । प्राचीन भारत के वैभवपूर्ण संस्कृति को वेद, पुराण, रामायण, महाभारत जैसे साहित्यक रचना ने ही पहचान दी है, तो ग्रीस के सभ्यता को ओडिसी एवं इलियट जैसे ग्रन्थों ने पहचान देने का काम किया है । समाज एवं साहित्य मानव सभ्यता के वह पक्ष हैं जो एक दूसरे के बिना पूरे नहीं हो सकते । अतः कोई एक पक्ष कमजोर होने पर उस समाज के उत्थान एवं प्रगति के क्रम में बाधा आ सकती है ।

डॉ. मजीद मिया, (सहायक अध्यापक) यस एम् यस एन, हिंदी हाई स्कूल, ग्राम.+पोस्ट बागडोगरा, जिला दार्जिलिंग (प.ब.) -734014, मोब.-9733153487 मेल- Khan.mazid13@yahoo.com

ईशावास्य : रामचरित मानस का आधार दर्शन

*प्रभुदयाल मिश्र

तुलसीकृत रामचरित मानस सगुण राम के चरित-गायन ग्रन्थ के रूप में जगत प्रसिद्ध है । इसके दार्शनिक आधारों की खोज करते हुए इसे विशिष्टाद्वैत परक रचना माना जाता है । किन्तु हम तुलसी के इस प्रतिज्ञा कथन को संभवतः कैसे भी विस्मृत नहीं कर सकते कि रामायण ‘नानापुराण निगमागम सम्मतम्’ है । अर्थात् मानस वेद-मत पर आधारित है । किन्तु वैदिक साहित्य तो अपार है अतः स्वभाविक रूप से हमें वेद के सार स्वरूप की पहचान करनी आवश्यक है । इसके लिए यजुर्वेद का अंतिम चालीसवां अध्याय (जो यथावत् ईशावास्योपनिषद् है) का आश्रय लेना सर्वथा उचित है । वस्तुतः इसके १८ मंत्र भारतीय मनीषा और वैदिक दर्शन के सार सर्वस्व हैं । हम यहाँ इन मन्त्रों के संकेत का आधार लेकर रामचरित मानस के सन्देश की विश्वजनीनता पर विचार कर रहे हैं ।

ईशावास्य का पहला मंत्र है –

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किन्च्जगत्यां जगत्

तेन त्यक्तेन भुन्जीथः मा गृधः कस्यस्वित्धनम् ।

इस मंत्र के प्रथम भाग में ईश्वर की सर्वव्यापकता की उद्घोषणा है । संसार का प्रत्येक चेतन-अचेतन जीव अथवा पदार्थ ईश्वर से आच्छादित, आवेष्ठित है । यह दृष्टि संसार में भेद के स्थान पर सम्पूर्ण अभेदता की पोषक है । इसे गीता में कृष्ण ने यह कहते हुए और अधिक स्पष्ट किया है कि ‘मुझ एक धागे में सम्पूर्ण संसार मणि रूप में’ ( मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मनिगणा इव ७/७ ) पिरोया हुआ है । गोस्वामी तुलसीदास ने इस सूत्र को मानस के वंदना-प्रसंग में सभी को – सज्जन और असज्जन सहित, पूरी तरह से प्रणाम करते हुए स्वीकार किया है-

सीय राममय सब जग जानी , करउं प्रनाम जोरि जुग पानी (बाल. ७ घ २ )

सनातन भारतीय दर्शन ईश्वर को दूरदेशीय नहीं मानता । वह सृष्टि का कारण और निमित्त दोनों तो है ही, सदा कार्य रूप में भी विद्यमान है । वह कुम्हार ही नहीं, घडा बन जाने वाली मिट्टी और स्वयं घडा भी है । ऐसे ईश्वर की खोज में किसी को भी कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है । अन्यथा एक ईश्वर की खोज तो सदा अपूर्ण ही रही है और अपूर्ण ही रहने वाली है ।

ईश्वर की पहचान में ईश्वर के निर्गुण और सगुण रूप की दो धाराएं सर्व व्यापक हैं । इनके अनुयायी इनमें परस्पर इतनी दूरी भी उत्पन्न करते रहे हैं कि इनका एक व्यवहारिक समन्वय प्रायः सुगम प्रतीत नहीं रहा । यह मानना स्वाभाविक ही है कि ईश्वर अपनी अव्यक्त अवस्था में सर्वशक्तिमान हो सकता है, अतः यदि वह अवतार भी लेता है तो एक सीमा ही स्वीकार करता है तथा इस प्रकार उसका आचरण और कृत्य प्रायः मनुष्यों के ही समान हो जाते हैं जो कभी-कभी आदर्श होकर समालोच्य भी होते हैं ।

भारतीय द्रष्टा ऋषियों ने इस सत्य को निकट से पहचाना है । राम और कृष्ण के पूर्ण अवतार का निदर्शन कराने वाले वाल्मीकि और व्यास अपनी रामायण और भागवत में इन दार्शनिक प्रश्नों का समाधान खोजते हैं । श्रीमद्भागवत के पहले ही श्लोक में भगवान वेदव्यास उस ‘परम सत्य’ ( सर्वशक्तिमान अव्यक्त ईश्वर द्वारा सृष्टि संरचना प्रक्रिया का उपक्रम) के सगुण अनुसंधान (सत्यं परम धीमहि) का प्रतिज्ञा कथन करते हैं – जिससे इस संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय है, जिसके सम्बन्ध में विद्वान् दिग्भ्रमित होते हैं किन्तु वह स्वयं ज्ञान से प्रकाशित रहता है । श्रीकृष्ण के ब्रज में विहार, मथुरा में युद्ध, द्वारिका में विवाह और कुरुक्षेत्र में युद्ध दीक्षा के चरित्र की वेदान्त की जिस भूमिका में व्यासजी प्रतिष्ठा करते हैं ठीक वही स्थापना गोस्वामी तुलसीदास की भी रामकथा की पृष्ठभूमि में है-

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा

यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः

यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तीर्षावताम्

वंदेऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ।  बाल. ६

यहाँ इतना कहना पर्याप्त है कि रामचरित मानस की सरंचना के दार्शनिक पक्ष की निष्पत्ति में तुलसी वेदव्यास की श्रीमद्भागवत के अधिक निकट हैं जबकि महाकाव्य के विधान रूप में इसमें उन्होंने वाल्मीकि की रामायण से प्रेरणा ली है । और चूंकि दर्शन की यह सनातन परम्परा वेदान्त परक है अतः इसमें ईशावास्य के आधार दर्शन का समावेश प्रचुरता से हुआ है ।

हम अब ईशावास्य के पहले मंत्र के दूसरे भाग पर आते हैं । इसमें कहा गया है कि ‘सभी वस्तुओं को परमात्मा को अर्पित करने के बाद ही उनका उपभोग उचित है । ‘लोभ कदापि वांछनीय नहीं, भला, यह धन यहाँ किसका है !’ इस सूत्र में मनुष्य के लिए आवश्यक यज्ञ, त्याग, अपरिग्रह, समर्पण, निष्कामता, निर्लोभ, समता, निर्भेदता और समभाव आदि सभी वांछनीय गुण समाविष्ट हैं । गीता में श्री कृष्ण ने ऐसे एक कर्मयोगी राजा जनक का उदाहरण दिया जिन्हें संसिद्धि प्राप्त हुई । जब हम मानस के कथानक पर दृष्टिपात करते हैं तो इसमें एक चरित्र राजा प्रतापभानु ऐसा है जिसके बारे में तुलसी ने लिखा-

हृदय न कछु फल अनुसंधाना, भूप बिबेकी परम सुजाना

करइ जे धरम करम मन बानी, बासुदेव अर्पित नृप ज्ञानी ।  बाल. १५५/१

यह अपने आप में कितना बड़ा आश्चर्य है कि इस ‘कर्मयोगी’ राजा को अन्ततः रावण बनना पड़ता है । इसका क्या कारण है ? इसका उत्तर उपनिषद के इस दूसरे चरण में मिल जाता है । इस राजा ने लोभ का परित्याग नहीं किया और उसमें एक अत्यंत प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हो गयी –

ज़रा मरन दुःख रहित तनु समर जिते जनि कोउ

एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ । (बाल १६४)

उपनिषद् के लोभ परित्याग के सन्देश का इससे महत्तर विस्तार अन्यत्र देखा जाना कठिन है । त्याग की इतनी महत्ता प्रतिपादित कर ईशावास्य के दूसरे मंत्र का सन्देश यही कि वास्तव में यह दर्शन ‘कर्म’ का है, त्याग का नहीं, सही कर्म की इससे भिन्न स्थिति नहीं है । मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण १०० वर्ष की इच्छित आयु इसी रीति से व्यतीत करनी है । इससे भिन्न तो केवल अंध तमस का लोक ही है जहां ‘आत्म-घाती’ लोग पहुंचा करते हैं !

रामचरित मानस में जैसे विभीषण और रावण के व्यक्तित्व इन दो धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, विभीषण को भगवान अंत में यही आदेश देते है- ‘करेहु कल्प भर राजु तुम्ह, मोहि सुमिरेहु मन माहिं (उत्.११६ घ) जबकि रावण की जीवन शैली का निदर्शन वे इन शब्दों में करते हैं- ‘कहुं महिष मानुस धेनु खर अज खल निशाचर भक्षहीँ(सुन्द.२/३ )

ईशावास्य के ४ से लेकर ८ तक के पांच मंत्र ईश्वर की ‘निखिल धर्म विरुद्ध आश्रयी’ विशेषताओं का निरूपण करते हैं । इसके अनुसार ईश्वर देवताओं और मन से भी तीव्रतर गतिशील, भीतर और बाहर समान रूप से समुपस्थित, अकाय, शुद्ध, कवि, मनीषी, परिभू और स्वयम्भू है । उसे इस रूप में देखने वाले मैं और तू जैसा भेद नहीं रखते । अतः उनके लिए जीवन में किसी प्रकार का शोक या मोह उत्पन्न नहीं होता । मानस में तुलसी ने ईश्वर की इन विशेषताओं का अनेकशः वर्णन किया है । वह –‘बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना, कर बिनु करम करइ विधि नाना’ ( बाल. ११७ ३-४) है तथा उसे इस रूप में देखने वाले यही जानते हैं कि – ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत’ ( किष्कि. ३)

ईशावास्य में आगे विद्या और अविद्या तथा सम्भूति और असम्भूति की त्रयी बहुत गहन अध्यात्म दर्शन का निदर्शन करती हैं । वेद के ऋषि का इसमें यह कथन है कि अविद्या के उपासक अंध तमस में प्रवेश करते हैं किन्तु विद्या में रत कहीं अधिक गहरे तमस में भटक जाते हैं । इसी तरह असम्भूति के उपासक भी जहां अंध तम में रहते हैं वहीं संभूति में रत और गहरे अन्धकार में भटकते हैं । अतः ऋषि का परामर्श यहाँ यह है कि इन दोनों स्थितियों की जब व्यक्ति को ठीक समझ हो जाती है तो वह अविद्या/असम्भूति से मृत्यु पर विजय प्राप्त कर विद्या/सम्भूति के द्वारा अमृतत्व में प्रतिष्ठित होता है ।

वैदिक दर्शन के व्याख्याकारों ने इन सिद्धांतों की विस्तृत और गहन व्याख्या की है । सामान्यतया इन्हें भौतिक और अध्यात्म तथा व्यक्त और अव्यक्त धाराओं का प्रतीकार्थी कहा जा सकता है । तुलसी ने भी सृष्टि संरचना में प्रधान ईश्वरीय सामर्थ्य ‘माया’ को ‘विद्या अपर अविद्या दोऊ’ (बाल १४/२) भेद वाला माना है । संक्षेपतः यहाँ यह कहना भी आवश्यक है कि उपनिषद् में ‘विद्या’ और ‘सम्भूति’ के लिए ‘रत’ विशेषण प्रयुक्त है । इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञान के प्रति आसक्ति होने पर वह भी बंधनकारी ही होता है । तुलसीदास जी जैसे सार रूप में समझा देते हैं-

ज्ञान मान जहं एकउ नाहीं, देख ब्रह्म समान जग माहीं (आर. १४/४)

औपनिषदिक शब्दावली में ही तुलसी ‘ज्ञान पथ’ की तुलना कृपाण की धार (उत.११८/१) से करते हैं । अर्थात ज्ञान के मार्ग में भटकने के पूरे अवसर हैं । किन्तु जब ईश्वर की सर्वव्यापकता किसी की अनुभूति बन जाती है तो यहीं मृत्यु से संतरण के बाद उसकी अमृत में प्रतिष्ठा होती है ।

उपनिषद् का मंत्र १५ अन्यथा भी बहुत ख्यात है । इसके अनुसार सत्य का मुख स्वर्ण के ढक्कन में छुपा हुआ है । अतः ऋषि सूर्य से प्रर्थना करता है कि वह सत्य और धर्म के जिज्ञासु को उसे देखने के लिए खोलें । अगले मंत्र सोलह में पुनः सूर्य से अपने रश्मि जाल को समेट लेने की प्रार्थना की गयी है जिससे अंततः वह (ऋषि) यह समझ सके कि जो परमात्मा उसमें है वह स्वयं भी वही है ।

वेद और लोक में संसिद्ध और प्रसिद्ध गायत्री मंत्र (ऋग्वेद ३/६२/१०) में सविता देव से भी ऋषि की प्रार्थना अपनी बुद्धि को स्वयं प्रकाश की ओर ले जाने की है । मानस के उत्तरकाण्ड में आत्मसाक्षात्कार की इस अवस्था को तुलसीदासजी ने इस प्रकार प्रकट किया है-

सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा,   दीपसिखा सोइ परम प्रचंडा

आतम अनुभव सुख सो सुप्रकासातब भव मूल भेद भ्रम नासा । (उत्त. /११७/१)

उपनिषद् का मंत्र क्रमांक १७ पञ्चतत्वों से निर्मित नश्वर देह के नाश के अवसर पर कर्तव्य कर्म का स्मरण कराता है । गीता के आठवें अध्याय में भी अर्जुन श्री कृष्ण से देहांतरण की साधना प्रदान करने का अनुरोध करते हैं । वेद के द्रष्टा ऋषि के द्वारा ऐसे प्रस्थान कामी को ‘क्रतो’ और ‘कृतं’ के स्मरण का निर्देश किया गया है । कुछ भाष्यकारों के अनुसार इसमें ईश्वर की कृपा और अपने कर्मों के स्मरण का सन्देश है । जिस तरह गीता मृत्युकामी को भगवान के ‘अनुस्मरण’ का परामर्श देती है, रामायण के अनुसार बाली अपनी मृत्यु शैया पर इस सम्पूर्ण दर्शन को बड़ी कुशलता से प्रकट करता है-

जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं, अंत राम कहि आवत नाहीं

मम लोचन गोचर सोइ आवा (कि. ९/३)

ईशावास्योपनिषद् का अंतिम अठारहवां मंत्र अग्नि को समर्पित है । सब जानते हैं कि अग्नि वेद के प्रधान देवता हैं । ऋग्वेद में जहां इन्द्र के सम्बन्ध में सर्वाधिक लगभग २५० सूक्त हैं वहीं दूसरे क्रम में अग्नि के सूक्तों की संख्या लगभग २०० है । अग्नि अपनी प्रखरता में किसी वक्रता या प्रच्छन्नता को स्वीकार नहीं करता । वास्तविक समर्पण और स्वीकार की क्रिया की दीक्षा अग्नि ही देता है । अतः इस मंत्र में ऋषि अग्नि से प्रार्थना करता है कि ‘हे अग्नि हमें सन्मार्ग पर ऊपर ले चलो, तुम्हें सभी कुछ ज्ञात है, हमारे कुटिल कर्मों का दहन कर दो, हां बार-बार यहाँ यही प्रार्थना कर रहे हैं ।’ मानस के सन्दर्भ में हम यहाँ सीता की अग्नि-परीक्षा का स्मरण करना चाहते हैं । रावण विजय के पश्चात् राम जब सीता को इस आशय का संकेत देते हैं, तो-

लछमन होउ धरम के नेगी    पावक प्रकट करहु तुम वेगी ।  (६/१०८/१)

श्रीखंड सम पावक प्रबेश कियो सुमिर प्रभु  मैथिली ।  (६/१०८/१ (छंद)

इस प्रकार विचार करते हुए यही प्रतीत होता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में ईशावास्योपनिषद् का न कवल सम्पूर्ण दार्शनिक आधार ग्रहण किया है अपितु उन्होंने अपने इतिवृत्त में भी उन सूत्रों को सहेजते हुए उन्हें व्यवहारिक और वैश्विक आधार प्रदान किया है ।

संपर्क : ३५, ईडन गार्डन, चुनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल, १६