परिवर्तन : साहित्य, संस्कृति और सिनेमा की वैचारिकी
ISSN 2455-5169
वर्ष 1 अंक 2 अप्रैल-जून 2016
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मैं स्त्री हूँ
मै स्त्री हूँ
अदभुत, अदुन्द, अपरिहार्य
प्रेम और स्नेह से पल में,
बंधने वाली
पिता-भाई,पति-पुत्र,के नियमो में
चलने वाली
मै स्त्री हूँ
मैंने सदैव स्त्री धर्म निभाया है
मृत शय्या पर पति की
होम होते स्त्री को ही पाया है
पुरुष जो कहता है, वो दाता है
नारी के बिना उसका वंश नहीं चल पाता है
शारीरिक क्षमता की है अगर उसके पास धार
तो मानसिक क्षमता की है मेरे
पास तलवार
मै स्त्री हूँ
ईश्वर ने मुझे अपनी कल्पनाओं से सजाया है
सहनशक्ति मेरी कमजोरी नहीं
त्याग की प्रतिमूर्ति बना ईश ने
मुझे पृथ्वी पर उतारा है
मै स्त्री हूँ
मै हूँ ममत्व से भरी आंगनवारि
नए अंकुर फूटते मुझमे
खिलती नव्या फुलवारी
फिर भी मुझे हेय दृष्टि से देखा जाता
घिनौनी नजरो से यहाँ – वहाँ
मेरे शरीर को भेदा जाता
दाव लगते ही अस्मत को कुचला जाता
इच्छाओ, भावनाओं को दिन-रात मसला जाता
कभी कोख में मारता, कभी जिन्दा कूड़े के ढेर में फेंकता
कभी कर देता सौदा, कभी दहेज़ का दानव मुझे खा जाता
हर तरफ मेरी सिसकारियो की आवाज है
कहीं चल रही जिस्मफरोशी मेरी,
कहीं खून की बौछार है
मै स्त्री हूँ
सुन ले ओ अधमक !!
तुझे स्त्री की हाय में जलना होगा
स्त्री के बिना तुझे दुनिया में सड़ना होगा
पुरुषत्व की इच्छाओ को
तड़प तड़प के मरना होगा
मै नेत्र हूँ
शिव का तीसरा नेत्र
जिस दिन खुला चारो और
महाप्रलय एवं तांडव होगा
तांडव होगा .
मंजिका
पड़े हैं पाँव में छाले जमीं पे फिर टिकाती है
मुरझाई मन की बगिया मोगरे से सजाती है
बदलता है चेहरा रात में, अक्सर शरीफों का
बुझाने पेट की अग्नि देह चूल्हे चढ़ाती है
जीवन क्षणभंगुर मृत्यु एक दिन सबकी आती है
उजाले में कहाँ, सच्चाई पहचानी जाती है
होती है दरवाजे पर जब धीमी कोई दस्तक
अर्थी तो नहीं उठती बे-मौत मारी जाती है
कहलाते जो सभ्य करते स्याह को हरदम सफ़ेद
लगाते मुखौटे डर से कहीं खुल जाए ना भेद
करती दाह स्वयं का वासना की प्रचंड आग में
समेटकर कलुष सब समाज को गंगा बनाती है
वह एक मंजिका है देह की मंडी सजाती है
हाँ .. वह मंजिका है
पारुल ‘पंखुरी ‘