शत प्रतिशत : प्रेम और मानवता के पक्ष में खड़ी मार्मिक कहानियाँ

समीक्षक : गोविंद सेन

डॉ. हंसा दीप हिन्दी कथा साहित्य की एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। प्रस्तुत संग्रह हंसा जी का तीसरा कहानी संग्रह है। इनके खाते में तीन उपन्यास भी हैं। हंसा जी टोरंटो में निवास करती हैं पर उनका संबंध भारत के मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ के एक छोटे से कस्बे मेघनगर से रहा है। यही कारण है कि इनकी कई कहानियों का परिवेश और पात्र भारतीयता से ओतप्रोत हैं। उस अंचल की छाप इनकी कहानियों में परिलक्षित होती है। हालांकि विदेशी पात्रों और परिवेश की भी कमी नहीं है। कैनेडा में हिन्दी पढ़ाने के कारण उनका हिन्दी के प्रचार-प्रसार से भी सीधा जुड़ाव है। हंसा जी का अनुभव-संसार वास्तविक, व्यापक और विस्तृत है। यह एक देश की परिधि में बंधा हुआ नहीं है।  

शत प्रतिशत कहानी से संग्रह का नामकरण हुआ है। यह कहानी अनुक्रम में भी पहले स्थान पर है। इस कहानी का तीस साल का नायक साशा बचपन की  मनोग्रंथि से ग्रसित है। उसे बचपन में अपने पिता की क्रूरता और हिंसा झेलना पड़ती है। फलस्वरूप उसके मन में प्रबल प्रतिशोध की भावना पनप जाती है। वह अपने तीसवें जन्मदिन पर ट्रक लेकर निकलता है। वह लोगों को रौंद देना चाहता है ताकि उसके भीतर धधकती प्रतिशोध की अग्नि शांत हो सके। पर जब उसके सामने वैसी ही घटना घटती है तो उसका हृदय परिवर्तित हो जाता है। वह दुर्घटनाग्रस्त निरीह लोगों की मदद करने लगता है। शायद उस पर अपनी प्रेमिका लीसा, फ़ौस्टर पेरेंट्स पिता कीथ और माता जोएना के प्रेमपूर्ण व्यवहार का ऐसा प्रभाव पड़ा था कि वह अपनी प्रतिशोध की भावना को भूल ही गया। लेखिका ने साशा के मन में पल-प्रतिपल उठने वाली प्रतिशोध  की भावना के सहारे कुशलता से कहानी को एक सकारात्मक अंजाम तक पहुँचाया है। साशा के मन की जटिल परतों को एक-एक करके  कुशलता से खोला गया है। एक वास्तविक घटना से  प्रेरित होकर किस तरह कहानी गढ़ी जा सकती है, यह कहानी इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस कहानी में टोरंटो में घटी एक ऐसी ही घटना का रचनात्मक उपयोग किया गया है।  

कहानी गरम भुट्टा में वफादार तितरिया के प्रति अधेड़ विधवा भगवती देवी के अतिशय लगाव को कहानी में रेखांकित किया गया है। यहाँ जातिगत भेदभाव के कारण उनके प्रेम को सामाजिक मान्यता संभव नहीं था। लगातार एक द्वंद्व बना रहता है। नौकर होते हुए भी हमउम्र तितरिया भगवती देवी के जीवन का एक अविभाज्य अंग बन गया था। जब तितरिया चला जाता है तो भगवती देवी जिंदा नहीं रह पाती। तितरिया और भगवती देवी के बीच के प्रेम को लेखिका ने बहुत शिद्दत से उकेरा है। तितरिया भील समुदाय का है और उसके साथ उच्चवर्गीय समाज दोयम दर्जे का व्यवहार करता है। भगवती देवी इस असमानता का विरोध करती है। तितरिया को उसका हक दिलाने की कोशिश करती है पर अपनी माँ के तितरिया के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध नहीं कर पाती। भगवती देवी एक संवेदनशील महिला हैं। वह चाहती है कि जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न हो।

प्रेम मनुष्य को बदल देता है। इसके आगे धर्म की ऊंची दीवारें बौनी हो जाती हैं । प्रेम इंसानियत को जगा देता है। प्रेमी अपने प्रिय के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो जाता है। इलायची कुछ ऐसी ही कहानी है। शौकत अली पेशे से कसाई हैं। मांसाहारी हैं। पान बहुत खाते हैं। पहले केवल इलायची ही खाया करते थे। उनका मानना है कि इलायची की खूशबू में हर तरह की बदबू दब जाती है। शौकत अली साठ पार कर चुके हैं। एक दिन धूप का चश्मा पहने एक अधेड़ उम्र की मोहतरमा गाड़ी से उतरती है और शौकत अली को ‘शौकी’ कहकर संबोधित करती है। शौकत अली शुरू में उसे पहचान नहीं पाते। दरअसल वह यही लड़की रजनी थी जो बरसों पहले शौकत अली के घर के सामने रहा करती थी। इसी लड़की को शौकत अली मन ही मन चाहते थे। लड़की का परिवार शाकाहारी था। शौकत अली उनका लिहाज करते हुए पिछले दरवाजे से ग्राहकों को मांस दिया करते थे। रजनी की बिरादरी के बड़े गुरु उस गाँव से निकल रहे थे। वे उस गाँव में  आश्रय लेना चाहते हैं। शौकत अली उनके गुरु को अपने

घर पनाह देने को राजी थे। पर रजनी कहती है कि वे तभी उनके घर ठहरेंगे जब वे गंगाजल से धुलवाकर घर पवित्र कर लें। एक और खास शर्त यह थी कि वे जिंदगी भर गोश्त खाना छोड़ दें । यह शौकत अली के लिए कठिन शर्त थी पर इसे भी वे स्वीकार लेते हैं और एक अघोषित संत का दर्जा पा जाते हैं । इस कहानी को पढ़ते हुए चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’ की याद आती है।

प्रेम एक प्रबल आवेग है जब यह शिखर की ओर उठता है तो उदात्त रूप में प्रकट होता है। उसकी मुस्कान ऐसे ही एक उदात्त प्रेम संबंध की अटपटी कहानी है। बुलबुल अपने पिता की सबसे छोटी, लाड़ली किन्तु दबंग बेटी है। वह लगभग अपने पिता के उम्र के एक आदमी के साथ लीव-इन-रिलेशनशिप में है। वे दोनों पति-पत्नी की तरह रहते हैं। जब पिता बीमार पड़ते हैं तो वह अपने लकवाग्रस्त उस पति को व्हील चेयर पर लेकर पिता के घर आती है। उसके पिता को अपनी बेटी का एक बूढ़े के साथ का यह रिश्ता नागवार लगता है। वह अपनी बेटी को अपना ‘सगा दुश्मन’ मानते हैं। पर बुलबुल बताती है कि उसने प्यार कुछ पाने के लिए कुछ देने के लिए किया है। वह पिता और पति को अपनी बैशाखियाँ मानती है। अंत में उसके पिता अपनी बेटी की खातिर उसके बूढ़े पति को स्वीकार कर लेते हैं।

पन्ने जो पढ़े नहीं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की एक अन्य कहानी है। निम्मी जी अपने पति प्रोफेसर साहब की पसंदीदा छात्रा रश्मि को अपनी बेटी मानती है। वह रश्मि को अपने घर में हर तरह की सुविधा देती है। वह उसे अपने बेटे अंश की बहू बनाने का सपना देखती है। एक रात वह अपने प्रोफेसर पति और रश्मि की रासलीला देख लेती है। यह देखकर वह टूट जाती है। वह गाँव चली जाती है। लौटकर अपने पति के पास नहीं आती। रश्मि छह माह तक प्रोफेसर साहब के साथ रहने के बाद किसी और से शादी कर लेती है। अंत में प्रोफेसर की हृदयाघात से मौत हो जाती है। इस तरह कहानी में रिश्तों के टूटकर बिखर जाने का कसैलापन है।

पूर्ण विराम के पहले की नेरेटर एक महिला शिक्षिक है। वह बस से रोज अपने संस्थान जाती है। महिला ड्राइवर उससे टिकट नहीं लेती है । इस तरह रोज उसके बारह डालर बचते हैं। शिक्षिका के मन में उसके टिकिट न लेने से अनेक आशंकाएँ जन्म लेती हैं। उसे दाल में कुछ काला नजर आता है। पर एक दिन उसकी सभी आशंकाएँ निराधार सिद्ध होती हैं । महिला ड्राइवर यह बताती है कि उन जैसी एक शिक्षक ने उसके जीवन को बदला है। वह होमलेस थी। उस शिक्षक की वजह से ही वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकी है । वह टिकट न लेकर उस महिला शिक्षक के कर्ज को उतारने की कोशिश कर रही है। यह जानकर नेरेटर को अपने सोच पर शर्मिंदगी महसूस होती है।  

प्रोफेसर साहब में एक पोती अपने दादा से अपनी मैम द्वारा दिए गए एक प्रश्न का उत्तर लिखवाना चाहती है। प्रश्न में ‘अधिकार और कर्तव्य का अंतर’ बताना था। इस प्रश्न पर विचार करते हुए प्रोफेसर साहब अपने कालेज पहुँच जाते हैं। उनके कालेज में हर प्राध्यापक और विभाग के अध्यक्ष अपने अधिकार पाने के लिए जितना सजग हैं,  अपने कर्तव्य के प्रति उतने ही लापरवाह। कालेज के प्राध्यापकों की छात्रों को पढ़ाने के प्रति अरुचि को कहानी में बहुत सजीवता उकेरा गया है।  

पाँचवीं दीवार की समता जी सख्त, रौबदार और अनुशासनप्रिय प्राचार्य के रूप में सुप्रसिद्ध है। उनकी लोकप्रिय छवि को देखते हुए उनके स्कूल से रिटायर होने बाद एक राजनीतिक पार्टी उन्हें अपना उम्मीदवार बनाती है पर उन्हें यह नहीं सुहाता। उन्हें लगता है कि उनके भाषण को लोग ध्यान से नहीं सुन रहे हैं। जबकि स्कूल में उन्हें छात्रगण गौर से सुनते थे। वे खुद को दोराहे पर खड़ा पाती हैं पर अंत में जनहित का सोचकर राजनीति की राह चुन लेती है।  

कवच का मुख्य पात्र अनाथ मांगिया है जो दूसरों के काम करके अपना पेट भरता है। वह रात-बिरात इधर-उधर भटकता रहता है। उसका कोई घर नहीं है। एक मुंह बोली दादी जरूर उस पर ममता लुटाती है। पुलिस वाले उसे बार-बार चोरी-चकारी के आरोप में जेल में डाल देते हैं। दूसरों के अपराध उसके माथे पर मड़ देते हैं  । पर मांगिया को इस पर कोई आपत्ति नहीं। वह जेल को अपना ससुराल मानता है। वहाँ उसे दो जून की रोटी मिल जाती है। यह उसके लिए बहुत बड़ी नियामत है। यूं ही भटकते-भटकते एक दिन मांगिया को एक अनाथ और मंदबुद्धि लड़की मिल जाती है। उसके मन के तार उससे जुड़  जाते हैं। वह उसके साथ घर बसाना चाहता है। अब वह चाहता है कि पुलिस उसे तंग न करे। पुलिस के एक बड़े अधिकारी को इस बात का पता चलता है। वे बड़े पुलिस अधिकारी वर्दी में होते हुए भी एक इंसान थे। वे मांगिया को निश्चिंत करते हुए कहते हैं-‘चल जा मांगिया, जी ले अपनी जिंदगी।’ कहानी के अंत में उसी मांगिया का बेटा उसी थाने में पुलिस इंस्पेक्टर बनकर आता है। अब वहाँ मांगिया को आदर दिया जाता है। उसकी तस्वीर दीवार से उतर कर पुलिस इंस्पेक्टर की मेज पर आ जाती है।

अक्स का मतलब है परछाई। यह नानी के उसकी नातिन के सम्बन्धों की बहुत प्यारी कहानी है। इस कहानी की पहली ही पंक्ति पाठकों को बांध लेती है-‘सब लोग मुझे ‘प्राब्लम चाइल्ड’ कहते हैं पर मेरा दावा है कि मैं नहीं हूँ ‘प्राब्लम चाइल्ड’, मेरी नानी ‘प्राब्लम नानी’ हैं।’ नानी अपने नातिन से बहुत प्यार करती है। उसके नखरे खुशी-खुशी उठाती है पर बच्ची के माता-पिता इसे अच्छा नहीं मानते। उनके अनुसार यह लाड़ उसे बिगाड़ देगा। नातिन प्रकट में तो एतराज करती है पर मन से चाहती है कि नानी उसकी खूब परवाह करे। आठ साल की नातिन नानी के सामने एक बरस की बच्ची बन जाती है। जब वही नातिन बड़ी होकर माँ बनती है तो वह महसूस करती है-‘माँ बनकर जब मैं इतनी रोका-टोकी कर रही हूँ तो यह बात तो पक्की है नानी बनकर मेरे अंदर की माँ की माँ ‘प्राब्लम नानी’ हो ही जाएगी।’ मतलब नातिन अपनी नानी का ही अक्स बन जाएगी। माँ, बेटी और नानी के आपसी सम्बन्धों और बाल मनोविज्ञान की यह एक मार्मिक कहानी है।

डॉ. हंसा की कहानियों में प्रेम और मानवता की तलाश साफ नजर आती है। प्रेम के अनेक रूप-रंग इन कहानियों में दिखाई देते हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी इन कहानियों में विसंगतियों, विडंबनाओं के चित्रण के साथ इन स्थितियों के लिए हल्का-सा तंज़ भी दृष्टिगोचर होता है । पात्र अपनी मनोग्रंथियों से बखूबी जूझते हैं। उनकी जिजीविषा विस्मित करती है। कहानियों को धैर्यपूर्वक रचा गया है। बोलचाल की मुहावरेदार, सहज-सरल और प्रांजल भाषा पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है। संग्रह में कुल 17 विविधवर्णी कहानियाँ हैं। संग्रह का आमुख आकर्षक है। किस्सागंज पुस्तक श्रृंखला के भाग-1 के प्रतिभागियों में से चयनित विजेता डॉ. हंसा दीप का यह संग्रह पठनीय है।

किताब : शत प्रतिशत (कहानी संग्रह)
लेखिका : डॉ. हंसा दीप
प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन,
गंगापुर सिटी-322201, राजस्थान
मूल्य: 250/-
समीक्षक
गोविंद सेन
193, राधारमण कालोनी,
मनावर-454446, जिला-धार, म.प्र.
मो: 9893010439

भूमंडलीकरण के संदर्भ में भारत और हिंदी

*सुरजीत सिंह वरवाल

इंद्र मित्रं करुणमग्नि माहुरथो दिव्य:स सुपुर्णो गुरुत्मान,

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यम:मातरिश्वानमाह ।[1]

(अर्थात ईश्वर एक है, सिर्फ नाम के फर्क हैं )

जिस प्रकार से ईश्वर के विभिन्न नाम होते हुए भी उसकी सत्ता, अस्तित्व को मनुष्य अहसास कर सकता है, विश्वास कर सकता हैं ठीक उसी प्रकार से ग्लोबलाइजेशन का दौर भी मनुष्य के हित की दृष्टि को रेखाकिंत करता है । जब कोई नया विचार, समाज में आता है तो उसके दो परिणाम सर्वप्रमुख उभर कर आते है एक पोजिटिव (सकारात्मक ), दूसरा नेगिटिव (नकारात्मक) । भूमंडलीकरण ने जहाँ विभिन्न विचारों को, तर्कों को, संस्कृतियों को, एक दूसरे से जोड़ा तो वहीं दूसरी ओर कुछ खामियाजे भी समाज को भुगतने पड़े । भारत एक प्राचीन सभ्यता, ऋषि- मुनियों का देश रहा है । लोक विश्वास, रीति रिवाज लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर आधारित 21वीं सदी में एक महान शक्ति बनकर सामने आ रहा है । भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में, विश्व का सबसे तेजी से प्रगति करने वाला मुक्त बाजार का लोकतान्त्रिक देश है ।

संप्रति, राजनीति, अर्थनीति समाज व् संस्कृति को गहरे रूप से प्रभावित करने वाली भूमंडलीकरण की प्रक्रिया कब आरम्भ हुई, इसे लेकर विद्वानों में कोई मतैक्य नहीं है । विद्वानों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि अतीत में हम पूंजी और श्रम के आवागमन के रूप में भूमंडलीकरण की शुरुआत देख सकते हैं, वहीं दूसरा वर्ग यह मानता है कि अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की प्रक्रिया को भूमंडलीकरण की संज्ञा देना इसलिए उचित नहीं होगा, क्योंकि यह समूची प्रक्रिया वैश्विक नहीं थी, बल्कि यह कुछ सीमित राष्ट्रों के मध्य स्थापित संबंध था । उनकी एक दलील यह भी है कि इसमें एशिया व अफ्रीका के ज्यादातर राष्ट्रों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं था । बहरहाल, 1870 से 1914 के मध्य को उन्मुक्त बाजार या ‘अबाध वाणिज्य’ के युग की तरह परिभाषित किया जाना सुविधाजनक प्रतीत होता है, क्योंकि इस दौरान ‘पूंजी और श्रम’ के आवागमन पर कोई विशेष रोक नहीं देखी जा सकती हैं, इसी प्रकार व्यापार के विस्तार के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था के एकीकरण की प्रक्रिया देखी जा सकती है । इस प्रक्रिया को यातायात व संचार जैसे रेलवे, तार व वाष्प इंजन के प्रयोगों से साहयता मिली ।”[2]

हस्र्ट एवं  थांपसन जैसे अर्थशास्त्रियों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि आज की तुलना में वर्ष 1913 के आस-पास भूमंडलीकरण की प्रवृतियां कहीं ज्यादा दृष्टिगोचर होती है । इस संबंध में दोनों विद्वानों ने बड़े रोचक ढंग से आकड़े भी प्रस्तुत किए हैं । वे दलील देते हैं कि महत्वपूर्ण आर्थिक शक्तियों के राष्ट्रीय जीडीपी के पूंजी- निर्गम का प्रतिशत भी 1905-14, 1965-75 और 1982-86 में क्रमशः 6.61, 1.17 व 1.10  प्रतिशत देखा जा सकता है ।”[3] इस धारणा को पाल क्रुगमैन और रॉबर्ट गिलीपिन ने भी स्वीकार किया है और इसके पक्ष में दमदार आकड़े भी प्रस्तुत किए हैं । यही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग प्रथम विश्व-युद्ध  के काल को अन्तराष्ट्रीय एकीकरण के युग का स्वर्ण काल कहने से भी नहीं चूकता । प्रथम विश्व- युद्ध से भूमंडलीकरण के इस सिलसिले से खासा परिवर्तन दिखाई देता है । भूमंडलीकरण के स्थान पर राष्ट्रों की सरहदों ने ‘पूंजी और श्रम’ के बेरोकटोक आवागमन को मुश्किल बना दिया ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को चुना जिसके अंतर्गत सरकार ने विकास का मार्ग अपनाया । इसके कई बड़े उद्योग स्थापित किए और धीरे- धीरे निजी क्षेत्र को विकसित होने दिया । बरसों तक भारत अपने निर्धारित लक्ष्य पाने में सक्षम नहीं हो सका । कल्याणकारी कार्यों के लिए भारत  अन्य देशों से ऋण लेने की विश्वसनीयता खो बैठा । कई अन्य समस्याओं जैसे- ‘बढ़ती कीमतें, पर्याप्त पूंजी की कमी, धीमी विकास गति और प्रौद्योगिकी के पिछड़ेपन’ ने संकट को बढ़ा दिया । सरकारी खर्च आय से कही अधिक हो गया । इसने भारत को भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करने तथा दो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सुझाव के अनुसार अपने बाजार खोलने को विवश किया । सरकार द्वारा अपनाई गई रणनीति को नई आर्थिक नीति कहा जाता है । इस नीति के अंतर्गत कई गतिविधियों को, जो सरकारी क्षेत्र द्वारा ही की जाती थी, निजी क्षेत्र के लिए भी खोल दिया गया । निजी क्षेत्र को कई प्रतिबंध से भी मुक्त कर दिया गया । उन्हें उद्योग प्रारम्भ करने तथा व्यापारिक गतिविधिया चलाने के लिए कई प्रकार की रियायतें भी दी गई । देश के बाहर से उद्योगपतियों एवं व्यापारियों को उत्पादन करने तथा अपना माल और सेवाएँ भारत में बेचने के लिए आमंत्रित किया गया । कई विदेशी वस्तुओं को, जिन्हें पहले भारत में बेचनें की अनुमति नहीं थी, अब अनुमति दी जा रही है ।

भारत में भूमंडलीकरण के अंतर्गत विगत एक दशक में कई विदेशी कंपनियों द्वारा मोटरगाड़ियों, सूचना प्रौद्योगिकी,इलैक्ट्रोनिक्स, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के क्षेत्र में उत्पादन इकाईयां लगाई गई हैं । इससे भी बढ़कर कई उपभोक्ता वस्तुओं विशेषत: इलोक्ट्रोनिक्स उद्योग में जैसे रेडियों, टेलीविजन और अन्य घरेलू उपकरणों की कीमतें घटी हैं । दूरसंचार क्षेत्र ने असाधारण प्रगति की है । अतीत में जहाँ हम टेलीविजन पर एक या दो चैनल देख पाते थे, उसके स्थान पर अब हम अनेक चैनल देख सकते हैं । हमारे यहाँ सेल्युलर फोन प्रयोग करने वालों की संख्या लगभग दो करोड़ हो गई है, कंप्यूटर और अन्य आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग खूब बढ़ा है । जब विकासशील देशों को व्यापार के लिए विकसित देशों से सौदेबाजी करनी होती है तो भारत एक नेता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । एक क्षेत्र जिसमें भूमंडलीकरण भारत के लिए उपयोगी नहीं है वह है- रोजगार पैदा करना । यद्धपि इसने कुछ अत्यधिक कुशल कारीगरों को अधिक कमाई के अवसर प्रदान किए परन्तु भूमंडलीकरण का लाभ मिलना शेष है । भारत के अनेक भू-भागों को विश्व के अन्य भागों में उपलब्ध भिन्न प्रकार की प्रौद्योगिकी का कुशल से प्रयोग कर सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़  बनाने की आवश्यकता है । विकसित देशों में खेती के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों को अपनाने के लिए भारतीय कृषको को शिक्षित करना है । यहाँ अस्पतालों को अधिक आधुनिक उपकरणों की आवश्यकता है । भूमंडलीकरण द्वारा अभी भारत के लाखों घरों में सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध करवानी है ।

“भूमंडलीकरण की बात शुरू की जाए तो सबसे पहले हम भाषा का ही सवाल ले- अंग्रेजी और भारतीय भाषओं के अंतर्सबंध; जब मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत की थी, तब भूमंडलीकरण का सवाल नहीं था । अंग्रेजी सत्ता हमें विश्व नागरिक बनाने के लिए अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही थी । उपनिवेशवादी दौर में उन्हें अपने लिए अंग्रेजी पढ़े- लिखे कार्टून चाहिए थे । इंगलिस्तासन  के विधि-विधान और कानून को देश में लागू करने के लिए न्यायाधीश और वकील चाहिए थे । भारत में वकीलों का तबका ही पहला अंग्रेजी पढ़ा- लिखा तबका था । तब की अंग्रेजी शिक्षा और आज की अंग्रेजी शिक्षा में अंतर है । आज भारत की अंग्रेजी हमे अपने ही देश में व्यक्तिहीन बनाती है और साथ ही हमें विश्वबाजार में विश्व- नागरिक बनाती है । भूमंडलीकरण की स्पर्धा में यह हमारी सहायक भी है । लेकिन भूमंडलीकरण से अलग जब राष्ट्रीयकरण का सवाल आता है तो अंग्रेजी के कारण हमारा सम्पर्क और सम्बन्ध अपने ही देश के दलित, शोषित और अशिक्षित वर्ग से टूट जाता है, इतना ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में हमारी सोच का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होता है । भूमंडलीकरण लगातार हमारी संस्कृति को विकृत करता जा रहा है । हमारे सदियों पुराने मानवीय सरोकारों और संस्कारों को तोड़ता जा रहा है । भूमंडलीकरण के साथ आई है, स्पर्धा, मुनाफे की संस्कृति और मानवाधिकारों को मसलना ।

भारत में भूमंडलीकरण का जो भूचाल आया है, वह कल्याणकारी पूंजीवाद तो नहीं है ।  पर मुमकिन है कि विकसित पूंजीवादी देशों में वह कोई कल्याणकारी शक्ल रखता हो, पर विकासशील देशों में वह शोषक की शक्ल में ही आया है । वह कल्याणकारी नहीं विनाशकारी है भूमंडलीकरण की छतरी के नीचे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जो हमला आज हो रहा है, वह केवल हमारी अर्थव्यवस्था पर नहीं है । इसे समझना जरूरी है यह हमला प्रगतिगामी जीवंत भारतीय संस्कृति, परम्परा, जीवन- शैली पर ही नहीं, बल्कि वैचारिक संघर्ष से जैसे- तैसे विकसित होते हुए लोकतान्त्रिक मूल्यों पर भी है । भारत ने जो लोकतान्त्रिक संविधान बनाया है, उसके अंतर्गत बनने वाली सरकारों का स्वरूप ट्रस्टी का है । वे सरकारें जनता की परिवर्तनकामी, न्यायपूर्ण समाज रचना के मिशन को लेकर सत्ता संभालती है ।

बाजारवाद का जीवन दर्शन है – निर्लज्ज उपभोक्तावाद, इसके लिए वह आज के तीव्रगामी सूचनातंत्र का सहारा लेता है । वह दस सेकण्ड में यह बताता है कि कोई वाशिंग मशीन आपके लिए कितनी उपयोगी है और यही अनकहे तरीके से वह हमारी समाज-रचना के उस धागे को तोड़ देता है जो हमारे समाज में हमे परस्पर पूरक बनाता हैं अपने एक समकालीन अग्रज समाजशास्त्री सिद्धराज जी ढड्ढा के हवाले से कहूँ तो ‘वाशिंग मशीन के बारे में सोचते ही हमारा रिश्ता घर के धोबी से टूटने लगता है’ इसी तरह उपभोक्तावादी संस्कृति में नई चीजों की भूख पैदा की जाती है, फिर चाहे वे चीजें जीवन के लिए जरूरी हो या न हों । व्यापार का पुराना नियम था- मांग के अनुसार पूर्ति, वैश्विक बाजारवाद ने यह नियम एकदम सही दिया है । अब पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली अपना उत्पादन इस नजरिए से करती है कि किस चीज को बनाकर अधिकतम मुनाफा बटोरा जा सके । फिर वह उद्योगपति अपने प्रोडक्ट की मांग पैदा करता हैं । जरूरत न हो तो भी मध्यवर्ग उस प्रोडक्ट को खरीदने लगता है । फिर उसे लगने लगता है कि वह प्रोडक्ट उसके कुलीन व्यक्तित्व का जरूरी हिस्सा बन गया है ।

समाजशास्त्री सिद्धराज ढड्ढा के शब्दों में “ऐसे में हमे उपभोक्ता उत्पादनों का ग्लोबलाइजेशन नहीं, बल्कि स्वदेशी उत्पादनों का (लोकलाइजेशन) स्थानीकरण चाहिए” ।[4] हाँ ग्लोबलाइजेशन का हम स्वागत करते हैं, यदि विचार, सूचना विज्ञान के क्षेत्र में हो । क्षमा, करुणा, दया, अहिंसा, संवेदना, मैत्री और शांति के पक्ष में हो । वह कोम्पीटीटिव न होकर पूरक (कोम्प्लीमैट्रि) हो । लेकिन हो उल्टा रहा है । स्वर्ग का सपना देखते-देखते हम नरक में पहुँच गए हैं  । भारत दुनियाभर के उत्पादन निर्माताओं के लिए एक बड़ा खरीददार और उपभोक्ता बाजार है । बेशक, हमारे पास भी काफी उत्पादन हैं और हम भी उन्हें बदले में दुनियाभर के बाजार में उतार रहे हैं, क्योंकि बाजार केवल खरीदने की ही नहीं, बेंचने की भी जगह होती है । इस क्रय-विक्रय की अंतर्राष्ट्रीय मेले में संचार माध्यमों का केन्द्रीय महत्त्व है, वे किसी भी उत्पादन को खरीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं । यह उत्पाद वस्तु से लेकर विचार तक कुछ भी हो सकता है । यही कारण है कि आज भूमंडलीकरण की भाषा का प्रसार हो रहा है, तथा मातृ-बोलियाँ सिकुड़ और मर रही है ।

आज के भाषा संकट को इस रूप में देखा जा रहा है कि भारतीय भाषाओं के समक्ष उच्चारित रूप भर बनकर रह जाने का खतरा उपस्थित है क्योंकि सम्प्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण उत्तरआधुनिकता माध्यम टी.वी अपने विज्ञापनों से लेकर करोड़पति बनाने वाले अतिशय लोकप्रिय कार्यक्रमों तक में हिंदी बोलता भर है, लिखता अंग्रेजी में ही है । इसके बावजूद यह सच है कि इसी माध्यम के सहारे हिंदी अखिल भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विस्तार के नए आयाम छू रही है । विज्ञापनों की भाषा और प्रोमोशन वीडियो की भाषा के रूप में सामने आने वाली हिंदी शुद्धतावादियों को भले ही न पच रही हो, युवा वर्ग ने उसे देश भर में अपने सक्रिय भाषा कोष में शामिल कर लिया है । इसे हिंदी के संदर्भ में संचार माध्यम की बड़ी देन कहा जा सकता है ।

समाज के दर्पण के रूप में साहित्य भी तो संचार माध्यम ही है, जो सूचनाओं का व्यापक सम्प्रेषण करता है । साहित्य की तुलना में संचार माध्यमों का ताना- बाना अधिक जटिल और व्यापक है क्योंकि वे तुरंत और दूरगामी असर करते हैं । भूमंडलीकरण ने उन्हें अनेक चैनल ही उपलब्ध नहीं करवाए है, बल्कि इंटरनेट और वेबसाइट के रूप में अंतर्राष्ट्रीयता के नए अस्त्र- शस्त्र भी मुहैया करवाए हैं । हिंदी भाषा के सामर्थ्य में वृद्धि हुई है । संचार माध्यम यदि आज के आदमी को पूरी दुनिया से जोड़ते हैं तो वे ऐसी भाषा के माध्यम से ही करते हैं । अत: संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है । साहित्य लेखन की भाषा आज भी संस्कृतनिष्ठ बनी हुई है तो दूसरी तरफ संचार माध्यम की भाषा ने जन भाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की हुई है । समाचार विश्लेषण तक में कोडमिश्रित हिंदी का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है ।

हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है । इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ दिखाई देता है । ऐसे अवसरों पर हिंदी, व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदाहरण के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है यही प्रवृति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृति है तब तक हिंदी का विकास रूक नहीं सकता । बाजारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्विकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमे पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ । अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है । बाजारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुडी हुई है । यदि इसका माध्यम अंग्रेजी होता तो अंग्रेजियत का प्रचार होता । लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते । इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाजार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं हैं । विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी, अंग्रेजी और अंग्रेजियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुडी हुई है ।

संपर्क :
सुरजीत सिंह वरवाल
(शोधार्थी),  हिंदी- विभाग
डॉ. हरी सिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र.
singh.surjeet886@gmail.com

[1] ऋग्वेद – (1-46-164 ).

[2] भूमंडलीकरण और भारत : परिदृश्य और विकल्प, अमित कुमार सिंह, सामियक प्रकाशन- नई दिल्ली, पृ सं 7-8.

[3] भूमंडलीकरण : साहित्य और संस्कृति – श्री कमलेश्वर, 24- सितम्बर-2001, लेख “भूमंडलीकरण, साहित्य और संस्कृति”.

[4] भूमंडलीकरण की चुनौतियां : संचार माध्यम और हिंदी का सन्दर्भ, डॉ ऋषभदेव शर्मा, विक्की बुक्स ट्रस्ट, दिल्ली.

अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता से जुड़े प्रश्‍न

-अखिलेश गुप्ता

मुक्तिबोध ने जब सन्‌ 1962 में ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ मध्यप्रदेश के हाईस्कूल की कक्षाओं के लिए लिखा तब शिक्षा विभाग ने उसे पाठ्यक्रम में शामिल करने की स्वीकृति दे दी । लेकिन इसके बाद संस्कृति के तथाकथित रक्षकों ने मुक्तिबोध और उनकी पुस्तक के खिलाफ आक्रमण और आन्दोलन का एक सुनियोजित अभियान चलाया । भोपाल में मुक्तिबोध के इस पुस्तक की प्रतियाँ ही जला दी गयीं, उत्तेजनापूर्ण भाषण हुए । यह भी कहा गया कि “यह पुस्तक लेखक के विकृत मस्तिष्क की उपज है ।”[1] (वह बात उनको बहुत नागवार गुजरी है : मैनेजर पाण्डेय) वस्तुत: 19 सितंबर 1962 को राजपत्र द्वारा पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया । राजपत्र के अनुसार पुस्तक को ‘भद्रता और नैतिकता के विरुद्ध’ घोषित कर दी गयी । ‘भद्रता और नैतिकता के विरुद्ध’ केवल इसलिए कि उन्होंने संस्कृति को वेद अथवा ईश्वर प्रदत्त न मानकर यह लिखा कि “जीवन जैसा है उससे उसे अधिक अच्छा, सुन्दर, उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरंभ से ही मनुष्य की रही है । यही इच्छा जब सामाजिक स्तर पर रूप ले लेती है तब संस्कृति कहलाती है ।”[2] इसलिए इससे मतलब यही निकाला जा सकता है कि पुस्तक पढ़ने के बाद छात्रों में “भारतीय जीवन के श्रेष्ठतम मूल्यों के प्रति निष्ठा (धार्मिक) के स्थान पर अनास्था ही उत्पन्न होगा ।”[3]

            पुस्तक की प्रतियों को जलते हुए देखकर मुक्तिबोध ने लिखा था कि “मध्यप्रदेश में विवेक चेतना से प्रेरित अभिव्यक्ति के दिन गए । वैज्ञानिक शास्त्रीय दृष्टि की अभिव्यक्ति अब यहाँ अपराध घोषित हुई, हो सकती है आगे भी ।”[4] उस समय छिटपुट लेखों में इसकी निंदा के अलावा और कुछ नहीं किया गया । कहीं कोई प्रतिकार नहीं, एक बहुत बड़ा बौद्धिक वर्ग खामोश रहा, “सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्‌/ चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं;/ उनके खयाल से यह सब गप है/ मात्र किंवदन्त्ती ।”[5] मुक्तिबोध यहाँ भी भविष्यद्रष्टा ही साबित हुए । ‘हो सकती है आगे भी’ की इस शृंखला को हम पेरुमल मुरुगन का उपन्यास ‘मधोरुबगन’ (अर्द्धनारीश्वर) से जोड़कर भी देख सकते हैं जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए भी प्रस्तावित किया जा रहा था । पेंग्विन ने पिछले वर्ष इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद ‘One Part Woman’ नाम से प्रकाशित किया । 2010 में प्रकाशित इस उपन्यास में ‘नियोग प्रथा’ का जिक्र किया गया है जिसे धर्म में मान्यता भी प्राप्त थी (भले ही अब वह अमान्य हो) । इस पर भी प्रतिबन्ध लगाकर प्रतियाँ जला दी गयीं । लेखक के परिवार के सदस्यों को धमकियाँ दी जाने लगी, फोन पर गालियाँ दी गयीं । परिणामस्वरूप मुरुगन को ‘फेसबुक’ पर लिखना पड़ा- “लेखक पेरुमल मुरुगन मर गया है । चूँकि वह ईश्वर नहीं है, इसलिए उसके दुबारा जीवित होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता । और पुनर्जन्म में मेरा विश्वास भी नहीं है । इसलिए अब मैं सिर्फ एक मामूली अध्यापक पी मुरुगन की तरह जिंदा हूँ । मुझे अपने हाल पर छोड़ दिया जाए !”[6] (…वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है!  :जितेन्द्र भाटिया)

            हम देश में वैज्ञानिक चेतना की दरकार को शिद्दत से महसूस तो करते हैं, लेकिन क्या कारण है कि धर्म के क्षेत्र में इसकी घुसपैठ किसी को भी बर्दाश्त ही नहीं हो रहा; जबकि धर्म का काम जीवन को उदात्त, सुंदर और सुखमय बनाना रहा है । धर्म के नाम पर जो प्रक्षेप चल पड़े हैं, क्या उसका निर्मूलन किया जाना उचित नहीं है ! आज भी टोनही के संदेह पर महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है । जादू-टोना, भूत-प्रेत, छुआछूत, अंधविश्‍वास जैसी कुरीतियों का धर्म के नाम पर आज भी बोलबाला है । ऐसे में अंधश्रद्धा को समाज से निर्मूल करने के उद्देश्य से नरेंद्र दाभोलकर जब ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ का गठन कर इस दिशा में सार्थक प्रयास कर रहे होते हैं, तब धर्म पर एकाधिकार समझने वालों के लिए यह क्रान्तिकारी विचार नागवार हो उठता है । जितेन्द्र भाटिया लिखते हैं, “खौफनाक यह है कि जिस समाज में हम जी रहे हैं, वहाँ दिन-दहाड़े एक या दो व्यक्‍ति आराम से मोटरसाइकिल पर आते हैं; प्रतिशोध की आग में एक क्रान्तिकारी विचारक (नरेंद्र दाभोलकर) के माथे में दनादन गोलियाँ दागकर आराम से आगे निकल जाते हैं और हमारी व्यवस्था उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती !”[7] धार्मिक कुरीतियों और अंधविश्‍वासों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले लेखकों की बात नागवार लगने पर उनकी आवाज़ दबाने के लिए लेखकों की हत्या कर देना जब एक ‘ट्रेंड’ बन जाए, तब उससे भयानक स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती है । आजाद भारत में मुक्‍तिबोध के समय तक वैज्ञानिक चेतना की अभिव्यक्ति अपराध घोषित किये जा रहे थे । लेखक गुमनामी के माहौल में जीते थे । लेकिन हत्या नहीं होती थी । अब धर्म के तथाकथित ठेकेदारों को इसकी वैज्ञानिक दृष्‍टि से व्याख्या करने वालों की एकमात्र सजा ‘हत्या’ ही तार्किक लगने लगी है । क्योंकि फिर दूसरा कोई यदि धर्म की वैज्ञानिक व्याख्‍या करता है तब “वे फिर से उन्हीं मोटरसाइकिलों पर सवार होते हैं, उन्हीं खतरनाक पिस्तौलों को अपने हाथ में उठाते हैं और विचारों के किसी और जनक को फिर एक बार उसी अंदाज़ में गोलियों के घाट उतार देते हैं । उस विचार का नाम इस बार कॉमरेड गोविन्द पानसरे होता है लेकिन दृश्य वही होता है- वही मूक दर्शक, वही पुलिसवाले, वही झूठी सहानुभूति जताने वाली मजबूर व्यवस्था, वही मीडिया के सामने अपराधी के यथाशीघ्र पकड़े जाने के थोथे वादे और विचार की हत्या के साथ उगता वही भयावह अहसास कि हत्यारों की मानसिकता अब भी किसी खून के फैलते धब्बे की तरह उन्हीं तमाम लोगों के बीच लगातार पनपकर फल-फूल रही है ।”[8] धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र अब कहने भर को रह गया है । हालत इससे ठीक विपरीत है । बाबरी मस्जिद से लेकर शुरू हुआ हिन्दुत्ववादी एजेंडा वोट बैंक की राजनीति के साथ मिलकर भयानक रूप ले लिया है । वोट बैंक की खातिर पन्थनिरपेक्षता को हाशिए में रखकर हिन्दुओं को मुसलमानों के साथ लड़ा दिया गया । छह दिसंबर 1992 को बाबरी ढाँचा विध्वन्स के बाद छह/सात दिसंबर की रात में ही कारसेवकों ने मलवे पर चबूतरा निर्माण कर रामलला को स्थापित कर दिया था; जो आज तक पुराने टूटे हुए बाँस, बल्ली और तिरपाल के सहारे टिका हुआ है । मजे की बात यह कि राम जन्मभूमि के नाम पर विवाद पैदा करने वाले भाजपाईयों के वारे-न्यारे हो गए । अयोध्या के विधायक तेजनारायण पांडेय पवन का कहना है कि ‘भारतीय जनता पार्टी अयोध्या के नाम पर सत्ता पर काबिज होती है । अयोध्या के विकास से इनका कोई वास्ता नहीं दिखता । रेलवे स्टेशन और धार्मिक स्थलों की उपेक्षा भाजपा की पहचान बनती दिख रही है ।’[9] (एक को टाट दूसरे के ठाठ : त्रियुगनारायण तिवारी) साग-भाजी की तरह केवल पानी देकर उसे बारंबार तोड़कर हिन्दुत्व के मुद्दे से जब मन चाहा तब वोट बैंक की राजनीति की जा रही है । कुँवर नारायण शुरू से ही इस हिन्दुत्व के एजेंडे को लेकर आशंकित रहे हैं :

“इससे बड़ा क्या हो सकता है

हमारा दुर्भाग्य

एक विवादित स्थल में सिमटकर

रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं

योद्धाओं की लंका है,

‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं

चुनाव का डंका है !

हे राम, कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,

कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम

और कहाँ यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ

किसी पुराण-किसी धर्मग्रन्थ में

सकुशल सपत्‍नीक…

अबके जंगल वो जंगल नहीं

जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !”[10] (अयोध्या, 1992)

            शास्त्रों में वर्णित ‘धर्म’ लोक में इतनी जड़ें जमा चुकी है कि उसे व्पापक जन समाज की स्वीकृति भी मिल गई है, यानी तुलसीदास के अनुसार ‘तथै कहिए लोकाचार, वेद कतेव कथै व्यवहार’ । जब शास्त्रमत ही लोकमत का हिस्सा बन जाए तब लोक उस मत की बुराई सहन नहीं कर सकता । भले ही उसमें भारी प्रक्षेप शामिल हो जायें, वह उसी तरह बदस्तूर चलता रहता है । साहित्यकार अथवा बुद्धिजीवियों का यह दायित्व होता है कि समय-समय पर इसका मूल्याँकन करते हुए उसमें निहित प्रक्षेपों को दूर करे, भ्रम अथवा बिगूचन का निराकरण करे । लेकिन तार्किक चेतना की अभिव्यक्‍ति पर स्वतंत्र भारत में मुक्‍तिबोध से शुरू हुआ लगाम लगातार भयावह होता चला जा रहा है । शास्त्र को रचने वाले साहित्यकार ही आज जबकि  शास्त्र को चुनौती देते हुए उसे वर्तमान संदर्भों में व्याख्यायित कर अपभ्रंशों को दूर करने की कोशिश कर रहा होता है तब शास्त्रमत को लोकमत बताने वाले रूढ़िवादी अपने साथ वोट बैंक अथवा जाति, धर्म, संप्रदाय और संस्कृति के नाम पर अपना वर्चस्व बनाने की खातिर समाज में पिछड़े और गरीब तबके के लोगों में विचार-शून्य की स्थितियाँ पैदा कर एक व्यापक जन-समाज को साहित्यकार के विरुद्ध भड़का देते हैं । विचार-शून्य माहौल में व्यापक जन-समाज को भीड़-तंत्र में परिवर्तित होते देर नहीं लगता । नरेन्द्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविन्द पानसरे और कर्नाटक के वयोवृद्ध विद्वान एम एम कलबुर्गी जैसे विचारवान  साहित्यकारों की सिलसिलेवार हत्या के बाद बजरंग दल के नेता भुवित शेट्टी द्वारा इन हत्याओं पर प्रसन्‍नता व्यक्‍त करते हुए कहना कि, “कलबुर्गी तो गए, अब अगला नंबर के एस भगवान (कर्नाटक के एक अन्य विद्वान) का है !”[11] तब ताज्‍जुब नहीं होता । इस संदर्भ में यदि संविधान में वर्णित अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता से जुड़े अनुच्छेद-15 की बात करें तब यह अनुच्छेद भी इन रूढ़िवादी मानसिकता के आगे बौना लगने लगता है । लगता है भारत के विकास की नाव को दुरुस्त करने वाली संविधान पेटिका में रखे हुए पेंचकस और पाने (रिंच) में से पन्द्रह नंबर का पाना (रिंच) मानो जंग लगकर खराब हो चुका हो ।

            भारत में विज्ञान की बदौलत विकास का जो स्वप्‍न देखा गया था उसमें धर्म और सांप्रदायिकता अपनी जड़ें जमा चुकी हैं । पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ के अनुसार, “भारत में विज्ञान ने जनेऊ पहन लिया और चुटिया रख ली है ।”[12] आज फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्‍स-एप इत्यादि अन्य इंटरनेट एप्लीकेशन धर्म और जातिगत विभेद पैदा करने का सशक्त माध्यम बन चुका है । टी.वी. चैनलों एवं अखबारों में नज़र सुरक्षा कवच, हनुमान सिद्धि यंत्र अथवा अल्लाह की बरकत वाली ताबीज बिकना सामान्य बातें बन चुकी हैं । धर्म के स्थान पर विज्ञान के सहारे हम जिस आधुनिकता के प्रवेश की बात करते हैं दरअसल उस विज्ञान में अब पुन: धर्म ने सेंध लगा लिया है । अब अपने-अपने धर्म के वर्चस्व की खातिर जगह-जगह साम्प्रदायिक तनाव फैलता जा रहा है । देश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए दादरी गाँव की घटना इसका ताजातरीन उदाहरण है । वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्‍लेषक गिरिजाशंकर दादरी कांड के संदर्भ में भारत की कानून व्यवस्था की ओर प्रश्नांकित करते हुए लिखते हैं कि, “कानून व्यवस्था का प्रश्न इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि न्यायपूर्ण व्यवस्था कायम करने का यह आधार है । सामान्यजन को सुरक्षा प्रदान करना न्याय की पहली जरूरत है और यदि तंत्र असफल होता है तो छोटे-छोटे दादरी हर दिन होते रहेंगे और समूची व्यवस्था निहित स्वार्थों के हाथों की कठपुतली हो जाएगी ।”[13] यदि कानून व्यवस्था मुट्ठी भर लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाए तो कानून व्यवस्था पर सवाल उठना लाजिमी हो जाता है ।

            जब मुक्तिबोध के पुस्तकों की प्रतियाँ जला दी गईं, तब छिटपुट पत्रिकाओं में विरोध के सिवा और कुछ नहीं किया गया । अब जबकि पी मुरुगन के पुस्तक की प्रतियाँ जला दी गईं, साहित्यकारों के अकाट्‍य तार्किक बातों पर धार्मिक संकीर्णता के कारण सिलसिलेवार ढंग से बौद्धिक विचारों का सामना न कर पाने की स्थिति में हत्या किए जा रहे हैं तब ऐसे डरावने और विचलित करने वाले माहौल में साहित्यकारों ने पुरस्कार लौटाकर खामोशी तोड़ने की कोशिश की । ‘भय भी शक्ति देता है’ कहते हुए पुरस्कार लौटाने की पहल करने वाले उदय प्रकाश कहते हैं- “एक समय था जब हमारे लेखकों का सम्मान होता था, उनकी एक गरिमा थी । लेकिन आज अगर आप राजनीतिक, सांस्कृतिक या सामाजिक मसलों पर तार्किक आलोचना करते हैं, तो लोग उसे बर्दाश्त नहीं करते । वे हिंसात्मक होकर आपको प्रताड़ित करते हैं । हर चीज का सांप्रदायिकरण हो रहा है, कला जगत भी इससे अछूता नहीं है ।… अपराधियों को सुरक्षा देने वाले देश में लेखकों की हालत यह है कि कोई भी आकर उन्हें मार सकता है । लेखक अकेलेपन में जी रहा है ।”[14]

            पुरस्कार लौटाकर खामोशी तोड़ने की कोशिश करने वालों पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा प्रतिक्रिया मिलना स्वाभाविक है । उनका कथन है- “इस तरह के आरोप लगातार लगाए जा रहे हैं कि साहित्य अकादमी लेखकों के साथ नहीं है या उनकी हत्याओं पर मौन है । इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि मैं अपने लेखकों के साथ हूँ । उनकी लेखकीय स्वतंत्रता का समर्थन करता हूँ । उनपर हो रहे हमलों की निंदा करता हूँ, लेकिन फिर भी कहूंगा कि इन सबके लिए पुरस्कार लौटाने को सही नहीं मानता ।… जहाँ तक सरकार को अकादमी की ओर से कोई संदेश देने का सवाल है तो हम सरकार को कोई संदेश नहीं दे सकते । हम गलत चीजों की निंदा कर सकते हैं, वह मैंने की ।”[15]  

उदय प्रकाश बताते हैं, “जब प्रो. कलबुर्गी की हत्या हुई, उस समय मैं अपने गांव में था । पाँच दिन से बिजली नहीं थी । चार सितंबर को मैं गाँव के ढाबे पर गया, वहाँ पर अपना मोबाईल चार्ज किया और फेसबुक खोला तो पता चला कि कलबुर्गी की हत्या कर दी गई है । यह घटना बेहद डरावनी और विचलित करने वाली थी । हत्या हुए पाँच दिन बीत गया था, लेकिन उन्हें पुरस्कृत करने वाली साहित्य अकादमी ने भी तब तक कोई कदम नहीं उठाया था । आप लेखक को सम्मानित तो करते हैं, लेकिन वह निहायत ही अकेलेपन में जीता है । उसकी मौत पर भी उसके साथ कोई नहीं है । उस वक्त के दुख और भय की वजह से मैंने वहीं से यह घोषणा की कि मैं यह पुरस्कार लौटा रहा हूँ ।”[16] आज जबकि लेखकीय स्वतंत्रता पर ध्यानाकर्षण हेतु बौद्धिक वर्ग का एक बहुत बड़ा खेमा सरकार का ध्यान इस दिशा में दिलाने हेतु पुरस्कार लौटाकर अपना विरोध प्रदर्शित कर रहे हैं । तब फेसबुक, इंटरनेट, पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों पर इसे राजनीतिकरण का हिस्सा मानकर तमाम तरह की फब्तियाँ कसी जा रही है । ‘अब क्यों तब क्यों नहीं ?’ जैसे जुमलों का प्रयोग कर इसे सारहीन करार दिया जा रहा है । जबकि साहित्यकारों के पास अपनी लेखनी के सिवाय यदि कोई और चीज है तो वह है- ‘अपना सम्मान’ । अपना पूरा सम्मान गँवा देने के बावजूद उन्हें केवल दुत्कार ही मिल रहा है । अगर साहित्यकार पुरस्कार लौटाकर केवल राजनीतिकरण भर कर रहे हैं तो इसका प्रतिफल क्या मिल रहा है उन्हें- ‘सिवाय दुत्कार के ।’ आज साहित्यकारों की हालात के संदर्भ में ग़ालिब का यह शेर प्रासंगिक लगता है-

“जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है ।”

संपर्क :  अखिलेश गुप्ता
शोध-अध्येता, हिंदी विभाग,
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
सागर (मध्यप्रदेश) 470003,
akhilesh.src@gmail.com

[1]  पाण्डेय, मैनेजर, आलोचना की सामाजिकता, 2012, वाणी प्रकाशन, दरियागंज नयी दिल्ली, पृ. 150

[2] वही, पृ. 153

[3] वही, पृ. 150

[4] वही, पृ. 151

[5] मुक्‍तिबोध, गजानन माधव, चाँद का मुँह टेढ़ा है, 2015, भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड नयी दिल्ली, पृ.

     291

[6] ज्ञानरंजन, पहल, अंक 100, जून-जुलाई 2015, जबलपुर, पृ. 182

[7] वही, पृ. 176

[8] वही, पृ. 177

[9] कुमार, अंबरीश, शुक्रवार, वर्ष 8, अंक 11, 1 से 15 जून 2015, नयी दिल्ली, पृ. 33

[10] अग्रवाल, पुरुषोत्तम (सम्पा.), प्रतिनिधि कविताएँ: कुँवर नारायण, 2012, राजकमल प्रकाशन, नई

       दिल्ली, पृ. 154-155

[11] ज्ञानरंजन, पहल, अंक 101, अक्टूबर 2015, जबलपुर, पृ. 116

[12] कोस्का, आयवन, फारवर्ड प्रेस, वर्ष VII, अंक 10, द्विभाषी, अक्टूबर 2015, नई दिल्ली, पृ. 25

[13] सैम्यूएल, मैथ्यू, तहलका, वर्ष 7, अंक 20; 16-31 अक्टूबर 2015, दिल्ली, पृ. 47

[14] वही, पृ. 53

[15] वही, पृ. 53

[16] वही, पृ. 52

नयी इबारत लिखते समकालीन कविता के युवा स्वर

समकालीन कविता के परिदृश्य में सैकड़ों नाम आवाजाही कर रहे हैं । वरिष्ठ पीढ़ी के बाद युवा पीढ़ी भी काफी हद तक साहित्यिक यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुकी है । इनके एक दम पीछे युवतर एवं नवोदित कवि पीढ़ी समकालीन कविता की मशाल उठाए युवा पीढ़ी के दहलीज पर खड़ी है । किसे युवा कवि के रूप में चिह्नित करूं, किसे युवतर कवि के रूप में, बहुत सारे जटिल सवाल हैं मेरे सामने । इसे किसी दशक या काल खण्ड में बांटकर भी नहीं लिख सकता । कवियों की उम्र को भी सीमा रेखा में नहीं बांध सकता और न ही विभाजित कर सकता हूँ  । फिर कहां से शुरू करूं युवतर एवं नवोदित कवियों के  समकालीन कविता की यात्रा? यहां किसी की आलोचना करता हूं तो उनसे शत्रुता और प्रशंसा करूं तो कईयों की मेरे ऊपर टेढ़ी नजर ।  

यथार्थ के धरातल से लेकर मायावी दुनिया के अंतर्जाल में कई दर्जन युवतर एवं नवोदित कवि समकालीन कविता का झण्डा उठाए आगे बढ़ रहे हैं । फिर भी सन 2000 ई0 के बाद एक नवीन किन्तु जुझारू जज्बातों से लबरेज किन्तु-परन्तु से बाहर युवतर एवं नवोदित कवियों ने हिन्दी साहित्य के आकाश में नयी इबारत लिखी है । वो अलग बात है कि कुछ कम लिखकर ज्यादा चर्चित तो कुछ ज्यादा लिखकर भी कम अथवा अचर्चित ही बने रहे । हिन्दी कविता के मंच पर कौन आएगा और कौन नहीं आएगा इसका निर्णय साहित्य के रेवटी में बैठे तथाकथित कुछ आलोचक गण ही करते रहे हैं । एक खास तबका एक वर्ग को आगे आने ही नहीं देना चाहता । क्योंकि उनके कविता का तिलिस्म एवं उनके तबके के वर्चस्व के टूटने का डर व भय जो व्याप्त है ।

बकौल बोधिसत्व- ‘‘तीस सालों के पुरस्कार में कोई कवि दलित नहीं है । कोई मुसलमान नहीं है । कोई अछूत जातियों से नहीं हैं । आर. चेतन क्रान्ति जैसे दो एक कवि जो पिछड़ी जातियों से हैं,उनके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि हिन्दी साहित्य में हर तबके के लेखक सक्रिय हैं और जिस भाषा साहित्य की मुख्य धारा में हर तबके से लेखक न हों ,उसका दायरा संकुचित होना ही है” । फिर भी मैं 21वीं सदी में सक्रिय तमाम युवतर एवं नवोदित कवियों की रचनाधर्मिता पर लिखने की कोशिश करूंगा जिसे अभी किसी वाद या काल जैसा कोई नाम नहीं दिया जा सका है । इन कवियों में अरूणाभ सौरभ, दीपक मशाल, बलराम कांवट, अमित एस‐ परिहार, अच्युतानंद मिश्र, अलिन्द उपाध्याय, नताशा, मिथिलेश कुमार राय, ज्ञान प्रकाश चौबे, अनुज लुगुन, खेम करण सोमन, आरती यादव, रोहित जोशी, रोहित राज वर्धन, वसीम अकरम, अमित कल्ला, अर्चना भैंसारे, अविनाश मिश्र, घनश्याम कुमार देवांश, चिराग जैन, नवनीत नीरव, नित्यानंद गायेन, प्रांजल धर, हरे प्रकाश उपाध्याय, अनिल कार्की, विजय प्रताप सिंह, कृष्णकांत, शंकरानंद, बृजराज कुमार सिंह, अमित मनोज इत्यादि ने अपनी कविताओं में कुछ नया कहने की कोशिश की है

इनकी रचनाधर्मिता पर लिखने के लिए मैंने किसी भी तरह के बंधनों का परहेज नहीं किया है । चाहे वे गांव में पैदा हुए हैं या नगर में  । चाहे वे ग्रामीण जन जीवन पर लिख रहे हैं या नगरीय जन जीवन पर । उनकी कविताओं में न केवल उनके वर्णन का तरीका अलग है बल्कि कविता का कथ्य भी निराला है । इनमें से कुछ चुनिंदा रचनाकारों पर ही थोड़ा बहुत लिखने की कोशिश कर रहा हूं ।

अरूणाभ सौरभ हमारे समय के एक ऐसे सशक्त हस्ताक्षर हैं जिनकी लेखनी को हिन्दी व मातृभाषा मैथिली दोनों  में समान रूप से अधिकार प्राप्त है । यह कवि उस भाषा की रचनाशीलता से जुड़ा है जिसको जनकवि विद्यापति ने हिन्दी में महत्वपूर्ण स्थान व सम्मान दिलाया  । वो अलग बात है कि पूरा मिथिलांचल प्रतिवर्ष बाढ़ जैसी विभिषिका से जूझता है । जिसकी प्रलयंकारी लहरें कवि को भीतर तक झकझोरती हैं  । अविकास की पीड़ा, उद्योग धंधों का अभाव, बढ़ते हुए पलायन,गांव-देहात का मोह और अपने लोगों के दुख दर्द को बहुत ही करीब से देखा है अरूणाभ ने । जिसकी अभिव्यक्ति इनकी कविताओं में बार-बार मुखरित हुआ है । इस कविता ‘कोसी कछार पर‘ की चंद पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है-

चंद लमहों में / अपने गेसुओं में /उलझा लेती है

जिन्दगी के कई कश्तरे/और अपनी जबां पर

पोत लेती है/कई रातों की सिहरन

कई माहों की कसक/ कई कलंकों की कालिख

कई घरों की बद्दुआ

क्योंकि वह चिड़िया नहीं ,औरत नहीं

हरहराती हुई/खौलती उबलती नहीं है

जिसकी कछार पर भी डर लगता है ।

अरूणाभ की कविताएं जहां अनुभव की गहन आंच में रची पगी हैं वहीं अनगढ़ आत्मीयता की मौलिक मिठास लिए हुए हैं । अरूणाभ के कवि की सबसे मूलभूत ताकत अपनी माटी, अपने अनमोल जन, गांव-जवार और बाग–बगीचे हैं । जहां कवि पला बढ़ा है वहीं की चीजों से कविता का नया शिल्प गढ़ता है और भाषा को तेज धार देता है जिससे कविता जीवंत हो उठती है ।

नित्यानंद गायेन उन विरले रचनाकारों में हैं जो अपने फक्कड़ अंदाज-ए-बयां के लिए जाने जाते हैं । जिन लोगों को हिन्दी साहित्य के भविष्य की चिन्ता खाए जाती है उन्हें इनकी रचनाएं जरूर पढ़नी चाहिए । तमाम निराशाओं और आशंकाओं के बीच भी आशा और उम्मीद की महीन किरणों से कविता की चादर बुन ही लेते हैं । इतना जरूर है कि इनकी कुछ कविताएं शिल्प के स्तर पर कमजोर होने के बावजूद भी ध्यानाकर्षित करती हैं और भविष्य के प्रति आश्वस्ति जगाती हैं । कवि रोजी-रोटी से जुझते हुए भी जोड़-तोड़, दांव-पेंच करने वाले और राजनीतिक हुक्मरानों पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकता । अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाकर किसी बात को सीधे-सीधे कहने की कला नित्यानंद बखूबी जानते हैं । यही वजह है कि किसी गुटबाजी सांचे में न फिट होने वाले इस कवि की कविताएं अकादमिक कविताओं के पक्षधरों के गले में अटक जाती हैं । जहां आम जनता से सीधे संवाद करती हुई अड़ियल तेवर की कविताएं हिन्दी साहित्य में नया द्वार खोलती हैं वहीं परदे के भीतर रचे जा रहे प्रपंचों को उजागर भी करती हैं । इनकी एक कविता ‘संभल कर परखना‘ –

मुझे देख लो/उन्हें भी देखना

जो आयेंगे मेरे बाद/बस तुम परखते जाना

पर सावधान/संभल कर परखना

आदमी खो जाता है/दूर चला जाता है

कई बार

परखते परखते‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐‐

ठेठ माटी की गंध लिए सादगी और संवेदनाओं से भरी कविताएं मिथिलेश कुमार राय को हिन्दी साहित्य में एक अलग पहचान दिलाती हैं । इनकी कविताओं की ठेठ देशी गमक ही है कि पाठक मन भौंरे की तरह रस पान करने के लिए अपने आप खिंचा चला आता है । बिंबों में गुंथी हुई कविताओं की शब्द पंखुड़ियां जब एक-एक कर खुलती हैं तो भाषा की सादगी नये शिल्प में चमक उठती है । उनकी कविताएं जन सामान्य से सहज संवाद करती हुई आगे बढ़ती हैं जहां कोई छल नहीं, कोई जादू नहीं बस शुद्ध देशीपन के साथ अपनी जगह बना लेती हैं । संभावनाओं से भरे इस कवि का एक कवितांश-‘आदमी बनने के क्रम में‘ द्रष्टव्य है-

पिता मुझे रोज पीटते थे/गरियाते थे

कहते थे कि साले /राधेश्याम का बेटा दीपवा

पढ़ लिखकर बाबू बन गया

और चंदनमा अफसर/और तू ढोर हांकने चल देता है

हंसिया लेकर गेहूं काटने बैठ जाता है

कान खोलकर सून ले /आदमी बन जा

नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूंगा

और बांस की फूनगी पर टांग दूंगा‐‐‐‐‐

हरीश चन्द्र पाण्डे के अनुसार कविताएं स्याही की छोटी-छोटी टिकिया की तरह होती हैं जो अपना रंग और असर बहुत देर तक पानी में छोड़ती हैं । यहां वैसी ही छोटी-छोटी टिकिया जैसी कविताओं का संसार रचने वाले शंकरानंद की कविताएं सीधे आम जनता से बात करती हैं । तो वहीं मजदूर किसानों से बात करती हुई खेत खलिहानों में विचरण करती हैं । इनकी कविताएं सरकारी आवास योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल को भी तार-तार करती हैं । इसी तरह कवि नक्शे के माध्यम से बम में तब्दील होती पृथ्वी को बचाने की जुगत में है तो वहीं अराजक तत्त्व इसे नष्ट करने पर तूले हुए हैं । ये लोग पृथ्वी को क्यों नष्ट करना चाहते हैं । यह एक बहुत बड़ा सवाल है हमारे समय से । और कवि है कि जद्दोजहद की स्थिति में भी बहुत कुछ कह जाता है ।

‘नक्शा’ कविता की ये पंक्तियां-

इसी से हैं सीमाएँ और/टूटती भी इसी के कारण हैं

बच्चे सादे कागज पर बनाकर /अभ्यास करते हैं इसका और

तानाशाह सिरहाने रखकर सो जाते हैं इसे

इसी से चुने जाते हैं ठिकाने और

इसी से तलाशी जाती है विस्फोट की जगह

छोटे से नक्शे में दुनिया भी/सिमट कर रह जाती है

इतनी कि हर कोई इसे मुट्ठी में बंद करना चाहता है ।

अपनी कविताओं में टटके बिंबों एवं शिल्प गठन की उच्च गुणवत्ता की वजह से छोटी कविताएं भी चुंबक की तरह अपनी ओर आकर्षित करती हैं । लीक से हटकर चलने वाले शंकरानंद ने एक नया मुकाम हासिल किया है । सबसे बड़ी बात तो ये है कि गम्भीर से गम्भीर बात को भी सरल व सहज तरीके से कह जाते हैं जो बहुत देर तक दिमाग को मथती रहती है । ‘किसान‘ कविता की बानगी देखिए-

जीवन का एक-एक रेशा/बह रहा पसीना की तरह

एक-एक साँस उफान पर है/उसके खून में आज भी वही ताप है

जो कीचड़ में धँसा बुन रहा है अपने दिन/धरती उसके बिना पत्थर है!

एक ऐसा कवि जिसकी कविताओं की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है । इस कवि की कविताएं यथार्थ के जिस धरातल पर लिखी गयी हैं कविता का यथार्थ और जीवन का यथार्थ अलग-अलग नहीं है । यह कवि प्रेम चन्द्र नंदन ही हो सकते हैं जो अपनी बात बड़ी बेबाकी से कह जाते हैं ।

इनकी कविता में जन सामान्य की संघर्षशील चेतना की अभिव्यक्ति नाना रूपों में हुई है ।इनकी कविता के केन्द्रीय चरित्र सामान्य जन ही हैं जो अपनी मिट्टी में रचे बसे हैं । ग्रामीण शोषण की प्रक्रिया और रूढ़ियां कवि की चेतना को उद्वेलित करती हैं ।‘बड़े सपने बनाम छोटे सपने ‘ नामक कविता में बखूबी देखा जा सकता है-

आजादी के इतने सालों बाद भी/जिनकी रोटी/छोटी होती जा रही है

और काम पहुंच से बाहर/जिनके छोटे-छोटे सपने/इसमें ही परेशान हैं

कि अगली बरसात/कैसे झेलेंगे इनके छप्पर/भतीजी की शादी में

कैसे दें एक साड़ी/कैसे खरीदें /अपने लिए टायर के जूते

यहां एक ऐसा भी समाज है, जो पूंजी की ताकत से वर्तमान को इतना बर्बाद कर रहा है कि भविष्य स्वंयमेव नष्ट हो जाए । यही सब स्थितियां भ्रष्टाचार और शोषण को बढ़ावा दे रही हैं । यह विडम्बना ही है कि एक ओर सम्पन्न वर्ग बेहिसाब संपत्ति का मालिक बनता जा रहा है, तो दूसरी ओर गरीब और गरीब होता जा रहा है । सामाजिक क्षोभ और लोक की पीड़ा दोनों ने कवि की कविता को बल प्रदान किया है ।

हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में कवयित्रियों की कम सक्रियता थोड़ा निराश करती है । ऐसे में नताशा जैसी कवयित्री की उपस्थिति सकून देती है । नताशा को सरल शब्दों में तल्ख बात कहने की जो महारथ हासिल है वह उन्हें अपने समकालिनों से अलग करती है । तथाकथित ऐसे कलाकर्मी जो श्रमजीवियों को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल तो कर लेते हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उनके लिए कोई ठोस कल्याणकारी कदम नहीं उठाते, पर भी तंज कसने से नहीं चूकती हैं नताशा । इनकी पैनी नजर आज के बदलते मूल्यों और सरोकारों पर तो है ही, बाजारीकरण और वैश्विककरण की जटिल होती गतिविधियों पर भी है । ‘इस समय‘ कविता की चंद पक्तियां –

इस समय /छिन चुका है चांद से/परियों का बसेरा

और बच्चे भी तोड़ चुके हैं/किस्सागोई का जाल

वहां की पथरीली जमीन पर/वे बल्ला घुमाने की सोच रहे हैं ।

इस समय /बारिश की बूंदें/नहीं रह गई हैं किसी नायिका के/

काम भाव का उद्दीपक/और बसंत से नहीं कोई शिकायत

किसी प्रोषितपतिका को ।

युवतर अनुज लुगुन एक ऐसे आदिवासी इलाके से आते हैं जहां जीवन और संघर्ष एक दूसरे के पर्याय हैं । इनकी कविताओं ने हिन्दी साहित्य में एक नया अध्याय जोड़ दिया है । इनकी कविताओं में आदिवासी जीवन की कड़वी सच्चाइयां परत दर परत अपने आप खुलती जाती  हैं । इनकी कविता में इसे बखूबी देखा जा सकता है-

लड़ रहे हैं आदिवासी/अघोषित उलगुलान में

कट रहे हैं वृक्ष/माफियाओं की कुल्हाड़ी से और

बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल /दान्डू जाए तो कहां जाए

कटते जंगल में/या बढ़ते जंगल में ।

यहां के सामान्य जन की पठार की तरह समृद्ध पीठें, पहाड़ की तरह विशाल हृदय, झरने के जल की तरह कोमल व पवित्र मन जिनकी थाती है । जिसकी तश्करी करने में एक वर्ग पूरी तन्मयता से लगा हुआ है उससे अनुज बहुत आहत हैं । जीवन के दंश की पीड़ा से आहत खुद्दार कविताएं जो संघर्षरत हैं, समय और सियासत से जिनके पोर -पोर में सुरमयी रातें और महुवाई गंध समाई हुई है । अपनी जातीय स्मृति और सामूहिक स्वप्न को अनुज जिस आत्म विश्वास के साथ अभिव्यक्ति दे रहे हैं, वह अचम्भे में डालने वाला है । लच्छेदार भाषा से दूर, अपनी भाषा और बोली पर अद्भुत्त पकड़ रखते हैं अनुज । दूसरी कविता की कुछ पंक्तियां –

ओ मेरी सुरमई पत्नी! /तुम्हारे बालों से झरते हुए महुए

तुम्हारे बालों की महुवाई गंध/मुझे ले आती है

अपने गांव में ,और/शहर की धूल -गर्दों के बीच

मेरे बदन से पसीने का टपटपाना

तुम्हें ले जाता है/महुए के छांव में /ओ मेरी सुरमई पत्नी!

तुम्हारी सखियां तुमसे झगड़ती हैं कि/महुवाई गंध महुए में है ।

इनकी कविताओं में मुहावरे कथ्य की तान एवं शिल्प की कसावट में आदिवासी संगीत की धुन पर थिरक उठते हैं । वंचित समाज की विदीर्ण स्थितियों को नई दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है अनुज ने । जिससे इनकी कविताओं में सभ्यताओं की बनावट में छिपे दो असमान जीवन मूल्यों की टकराहट को स्पष्टतः सुना जा सकता है । भविष्य में अनुज से बहुत संभावनाएं हैं क्योंकि ऐसे कवि यदा-कदा ही पैदा होते हैं बशर्ते कि तथाकथित हिन्दी के कुछ मठाधिशों से बचकर रहने की जरूरत है ।

इधर के कवियों में हरे प्रकाश उपाध्याय ने बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में अपनी जगह बनायी है । यह नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है । इन्होंने अपने कथन से कविता को नया विस्तार दिया है । इस कवि ने अपने पूर्ववर्ती कवियों से प्रभाव ग्रहण करने की कोशिश नहीं की है । बल्कि इन्होंने कविताओं में काव्य-रीति की सहजता,कथ्य सौंदर्य और विमोहन की क्षमता को नये  शिल्प में ढालने की कोशिश की है जो अन्य कवियों से अलग पहचान दिलाती है । एक कवितांश ‘हम पत्थर हो रहे हैं’ द्रष्टव्य है-

सारी चिट्ठियां अनुत्तरित चली जाती हैं/कहीं से कोई लौट कर नहीं आता

दोस्त मतलबी हो गये हैं/देखो मैं ही अपनी कुंठाओं में

कितना उलझ गया हूं

संवेदना के सब दरवाजों को /उपेक्षा की घुन खाये जा रहीं हैं

बेकार के हाथ इतने नाराज हैं/कि पीठ की उदासी हांक नहीं सकते

एक और महत्वपूर्ण कवि प्रांजल धर जिसने अपने लेखों व कविताओं की सतत व सार्थक सक्रियता से अपनी ओर लोंगो का ध्यान आकृष्ट किया है । प्रांजल के पास विशाल जीवनानुभव है जिससे इनकी रचनात्मकता जटिल और भावार्थ विस्तृत हो जाता है । इनकी एक कविता ‘कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं‘ की चंद पंक्तियां-

सुरक्षित संवाद वहीं हैं जो द्वि-अर्थी हों /ताकि

बाद में आप से कहा जा सके कि /मेरा तो मतलब यह था ही नहीं

भ्रांन्ति और भ्रम के बीच संदेह की संकरी

लकीरें रेंगती हैं/इसीलिए /सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ

भी कहना/खतरे से खाली नहीं रहा अब  ।

अमित कल्ला की कविताएं हिन्दी साहित्य में एक नया वितान रचती हैं । जब इनकी कविताओं में गांव-जवांर, बाग -बगीचे, नदी, रेगिस्तान, बादल, हवांए, पर्वत ,झरने इत्यादि आते हैं तो अर्थों की कई नई परतें अपने आप खुलती चली जाती हैं । सबसे बड़ी बात यह है कि इनकी कविताएं अनावश्यक उलझावों से बच कर नपी-तुली भाषा में काव्य सौंदर्य की रचना करती हैं । इसकी बानगी इस कवितांश में बखूबी देखा जा सकता है-

तुम्हारे सपनों का हरापन/किस जादुई तोते में कैद है

कहां छुपे हैं/तुम्हारे हंसी के मटियारे बादल

चट्टान के किस कोने में

तुम्हारी जड़ें तलाश रही हैं/अपने हिस्से की मिट्टी ।

दीपक चौरसिया मशाल की कविताएं पढ़कर ऐसा लगता है कि आम जन की पीड़ा को बहुत बारीकी से उकेरा है । यही वजह है कि भोगे हुए यथार्थ को धारा प्रवाह भाषा में आनंद की लहरें उठा देते हैं । और सच को सच की तरह कहने के लिए कितने जोखिम उठाने पड़ते हैं ।

दीपक मशाल की कवितांश ‘अधूरी जीत‘ की बानगी हमारे सामने है –

तुम्हारे सच की लेबल लगी फाइलों में रखीं/झूठी अर्जियों में से एक को

एक कस्बाई नेता की दलाली के जरिये/मेरे कुछ अपने लोग

हकीकत के थोड़ा करीब हो आए

आज बोलने पड़े कई झूठ मुझे/एक सच को सच साबित करने के वास्ते

वो झूठ जो तुम्हारे ही एक/ कानून के घर में सेंध लगाने वाले विशेषज्ञ ने

लिख कर दिए थे मुझे  ।

पद्य और गद्य में समान रूप से लिखने वाले अच्युतानंद मिश्र अपने समकालीनों में अलग पहचान बनायी है । सामन्तवादी प्रवृति वाले लोगों, बंधुआ मजदूरों, किसानों की फटेहाली, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भूखमरी, सूखा-बाढ़ के अलावा आतंकवादी एवं उग्रवादी गतिविधियों पर भी पैनी नजर रखने वाले अच्युतानंद बड़े सलिके से अपनी बात कह ले जाते हैं । भाषा पर जबरदस्त पकड़ एवं स्वअर्जित काव्य कौशल के बूते अच्युतानंद ने अलग किस्म की कविता बुनने में महारत हासिल की है । हिन्दी साहित्य जगत में इनसे काफी संभावनाएं हैं । एक कविता ‘मुसहर’ की बानगी-

गांव से लौटते हए /इस बार पिता ने सारा सामान/लदवा दिया है

ठकवा मुसहर की पीठ पर/कितने बरस लग गए ये जानने में

मुसहर किसी जाति को नहीं/दुख को कहते हैं ।

अर्चना भैंसारे जैसी युवा कवयित्री भारत के ऐसे पिछड़े पठारी इलाके से आती हैं जो खनिजों में समृद्धि के बावजूद भी अभावों के साम्राज्य का जाल पूरे दमखम के साथ फैला हुआ है । अर्चना जी के जीवन में यही अभाव संघर्ष करने की प्रेरणा देता है । इनकी कविताओं में गरीबी, भूखमरी, अकाल, बेरोजगारी और लोगों के पलायन की पीड़ा को सिद्दत से महसूसा जा सकता है । अपने आस-पास के परिवेश को मजबूत ढाल की तरह प्रयोग करते हुए हिन्दी साहित्य में कविता का एक नया मुहावरा गढ़ा है । अपनी माटी से गहरा जुड़ाव रखने वाली अर्चना जी की कविताएं भावों और अर्थों की कई गहरी परतों को तोड़ा है । ‘गहरी जड़ें लिए ‘ कविता में इसे महसूस सकते हैं-

तुम आंगन के बरगद हो पिता/जो धंसे रहे गहरी जड़ें लिए

जिसकी बलिष्ठ भुजाएं/उठा सकीं मेरे झूलों का बोझ

और जिन्होंने थामे रखी/मजबूती से आंगन की मिट्टी

ताकि एक भी कण रिश्तों का/विषमता की बाढ़ में न बह पाए

उसकी आंखें निगरानी करे/ताकि ना आने पाए मेरे घर सर्द हवा

और बचा रहे मेरा खपरैल छाया घर/किसी धूप -छांव से ।

साहित्य समृद्धि की विरासत वाले हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड की भूमि से आने वाले खेम करण सोमन ने जिस यथार्थ जीवन को देखा,सुना व भोगा है को अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी है । सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद व उग्रवाद जैसी खतरनाक बन चुकी बिमारियों से बचने का  आगाह भी करते हैं । स्त्री विमर्श का तमगा लगाये कलाकर्मियों की तरह शोर-शराबा नहीं करते बल्कि अपनी बात बहुत दमदार तरीके से कहते हैं । ‘स्त्रियों ने कथाएं कहीं’ कविता में –

पुरूषों ने कथाएं कहीं/स्त्रियों ने भी कथाएं कहीं/पुरूषों में

कुछ ही पुरूष समझ पाए /स्त्रियों ने जो कथाएं कहीं

कथाएं नहीं/अपनी-अपनी व्यथाएं कहीं ।

बहुत कम उम्र में ही कविता से शुरूआत करने वाले ज्ञान प्रकाश चौबे ने बहुत जल्द ही कविताओं की ठोस जमीन तैयार कर ली । अपनी बोली-बानी के शब्दों को धार देकर कविता में ऐसे पिरोते हैं कि विचलन की स्थिति नहीं आती । बल्कि इनकी काव्य भाषा चमक उठती है । इस सदी के पहले दशक में हिन्दी साहित्य में खूब धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी लेकिन बाद में कई सालों तक अज्ञातवास की स्थिति में चले गये थे । अब पुनः दमखम के साथ उपस्थित हैं । इनके ‘जंगल कथा’ कवितांश की धमक देखिए –

आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से/हमारे वक्त का अधूरा सूरज

जिसकी अधूरी रोशनी में/हमारा गुमेठा हुआ भविष्य /हुंकारता है

बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो /और कहो कि समय का पहाड़

हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं

ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद ।

अब तक जितने कवियों के बारे में कुछ कहने की कोशिश की वह अंतिम नहीं है । इन कवियों के अलावा और भी युवा स्वर हैं जो लिख रहे हैं लेकिन यहां सबको समेटना सम्भव नहीं है । इतना जरूर है कि हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्व करने वाले ये कवि नाउम्मीदी में भी उम्मीद तलाश लेते हैं । यह अलग बात है कि समय साहित्य की चालन से उम्दा रचनाओं को सहेज कर बेकार को बाहर कर देगा । फिर भी इन कवियों की रचनाएं इतना उम्मीद तो दिलाती ही हैं कि हिन्दी साहित्य का संसार संभावनाओं से भरा हुआ है । हमें इतना भरोसा है कि आने वाले समय में और बेहतर रचनाओं के आने की उम्मीदें हैं जिसका बेसब्री से हिन्दी को प्रतीक्षा है ।

संपर्क :
आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल),
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
chauhanarsi123@gmail.com
यह आलेख परिवर्तन पत्रिका के प्रवेशांक में प्रकाशित हुआ था.

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साहित्य और समाज

*डॉ. मो. मजीद मिया

साहित्य, संस्कृत के सहित शब्द से बना है । साहित्य की उत्पति को संस्कृत साहित्य के आचार्यों ने “हितेन सह सहित तस्य भवः” की संज्ञा दी हैं जिसका अर्थ है कल्याणकारी भाव । साहित्य में जीवन एवं जगत का कल्याण होना अनिवार्य है क्योंकि इसमें ‘स:हित’ की भावना होती है, जो लोक जीवन के कल्याणकारी भाव का सम्पादन करता है । साहित्य के हर क्षेत्र में शब्द एवं अर्थ के योग के साथ-साथ लोक कल्याण की भावना का होना आवश्यक है । संस्कृत में सहित शब्द का दो अर्थ होता है, एक स्वभाव एवं दूसरा हितयुक्त अर्थात स्वभाव एवं हित का संतुलित रूप ही साहित्य है । साहित्य शब्द की व्युत्पति ने ही इसे लोगों के साथ जोड़ा है क्योंकि लोक साहित्य में लोक का अर्थ व्यापक एवं विस्तृत होता है । पर हम इसे साधारण अर्थ में समाज कह सकते हैं । यह संसार एक समाज है इसलिए साहित्य हमेशा समाज के हित की कामना करता है । यदि समाज शरीर है तो साहित्य उसकी आत्मा । अगर देखा जाए तो साहित्य मनुष्य के मस्तिष्क से उत्पन्न होता है क्योंकि मनुष्य समाज का अभिन्न अंग है । जन्म से मृत्यु तक मनुष्य समाज से जुड़ा रहता है वह चाह कर भी समाज से अलग नहीं हो सकता है । उसका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा तथा जीवन का निर्वाह समाज द्वारा ही होता है । मनुष्य समाज में रहकर अनेक प्रकार का अनुभव ग्रहण करता है एवं जब वह प्राप्त अनुभव को शब्द द्वारा अभिव्यक्त करता है तो वह साहित्य बन जाता है । और यही अभिव्यक्ति की शक्ति उस व्यक्ति को आगे चलकर साहित्यकार बना देती है । अतः जैसा समाज होता है वैसी ही साहित्यकार की रचना होती है और वैसे ही समाज की झलक उस साहित्य में देखने को मिलती है । साहित्य एवं समाज का संबंध युगों-युगों से देखा गया है दूसरे अर्थ में कहे तो साहित्य एवं समाज एक ही सिक्के के दो पहलू एवं एक दूसरे के पूरक भी हैं । साहित्य का सृजन समाज के लिए एवं समाज द्वारा ही होता है इसीलिए तो कहते हैं, साहित्य समाज का दर्पण है ।

साहित्य का सृजन मानव पटल में होता है क्योंकि यह एक कला है । यह कल्पना द्वारा पूर्ण होता है पर मानव कल्पना जीवन एवं जगत के अनुभव से प्राप्त करता है और वह अनुभव समाज से प्राप्त होता है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है और वह समाज से हर पल नए-नए अनुभव प्राप्त करता है एवं प्रत्येक अनुभवों को कल्पना के माध्यम द्वारा मनुष्य अपने कला को सृजित करता है इसी कारण प्रसिद्ध ग्रीस आचार्य एरिस टोटल ने साहित्य को जीवन एवं जगत का अनुकरण मानते थे । उनके मतानुसार साहित्य, जीवन एवं जगत की नकल है । जीवन एवं जगत में हो रहे घटनाओं को साहित्यकार अपने कला से नकल करता है एवं फिर से उसी समाज को लौटा देता है । साहित्यकार जिस समाज एवं वातावरण में रहते हैं उस समाज एवं वातावरण की सभी स्थितियाँ उसे हमेशा प्रभावित करती रहती हैं । साहित्यकार अपने रचना के जरिए जो भी समाज को देना चाहता है उसे वह बड़ी ही चतुराई से प्रस्तुत करता है एवं समाज के प्रत्येक सुख-दुख एवं समस्याओं का चित्र समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है । समाज का उत्थान-पतन, समाज की रीति-रिवाज, आस्था एवं संस्कृति स्पष्ट रूप से साहित्य में अपना प्रभाव डालता रहता है । साहित्य भी समाज के परिवर्तित स्वरूप के साथ बदलता रहता है । आधुनिक संदर्भ में भी साहित्य एवं समाज में परस्पर संबंध है । दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं । समाज में हो रही विसंगति एवं विकृति, प्रगति, उपलब्धि, अभाव, विषमता, समानता, सौंदर्यता, प्रेम, स्नेह, मातृत्व, देशप्रेम, विश्व बंधुत्व जैसे विविध पक्षों को साहित्यकार अपने साहित्य में सृजित करते हैं, जो नितांत लोकहित के लिए होता है । जिस प्रकार से समाज का प्रभाव साहित्य के ऊपर पड़ता है वैसे ही साहित्य का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है । क्योंकि कवि अथवा लेखक समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, अतः वे लोग समाज को अपने नवीन विचार प्रदान करते रहते हैं । जब समाज में कोई समस्या आती है, समाजिक जीवन मूल्य का पतन होने लगता है तब साहित्य ही उसे दूर करने में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है । ऐसे समय में साहित्यकार समाज को नया रास्ता दिखाने का काम करता है । साहित्य के द्वारा राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों को देखा जाता है । आज विश्व में धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, अलगाववाद तथा आतंकवाद गंभीर समस्याओं के विनाश के लिए साहित्य प्रयत्नशील है ।

साहित्यकार साहित्य का सृजन अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि समाज के उपयोग के लिए करता है । चाहे वह ऋग्वेदिक रचनाकार हो या वह वेदव्यास का भगवद् गीता हो या फिर बाल्मीकि का रामायण, शेक्सपियर का नाटक या  एरिस्टोटल का काव्यशास्त्र ही हो सभी समाज के उपयोग एवं मार्ग दर्शन के लिए सृजित किए गए थे । हिन्दी साहित्य के  लोककल्याणकारी कवि तुलसीदास ने समाज के कल्याण के लिए रामचरितमानस का सृजन किया यह उनके पहले श्लोक से ही स्पष्ट होता है । उसके बाद तो हिन्दी समाज में आमूल-चूल परिवर्तन आया । तुलसीदास रचित रामचरितमानस पढ़ने के लिए लोगों ने शिक्षार्जन करना शुरू किया, जिसके द्वारा हिन्दी समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ जिससे समाज में नवचेतना का प्रसार हुआ । इसी से यह कथन स्पष्ट होता है कि साहित्य की रचना लोक हित के लिए होती है ।  

साहित्य सृजन के लिए साहित्यकार विषयवस्तु समाज के ही विभिन्न पक्षों से लेता है । चाहे वह ऐतिहासिक, पौराणिक या फिर सामाजिक विषयवस्तु क्यों न हो । इन सभी विषयवस्तु का समाज में ही सृजन होता है और इसी से साहित्यकार अपने दृष्टिकोण द्वारा समाज को उसके मूल्यांकन एवं विश्लेषण करने का अवसर प्रदान करता है । प्राचीनकाल से आज तक साहित्यकार समाज के प्रत्येक परिवर्तनों को देखते आया है इसी से यह प्रमाणित होता है कि साहित्य का सृजन एवं समाज की भूमिका एक दूसरे के पूरक हैं ।

प्रत्येक समाज का अपना अलग रहन-सहन, परंपरा, संस्कृति , संस्कार और इतिहास है पर साहित्य इन सभी बातों को समेटकर प्रत्येक समाज की घटना को दूसरे समाज से आदान-प्रदान करता है । शेक्सपियर के नाटक, बालजाक की कहानी, लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ, मेक्सिम गोर्की के उपन्यास, ओ. हेनरी के कहानी, वर्ल्ड हवितम्यान की  कविताएं, शैली एवं किट्स की कविताएं, जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ, रवीन्द्रनाथ की कविताएं, प्रेमचंद के उपन्यास आदि इन सभी को देखने पर ही साहित्य एवं समाज के बीच का संबंध समझ में आता हैं । यह सभी साहित्य, सृजनाओं के द्वारा समाज के विभिन्न घटनाक्रम को लिखकर अनुभव एवं कल्पना द्वारा सृजन किया गया है । इसप्रकार से मानव सभ्यता के विकास में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका को देखा जा सकता है ।

साहित्य हमेशा मानव को सकारात्मक सोच के साथ-साथ समाज के लिए मनुष्य को कुछ करने की प्रेरणा प्रदान करता है । राष्ट्र-प्रेम की भावना जागृत कराता है और वसुधैव-कुटुम्बकम् की भावना विकसित कराता है । यह संसार मानव समाज का घर है और इसमें मानव समाज को किस प्रकार की भूमिका निर्वाह करने पर समाज का कल्याण होगा यही सीख देना साहित्य का काम है । अपने साहित्य सृजन में विषय-वस्तु के अतिरिक्त पात्रों को भी लेखक समाज से ही चुनता है । समाज से लिया गया पात्र किसी विशेष समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ कतिपय पात्र विश्वजनित बन जाता है, जो समाज को कुछ न कुछ संदेश दे रहा होता है । किसी भी समाज को निकट से पहचानने का जरिया ही साहित्य है । प्राचीन भारत के वैभवपूर्ण संस्कृति को वेद, पुराण, रामायण, महाभारत जैसे साहित्यक रचना ने ही पहचान दी है, तो ग्रीस के सभ्यता को ओडिसी एवं इलियट जैसे ग्रन्थों ने पहचान देने का काम किया है । समाज एवं साहित्य मानव सभ्यता के वह पक्ष हैं जो एक दूसरे के बिना पूरे नहीं हो सकते । अतः कोई एक पक्ष कमजोर होने पर उस समाज के उत्थान एवं प्रगति के क्रम में बाधा आ सकती है ।

डॉ. मजीद मिया, (सहायक अध्यापक) यस एम् यस एन, हिंदी हाई स्कूल, ग्राम.+पोस्ट बागडोगरा, जिला दार्जिलिंग (प.ब.) -734014, मोब.-9733153487 मेल- Khan.mazid13@yahoo.com

ईशावास्य : रामचरित मानस का आधार दर्शन

*प्रभुदयाल मिश्र

तुलसीकृत रामचरित मानस सगुण राम के चरित-गायन ग्रन्थ के रूप में जगत प्रसिद्ध है । इसके दार्शनिक आधारों की खोज करते हुए इसे विशिष्टाद्वैत परक रचना माना जाता है । किन्तु हम तुलसी के इस प्रतिज्ञा कथन को संभवतः कैसे भी विस्मृत नहीं कर सकते कि रामायण ‘नानापुराण निगमागम सम्मतम्’ है । अर्थात् मानस वेद-मत पर आधारित है । किन्तु वैदिक साहित्य तो अपार है अतः स्वभाविक रूप से हमें वेद के सार स्वरूप की पहचान करनी आवश्यक है । इसके लिए यजुर्वेद का अंतिम चालीसवां अध्याय (जो यथावत् ईशावास्योपनिषद् है) का आश्रय लेना सर्वथा उचित है । वस्तुतः इसके १८ मंत्र भारतीय मनीषा और वैदिक दर्शन के सार सर्वस्व हैं । हम यहाँ इन मन्त्रों के संकेत का आधार लेकर रामचरित मानस के सन्देश की विश्वजनीनता पर विचार कर रहे हैं ।

ईशावास्य का पहला मंत्र है –

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किन्च्जगत्यां जगत्

तेन त्यक्तेन भुन्जीथः मा गृधः कस्यस्वित्धनम् ।

इस मंत्र के प्रथम भाग में ईश्वर की सर्वव्यापकता की उद्घोषणा है । संसार का प्रत्येक चेतन-अचेतन जीव अथवा पदार्थ ईश्वर से आच्छादित, आवेष्ठित है । यह दृष्टि संसार में भेद के स्थान पर सम्पूर्ण अभेदता की पोषक है । इसे गीता में कृष्ण ने यह कहते हुए और अधिक स्पष्ट किया है कि ‘मुझ एक धागे में सम्पूर्ण संसार मणि रूप में’ ( मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मनिगणा इव ७/७ ) पिरोया हुआ है । गोस्वामी तुलसीदास ने इस सूत्र को मानस के वंदना-प्रसंग में सभी को – सज्जन और असज्जन सहित, पूरी तरह से प्रणाम करते हुए स्वीकार किया है-

सीय राममय सब जग जानी , करउं प्रनाम जोरि जुग पानी (बाल. ७ घ २ )

सनातन भारतीय दर्शन ईश्वर को दूरदेशीय नहीं मानता । वह सृष्टि का कारण और निमित्त दोनों तो है ही, सदा कार्य रूप में भी विद्यमान है । वह कुम्हार ही नहीं, घडा बन जाने वाली मिट्टी और स्वयं घडा भी है । ऐसे ईश्वर की खोज में किसी को भी कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है । अन्यथा एक ईश्वर की खोज तो सदा अपूर्ण ही रही है और अपूर्ण ही रहने वाली है ।

ईश्वर की पहचान में ईश्वर के निर्गुण और सगुण रूप की दो धाराएं सर्व व्यापक हैं । इनके अनुयायी इनमें परस्पर इतनी दूरी भी उत्पन्न करते रहे हैं कि इनका एक व्यवहारिक समन्वय प्रायः सुगम प्रतीत नहीं रहा । यह मानना स्वाभाविक ही है कि ईश्वर अपनी अव्यक्त अवस्था में सर्वशक्तिमान हो सकता है, अतः यदि वह अवतार भी लेता है तो एक सीमा ही स्वीकार करता है तथा इस प्रकार उसका आचरण और कृत्य प्रायः मनुष्यों के ही समान हो जाते हैं जो कभी-कभी आदर्श होकर समालोच्य भी होते हैं ।

भारतीय द्रष्टा ऋषियों ने इस सत्य को निकट से पहचाना है । राम और कृष्ण के पूर्ण अवतार का निदर्शन कराने वाले वाल्मीकि और व्यास अपनी रामायण और भागवत में इन दार्शनिक प्रश्नों का समाधान खोजते हैं । श्रीमद्भागवत के पहले ही श्लोक में भगवान वेदव्यास उस ‘परम सत्य’ ( सर्वशक्तिमान अव्यक्त ईश्वर द्वारा सृष्टि संरचना प्रक्रिया का उपक्रम) के सगुण अनुसंधान (सत्यं परम धीमहि) का प्रतिज्ञा कथन करते हैं – जिससे इस संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय है, जिसके सम्बन्ध में विद्वान् दिग्भ्रमित होते हैं किन्तु वह स्वयं ज्ञान से प्रकाशित रहता है । श्रीकृष्ण के ब्रज में विहार, मथुरा में युद्ध, द्वारिका में विवाह और कुरुक्षेत्र में युद्ध दीक्षा के चरित्र की वेदान्त की जिस भूमिका में व्यासजी प्रतिष्ठा करते हैं ठीक वही स्थापना गोस्वामी तुलसीदास की भी रामकथा की पृष्ठभूमि में है-

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा

यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः

यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तीर्षावताम्

वंदेऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ।  बाल. ६

यहाँ इतना कहना पर्याप्त है कि रामचरित मानस की सरंचना के दार्शनिक पक्ष की निष्पत्ति में तुलसी वेदव्यास की श्रीमद्भागवत के अधिक निकट हैं जबकि महाकाव्य के विधान रूप में इसमें उन्होंने वाल्मीकि की रामायण से प्रेरणा ली है । और चूंकि दर्शन की यह सनातन परम्परा वेदान्त परक है अतः इसमें ईशावास्य के आधार दर्शन का समावेश प्रचुरता से हुआ है ।

हम अब ईशावास्य के पहले मंत्र के दूसरे भाग पर आते हैं । इसमें कहा गया है कि ‘सभी वस्तुओं को परमात्मा को अर्पित करने के बाद ही उनका उपभोग उचित है । ‘लोभ कदापि वांछनीय नहीं, भला, यह धन यहाँ किसका है !’ इस सूत्र में मनुष्य के लिए आवश्यक यज्ञ, त्याग, अपरिग्रह, समर्पण, निष्कामता, निर्लोभ, समता, निर्भेदता और समभाव आदि सभी वांछनीय गुण समाविष्ट हैं । गीता में श्री कृष्ण ने ऐसे एक कर्मयोगी राजा जनक का उदाहरण दिया जिन्हें संसिद्धि प्राप्त हुई । जब हम मानस के कथानक पर दृष्टिपात करते हैं तो इसमें एक चरित्र राजा प्रतापभानु ऐसा है जिसके बारे में तुलसी ने लिखा-

हृदय न कछु फल अनुसंधाना, भूप बिबेकी परम सुजाना

करइ जे धरम करम मन बानी, बासुदेव अर्पित नृप ज्ञानी ।  बाल. १५५/१

यह अपने आप में कितना बड़ा आश्चर्य है कि इस ‘कर्मयोगी’ राजा को अन्ततः रावण बनना पड़ता है । इसका क्या कारण है ? इसका उत्तर उपनिषद के इस दूसरे चरण में मिल जाता है । इस राजा ने लोभ का परित्याग नहीं किया और उसमें एक अत्यंत प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हो गयी –

ज़रा मरन दुःख रहित तनु समर जिते जनि कोउ

एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ । (बाल १६४)

उपनिषद् के लोभ परित्याग के सन्देश का इससे महत्तर विस्तार अन्यत्र देखा जाना कठिन है । त्याग की इतनी महत्ता प्रतिपादित कर ईशावास्य के दूसरे मंत्र का सन्देश यही कि वास्तव में यह दर्शन ‘कर्म’ का है, त्याग का नहीं, सही कर्म की इससे भिन्न स्थिति नहीं है । मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण १०० वर्ष की इच्छित आयु इसी रीति से व्यतीत करनी है । इससे भिन्न तो केवल अंध तमस का लोक ही है जहां ‘आत्म-घाती’ लोग पहुंचा करते हैं !

रामचरित मानस में जैसे विभीषण और रावण के व्यक्तित्व इन दो धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, विभीषण को भगवान अंत में यही आदेश देते है- ‘करेहु कल्प भर राजु तुम्ह, मोहि सुमिरेहु मन माहिं (उत्.११६ घ) जबकि रावण की जीवन शैली का निदर्शन वे इन शब्दों में करते हैं- ‘कहुं महिष मानुस धेनु खर अज खल निशाचर भक्षहीँ(सुन्द.२/३ )

ईशावास्य के ४ से लेकर ८ तक के पांच मंत्र ईश्वर की ‘निखिल धर्म विरुद्ध आश्रयी’ विशेषताओं का निरूपण करते हैं । इसके अनुसार ईश्वर देवताओं और मन से भी तीव्रतर गतिशील, भीतर और बाहर समान रूप से समुपस्थित, अकाय, शुद्ध, कवि, मनीषी, परिभू और स्वयम्भू है । उसे इस रूप में देखने वाले मैं और तू जैसा भेद नहीं रखते । अतः उनके लिए जीवन में किसी प्रकार का शोक या मोह उत्पन्न नहीं होता । मानस में तुलसी ने ईश्वर की इन विशेषताओं का अनेकशः वर्णन किया है । वह –‘बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना, कर बिनु करम करइ विधि नाना’ ( बाल. ११७ ३-४) है तथा उसे इस रूप में देखने वाले यही जानते हैं कि – ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत’ ( किष्कि. ३)

ईशावास्य में आगे विद्या और अविद्या तथा सम्भूति और असम्भूति की त्रयी बहुत गहन अध्यात्म दर्शन का निदर्शन करती हैं । वेद के ऋषि का इसमें यह कथन है कि अविद्या के उपासक अंध तमस में प्रवेश करते हैं किन्तु विद्या में रत कहीं अधिक गहरे तमस में भटक जाते हैं । इसी तरह असम्भूति के उपासक भी जहां अंध तम में रहते हैं वहीं संभूति में रत और गहरे अन्धकार में भटकते हैं । अतः ऋषि का परामर्श यहाँ यह है कि इन दोनों स्थितियों की जब व्यक्ति को ठीक समझ हो जाती है तो वह अविद्या/असम्भूति से मृत्यु पर विजय प्राप्त कर विद्या/सम्भूति के द्वारा अमृतत्व में प्रतिष्ठित होता है ।

वैदिक दर्शन के व्याख्याकारों ने इन सिद्धांतों की विस्तृत और गहन व्याख्या की है । सामान्यतया इन्हें भौतिक और अध्यात्म तथा व्यक्त और अव्यक्त धाराओं का प्रतीकार्थी कहा जा सकता है । तुलसी ने भी सृष्टि संरचना में प्रधान ईश्वरीय सामर्थ्य ‘माया’ को ‘विद्या अपर अविद्या दोऊ’ (बाल १४/२) भेद वाला माना है । संक्षेपतः यहाँ यह कहना भी आवश्यक है कि उपनिषद् में ‘विद्या’ और ‘सम्भूति’ के लिए ‘रत’ विशेषण प्रयुक्त है । इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञान के प्रति आसक्ति होने पर वह भी बंधनकारी ही होता है । तुलसीदास जी जैसे सार रूप में समझा देते हैं-

ज्ञान मान जहं एकउ नाहीं, देख ब्रह्म समान जग माहीं (आर. १४/४)

औपनिषदिक शब्दावली में ही तुलसी ‘ज्ञान पथ’ की तुलना कृपाण की धार (उत.११८/१) से करते हैं । अर्थात ज्ञान के मार्ग में भटकने के पूरे अवसर हैं । किन्तु जब ईश्वर की सर्वव्यापकता किसी की अनुभूति बन जाती है तो यहीं मृत्यु से संतरण के बाद उसकी अमृत में प्रतिष्ठा होती है ।

उपनिषद् का मंत्र १५ अन्यथा भी बहुत ख्यात है । इसके अनुसार सत्य का मुख स्वर्ण के ढक्कन में छुपा हुआ है । अतः ऋषि सूर्य से प्रर्थना करता है कि वह सत्य और धर्म के जिज्ञासु को उसे देखने के लिए खोलें । अगले मंत्र सोलह में पुनः सूर्य से अपने रश्मि जाल को समेट लेने की प्रार्थना की गयी है जिससे अंततः वह (ऋषि) यह समझ सके कि जो परमात्मा उसमें है वह स्वयं भी वही है ।

वेद और लोक में संसिद्ध और प्रसिद्ध गायत्री मंत्र (ऋग्वेद ३/६२/१०) में सविता देव से भी ऋषि की प्रार्थना अपनी बुद्धि को स्वयं प्रकाश की ओर ले जाने की है । मानस के उत्तरकाण्ड में आत्मसाक्षात्कार की इस अवस्था को तुलसीदासजी ने इस प्रकार प्रकट किया है-

सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा,   दीपसिखा सोइ परम प्रचंडा

आतम अनुभव सुख सो सुप्रकासातब भव मूल भेद भ्रम नासा । (उत्त. /११७/१)

उपनिषद् का मंत्र क्रमांक १७ पञ्चतत्वों से निर्मित नश्वर देह के नाश के अवसर पर कर्तव्य कर्म का स्मरण कराता है । गीता के आठवें अध्याय में भी अर्जुन श्री कृष्ण से देहांतरण की साधना प्रदान करने का अनुरोध करते हैं । वेद के द्रष्टा ऋषि के द्वारा ऐसे प्रस्थान कामी को ‘क्रतो’ और ‘कृतं’ के स्मरण का निर्देश किया गया है । कुछ भाष्यकारों के अनुसार इसमें ईश्वर की कृपा और अपने कर्मों के स्मरण का सन्देश है । जिस तरह गीता मृत्युकामी को भगवान के ‘अनुस्मरण’ का परामर्श देती है, रामायण के अनुसार बाली अपनी मृत्यु शैया पर इस सम्पूर्ण दर्शन को बड़ी कुशलता से प्रकट करता है-

जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं, अंत राम कहि आवत नाहीं

मम लोचन गोचर सोइ आवा (कि. ९/३)

ईशावास्योपनिषद् का अंतिम अठारहवां मंत्र अग्नि को समर्पित है । सब जानते हैं कि अग्नि वेद के प्रधान देवता हैं । ऋग्वेद में जहां इन्द्र के सम्बन्ध में सर्वाधिक लगभग २५० सूक्त हैं वहीं दूसरे क्रम में अग्नि के सूक्तों की संख्या लगभग २०० है । अग्नि अपनी प्रखरता में किसी वक्रता या प्रच्छन्नता को स्वीकार नहीं करता । वास्तविक समर्पण और स्वीकार की क्रिया की दीक्षा अग्नि ही देता है । अतः इस मंत्र में ऋषि अग्नि से प्रार्थना करता है कि ‘हे अग्नि हमें सन्मार्ग पर ऊपर ले चलो, तुम्हें सभी कुछ ज्ञात है, हमारे कुटिल कर्मों का दहन कर दो, हां बार-बार यहाँ यही प्रार्थना कर रहे हैं ।’ मानस के सन्दर्भ में हम यहाँ सीता की अग्नि-परीक्षा का स्मरण करना चाहते हैं । रावण विजय के पश्चात् राम जब सीता को इस आशय का संकेत देते हैं, तो-

लछमन होउ धरम के नेगी    पावक प्रकट करहु तुम वेगी ।  (६/१०८/१)

श्रीखंड सम पावक प्रबेश कियो सुमिर प्रभु  मैथिली ।  (६/१०८/१ (छंद)

इस प्रकार विचार करते हुए यही प्रतीत होता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में ईशावास्योपनिषद् का न कवल सम्पूर्ण दार्शनिक आधार ग्रहण किया है अपितु उन्होंने अपने इतिवृत्त में भी उन सूत्रों को सहेजते हुए उन्हें व्यवहारिक और वैश्विक आधार प्रदान किया है ।

संपर्क : ३५, ईडन गार्डन, चुनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल, १६