शिल्पी शर्मा ‘निशा’ की कविताएँ

1. कल सुनना मुझे

आज  थोडा व्यस्त हूँ

मैं बचपन में जी रही हूँ ।

जमीन पर कुछ उकेरते हुए

मूरत बना रही हूँ ।

रुको कुछ कहना है

कल सुनना मुझे ……

मिट्टी लगे हाथों से चेहरा साफ किया

देखूँ , कैसी लग रही हूँ ?

बचपन एक खूबसूरत सपना है

जिसे मैं थोड़ा जी रही हूँ ।

वादा है , आज नहीं

कल सुनना मुझे …….

जली हुई रोटी घूमकर खा रही हूँ

आज बहुत खुश हूँ ।

माँ ने रोटी में नमक घी लगाया है ।

कुछ देर रुक जाऊं

मलाई खा के आऊँगी जब

कल सुनना मुझे ……..

एक बात बताओ

आज कमी क्या है ?

सब कुछ तो है मेरे पास

लेकिन!

“मैं हूँ पर हम नहीं”

अभी नींद में हूँ

कल सुनना मुझे ……..।

2. मेरे अनवरत प्रयास

मेरे संघर्ष के दिन में ,

कोई दिखा न राहों में ।

किसी ने हाथ न थामा ,

भरी थी धूल आँखों में ।

चुभा जब काँच का टुकड़ा ,

चीख निकली अंधेरे में ।

दूर तक जाने की चाहत ,

घाव बाँधा रूमालों से ।

अंधेरी रात सावन की ,

न कुछ सूझे निगाहों से ।

मुझे जिद है पहुँचना है ,

दूर मंजिल की छावों में ।

हारकर रोने से अच्छा ,

जरूरी है मेरा चलना ।

छूटा परछाइयों का संग ,

अंधेरे में न कोई अपना ।

किया हिम्मत बिताये पल ,

नई राहें उजाला फिर ।

करूँ संघर्ष काँटों से ,

महक बिखरे मेरे जीवन में ।

3. हमजोली

मन करे आज बिना आँसुओं के रोऊँ

क्योंकि अतीत की सहेली ने आज दस्तक दी है ।

मैं अधीर हो उठी हूँ

उससे जुड़ी पुरानी यादों में खो गई हूँ ।

आज मन खुश है

मन के समंदर में जैसे मोती मिल रहा है ।

उसने पूछा – तुम कैसी हो ?

ऐसा लगा जीवन का दर्द मिट गया !

राज की बात बताऊँ

मेरे ख्यालों की मलिका वो हमेशा बनी रही ।

दूर रहकर भी…

याद है वो दिन

जब उसने अपने दूर जाने की बात बताई

हंसी के फव्वारे संग सबने बधाई दी ।

तेरा दूर होना आज अचानक मिलना

तू याद थी , याद है , याद रहेगी ।

पूँछों तो नाम क्या है ?

तू मस्तिष्क के लिए प्रतिभा मन के लिए खुशबू है ।

शुक्रिया जिंदगी !

दूर जाकर वापस आने के लिए

कुछ पूछने के लिए कुछ बताने के लिए ।

4. प्रयत्न

यादों की नगरी में आज हलचल हुई ,

न जाने बेमौसम क्यों बारिश हुई ?

क्यों है इस तरह से खामोशी ,

क्यों छाई है हर तरफ मदहोशी ।

कुछ हुआ है मेरे और किताबों के बीच ,

मुझे बुलाये अक्षर के सितारों के बीच ।

बेचैन मन से मैं पढ़ती जाऊँ ,

तुम भरोसा दिलाती मैं करती जाऊँ ।

पास होकर भी आँखों को दिखे नहीं ,

क्या लिखूँ शब्दमाला से पूछे नहीं ।

बन्द आँखों से कागज उकेरती हूँ ,

क्या करूँ वर्णमाला में भाव मिले नहीं।

आज कुछ सीखने की तैयारी में हूँ ,

लकीरें लांघकर लिखने की खुमारी में हूँ ।

कहीं न रूठ जाय आज कलम मुझसे ,

शब्द की बाँसुरी कानों में सुनाऊँ उसके ।

किसी ने कहा गिरती हुई मूली हो ,

तुम अंधेरे में राह को भूली हो ।

शब्द के बाण उन पर न व्यर्थ करूँ ,

जो भी करूँ अभिमान से बढ़ती चलूँ ।

संपर्क : शिल्पी शर्मा “निशा” कुशीनगर , उत्तर प्रदेश. shilpa3717@gmail.com

एक क्रांतिकारी की सजीव जीवनगाथा: मैं बंदूकें बो रहा

 -जय चक्रवर्ती


हिन्दी के समकालीन रचनाकारों में अशोक ‘अंजुम’ का नाम अत्यंत प्रतिभाशाली और प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों में गिना जाता है। सब जानते हैं कि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ऐसे साहित्यकार हैं जो जिधर चल पड़ते हैं, उधर ही रास्ता हो जाता है। काव्य की लगभग सभी प्रचलित विधाओं में उन्होंने कई-कई कृतियाँ हिन्दी साहित्य को दी हैं । गीत, ग़ज़ल, दोहा, हास्य-व्यंग्य सहित लघुकथा, नाटक और बच्चों के लिए उनकी दो दर्जन मौलिक और तीन दर्जन संपादित किताबें पाठकों के बीच भरपूर समादृत हुई हैं। न सिर्फ इतना, अपितु विशुद्ध साहित्य को समर्पित त्रैमासिकी ‘प्रयास’ (अब ‘अभिनव प्रयास’) के सम्पादन के माध्यम से वे अनेक वर्षों से हज़ारों हिन्दी प्रेमी पाठकों से सीधे जुड़े हुए हैं। लेखन में ‘व्यंग्य’ उनका मूल स्वर है , जिसे अपनी रचनाओं में ढालकर वे समाज और व्यवस्था के विद्रूप पर पूरी निर्भीकता और ईमानदारी के साथ प्रहार करते हैं। ‘प्रेम’ उनके संस्कारों में है , इसलिए अपने गीतों, ग़ज़लों और दोहों में उन्होंने प्रेम और श्रृंगार को भी खूब लिखा है।
             इधर, हाल के दिनों में वे अपनी एक और विलक्षण प्रतिभा के साथ हमारे सामने आए हैं। वह है- दोहों के शिल्प में खंड काव्य की रचना। हिन्दी कविता की सुदीर्घ सृजन-परंपरा में खंडकाव्य यूँ तो अनेक कवियों द्वारा बहुत पहले से अलग-अलग छंदों में रचे जाते रहे हैं, पर संभवतः यह पहली बार है जब दोहा-छंद में कोई खंडकाव्य हिन्दी साहित्य को मिला है। यह काम अशोक अंजुम ने करके दिखाया है।‘मैं बंदूकें बो रहा’ शीर्षक से पाँच सौ पाँच दोहों में वर्णित यह खंडकाव्य भारतीय क्रांतिकारियों के इतिहास के सबसे प्रखर और जाज्वल्यमान सितारे सरदार भगतसिंह के जीवन और विचारों तथा बलिदान का जीवंत दस्तावेज है। भगतसिंह के जन्म से लेकर उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं जलियाँवाला बाग, असहयोग आंदोलन, साइमन कमीशन का विरोध, असेंबली बम कांड, लाहौर षड्यंत्र और फाँसी तक पंद्रह सर्गों में विभक्त यह खंडकाव्य भगत सिंह के बहाने ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों को परत-दर-परत उधेड़ता है।
            इस कृति का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यह ऐसे व्यक्ति पर केन्द्रित है, जिसके जीवन और उससे जुड़ी घटनाओं पर न सिर्फ भारतीय साहित्य और इतिहास में, दुनिया की अनेक भाषाओं में पहले से ही असंख्य कृतियाँ मौजूद हैं। ऐसे में किसी नई कृति के सृजन में मौलिकता के अभाव का ख़तरा हमेशा बना रहता है। कहना न होगा कि अशोक अंजुम ने यह ख़तरा उठाते हुए मौलिकता की चुनौती को स्वीकार किया।
           भगतसिंह हमारे सामने एक ऐसे नायक के रूप में आते हैं, जो मात्र तेईस वर्ष के जीवनकाल में देशप्रेम, संघर्ष और वैचारिकी के स्तर पर दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े क्रांतिकारी और विचारक के समकक्ष, बल्कि कहीं-कहीं उससे भी आगे खड़े दिखाई देते हैं। 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में जन्में भगतसिंह को अँग्रेजी हुकूमत से  नफ़रत और उसके खिलाफ विद्रोह के संस्कार अपने घर से मिले। मात्र बारह साल की उम्र में उन्होने जलियाँवाला बाग हत्याकांड देखा । इस दुर्दांत घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। अंजुम जी इस घटना से आक्रोशित बालक भगत सिंह की मनोदशा को इस तरह शब्द देते हैं-
बारह-साला भगत ने, सुनी खबर जिस वक्त।
हुई विक्षिप्तों-सी  दशा, लगा खौलने रक्त।।
रँगा हुआ था रक्त से, जलियाँवाला बाग।
उस बालक के हृदय में, लगी धधकने आग।।

         1920 में लाहौर के नेशनल काॅलेज की पढ़ाई छोडकर वे महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाये जा रहे असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। चैदह वर्ष की आयु में उन्होंने सरकारी स्कूल की किताबें और कपड़े जला दिये। किन्तु 1922 में चैरी-चैरा हत्याकांड के बाद गांधी जी द्वारा किसानों का साथ नहीं दिये जाने से भगतसिंह बहुत उदास हुए और उन्होने भारत की आजादी के लिए सशस्त्र-संघर्ष का रास्ता अपनाने का संकल्प ले लिया –          

दब्बूपन से तो कठिन, जीत सकें हम जंग।
सोच-समझ कर भगत ने, लिया क्रान्ति का संग।।  (पृ.27)

9 अगस्त,1925 को शाहजहाँपुर से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर रोककर उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य क्रांतिकारियों के साथ खजाने को लूट लिया। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से दर्ज है। इसके बाद वे और सुखदेव अंग्रेजों को चकमा देते हुए लाहौर अपने चाचा के पास चले गए, जहाँ उनके चाचा सरदार किशन सिंह ने उन्हें दूध के कारोबार में लगा दिया। किन्तु इन सब कामों में उनका मन कहाँ लगने वाला था। 17 दिसंबर , 1928 को उन्होंने राजगुरु के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या कर दी। अँग्रेजी हुकूमत भगतसिंह के इस दुस्साहस से बौखला उठी और उन्हें पकड़ने के लिए बेताब हो उठी। भगतसिंह ने यहाँ भी पुलिस को चकमा दिया और दुर्गा भाभी के सहयोग से कलकत्ता पहुँच गए। कुछ दिन बाद कलकत्ता से आगरा पहुँचे, जहाँ अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ असेंबली में बम फेंकने की योजना बनी। बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर उन्होंने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली में 8 अप्रैल, 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर केस शुरू हुआ। 7 मई, 1929 को कोर्ट में उनकी पहली पेशी हुई। 10 जून , 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। जेल में उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। किन्तु वे न झुके, न अपने विचारों से  डिगे। अंत में 23 मार्च, 1931 को उन्हें तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे।
   भगतसिंह लगभग दो साल तक जेल में रहे । इस मध्य उन्होंने विशद अध्ययन किया, लेख लिखे। जेल प्रवास के दौरान लिखे गए उनके लेखों और परिवार को लिखे गए पत्रों से उनकी वैचारिकी को भली-भाँति समझा जा सकता है। उन्होंने आत्मकथा लिखी, और तीन किताबें भी लिखीं। इस बीच उन्हें बचाने के भी अनेक प्रयास किए गए, किन्तु अंग्रेजों की ओर से हर बार माफ़ी माँगने की शर्त रखी गई और भगतसिंह ने हर बार इनकार कर दिया। भगत सिंह क्रांतिकारी देशभक्त तो थे ही, वे एक अध्ययनशील विचारक, चिंतक, दार्शनिक, लेखक और अत्यंत सजग पत्रकार  भी थे।… और इन सबसे ऊपर वे एक सच्चे और सहृदय इंसान थे। उन्होंने मात्र तेईस वर्ष के छोटे से जीवन में बहुत बड़ा जीवन जिया। हिन्दी, उर्दू, अँग्रेजी, संस्कृत , पंजाबी और आयरिश भाषा के विद्वान भगतसिंह भारत में समाजवाद के सामभवतः पहले व्याख्याता थे। इन सारी ऐतिहासिक घटनाओं को अशोक अंजुम ने इस कृति में सिलसिलेवार और तिथिवार बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। फाँसी से पूर्व उनसे अंतिम मुलाकात करने के लिए जब उनके परिवारीजन पहुँचते हैं , उस समय जो मर्मांतक दृश्य उपस्थित हुआ होगा , उसे अशोक अंजुम के शब्दों में देखें-
तीन मार्च इकतीस को, मिलने अंतिम बार।
मात-पिता-भाई-बहिन, पहुँचा कुल परिवार।।  (पृ.106 )
माँ से बोले भगतसिंह, भरकर ठंडी श्वास।
लेने को आना  नहीं,   बेवे ! मेरी लाश।।
कहीं आप जो रो पड़ीं, सह ना सकीं वियोग।
माँ रोती है भगत की, ये बोलेंगे लोग।।  (पृ.107 )

         फाँसी से पूर्व जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई, तो उन्होंने जो कहा, उसे सुनकर किसी भी संवेदनशील और अपने देश के प्रति प्रेम करने वाले व्यक्ति की आँखें भीग जाती हैं और सीना गर्व से भर उठता है-
प्राण नाथ जी पूछते, करके उधर निगाह ।
भगतसिंह जी आपकी, क्या है अंतिम चाह ?
भगतसिंह बोले- मिले, भारत माँ की गोद।
पुनः जन्म लूँ मैं यहीं, सेवा करूँ समोद।।  (पृ.109)

भगतसिंह का जीवन और चरित्र तमाम आयामों से हमें रोमांचित करता है। फाँसी के एक दिन पूर्व जब उनके पास वायसराय की ओर से माफ़ी का संदेश जाता है , तो उनकी प्रतिक्रिया को अशोक भाई ने जो शब्द दिये हैं, वे बेजोड़ हैं-
किन्तु जिऊँ मैं कैद में, होकर के पाबंद।
मुझको ऐसी जिंदगी, हरगिज नहीं पसंद।।
इंक़लाब की राह पर, पाया उच्च मुकाम।
जिंदा रहकर वह नहीं, हरगिज होगा नाम।।
मेरी जो कमजोरियाँ, मेरे मन के रोग।
यदि फाँसी से बच गया, जानेंगे सब लोग।
हँसते-हँसते थाम लूँ, मैं फाँसी की डोर।
पैदा होंगे अनगिनत, भगतसिंह चहुँ ओर।।  (पृ. 110-111)

अपने अनेक लेखों में भगत सिंह ने पूंजीवाद का ज़ोरदार विरोध किया, उन्होंने लिखा कि पूँजीपति हमारे दुश्मन हैं। मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण से वे बहुत विचलित होते रहे। उनका कहना था कि श्रमिकों का शोषण करने वाला हिन्दुस्तानी ही क्यों न हो, उनका शत्रु है। जेल में रहते हुए उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’। यह लेख अँग्रेजी भाषा में था। जिसका बाद में दर्जनों भाषाओं में अनुवाद हुआ। इस लेख से भगतसिंह की वैचारिकी को बड़ी शिद्दत से समझा जा सकता है। जेल में रहते हुए भगतसिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की इस दौरान उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने अपने प्राण त्याग दिये।
            जैसा कि मैं ऊपर भी कह चुका हूँ कि अशोक अंजुम ने अपनी इस कृति में भगतसिंह के जीवन की अधिकांश घटनाओं को समेटने की कोशिश की है, तथापि ऐसा लगता है कि उनके जीवन का बहुत कुछ ऐसा छूट गया है, जिस पर यदि कवि की लेखनी और चलती तो भगत सिंह के विराट व्यक्तित्व और उनके विचारों तथा आदर्शों को पाठक और बेहतर समझ पाते। मगर यह भी सच है कि हर लेखक की अपनी सीमाएँ होती हैं, जिनके अंदर ही उसे अपना कार्य करना होता है। अशोक अंजुम जी ने संभवतः कृति के अत्यधिक विस्तार के भय से कुछ बिन्दुओं को संक्षेप में समेट लिया। इसके बावजूद यह कृति सर्वथा पठनीय और स्वागतेय है।
आशा की जानी चाहिए कि हिन्दी जगत अशोक अंजुम जी की अन्य कृतियों की ही तरह इस कृति का भी भरपूर स्वागत करेगा।

पुस्तक विवरण –
पुस्तक: मैं बंदूकें बो रहा  (खंडकाव्य)
कवि: अशोक अंजुम
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, 232 एस/एफ, पाॅकेट बी-1, लोकनायकपुरम्, नई दिल्ली-110 041 /मो.96501 00102
पृ.सं.: 120   /  मूल्य: रु.160/- (पेपरबैक)

 -जय चक्रवर्ती, एम.1/ 149, जवाहर विहार     रायबरेली-229010

युवाओ में बढ़ती आत्महत्या

आत्महत्या यानि स्वयं द्वारा स्वयं की हत्या, जानबूझ कर बिना किसी की सहायता के, बिना दबाव के, चेतन मन से की गई वो क्रिया, जिसका परिणाम मृत्यु हो, उसी को आत्महत्या कहते है। समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम ने अपनी पुस्तक में आत्महत्या को एक सामाजिक घटना बताया है। विश्व के 112 देशों के आत्महत्या के आंकड़ों का प्रकार्यात्मक विश्लेषण कर उन्होंने आत्महत्या को सामाजिक तथ्य के रूप मे प्रस्तुत किया। उनका निष्कर्ष था कि समाज की शक्तियां व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य करती हैं, जब व्यक्ति और समाज में अलगाव और सामाजिक मूल्य व व्यवस्था कमजोर या लोगों की आवश्यकता पूर्ति में असफल हो जाती है तब व्यक्ति आत्महत्या करता है ।
दुर्खीम का मानना था कि आत्महत्या छणिक आवेश या आकस्मिक घटना नही बल्कि एक सुनियोजित घटना है जो लंबे समय से मस्तिष्क में चल रही योजना का प्रतिफल है।
दुर्खीम के इसी तथ्य को आधार मानकर मैने 2009 में बीकानेर जिले में आत्महत्या करने वाले 20 व्यक्तियो की केश स्टडी की, तब भी यही प्रमाण सामने आये कि जिन्होंने आत्महत्या की उनके मूल व्यवहार में काफी लंबे समय से बदलाव हो रहा था। उनके परिजनों और मित्रों के साक्षात्कार से ये तथ्य मिले कि आत्महत्या करने वाले युवको का व्यवहार बदल रहा था। कुछ ने बताया कि जो बहुत ज्यादा गुस्से वाले थे वो कुछ समय से शांत रहने लगे थे, जो घर में रात्रि को देरी से आता था अपने मित्रो में ही मस्त रहता था वो कुछ दिनों से समय पर घर आने लगा, घर में अधिक समय देने लगा था। कुछ परिजनों ने कहा कि जो अपनी वस्तु को किसी को हाथ तक नही लगाने देता था वो कुछ समय से अपनी वस्तुओं को खुद दुसरो को देने लगा था ओर जो शांत और एकांत प्रिय था वो कुछ समय से सबके साथ मिलनसार व्यवहार करने लगा था और घर वाले यह देख कर खुश हो रहे थे।
इस तरह के अनेक परिवर्तन अध्ययन से ज्ञात हुए। यदि इन परिवर्तनों को सभी परिजन गम्भीरता से ले और किसी के भी परिवार में, किसी सदस्य में इस तरह के परिवर्तन नजर आये तो हम उनकी सहायता कर उसको आत्महत्या करने से रोक सकते हैं।
दुर्खीम ने अपनी पुस्तक में आत्महत्या के अनेक कारण बताए उन्होंने मनोव्यधिकीय, मनोजेविकिय, मौसम, जलवायु से सम्बंधित सभी आत्महत्या के पूर्व सिद्धांतो व कारणों की आलोचना के बाद आत्महत्या के पीछे सामाजिक कारको को ही उत्तरदायी बताया, उनके अनुसार शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित के मुकाबले आत्महत्या अधिक करता है। आस्तिक के मुकाबले नास्तिक, सन्तान वाले के मुकाबले सन्तानहीन अधिक आत्महत्या करता है। सयुक्त परिवार के मुकाबले एकाकी परिवार वाला अधिक आत्महत्या करता है। विवाहित के मुकाबले अविवाहित अधिक आत्महत्या करता है। गांव के मुकाबले शहरों में आत्महत्या अधिक होती है। राजनीतिक व सामाजिक रूप से स्थिति देशों के मुकाबले अस्थिर देशों में आत्महत्या अधिक होती है।
ये सभी कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक है। अधिकांश समाजशास्त्रियों का मानना है कि- सामाजिक जिम्मेदारी एक तरफ व्यक्ति को आत्महत्या से रोकती है दूसरी तरफ जब व्यक्ति सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ हो जाता है तब व्यक्ति आत्महत्या करता है, धर्म व्यक्ति को मानसिक सबल देता है आस्तिक व्यक्ति अपनी सफलता और असफलता के लिये खुद को उत्तरदायी ना मानकर भगवान को उत्तरदायी मानता है इस लिये वो विचलित नही होता, जबकि नास्तिक व शिक्षित व्यक्ति खुद को कर्ता मानता है हर घटना पर तर्क और चिंतित रहता है इस लिये छोटी-मोटी घटनाओं पर विचलित ओर अवसाद का शिकार हो जाता है और आत्महत्या कर बैठता है। सयुक्त परिवार और सन्तानवाला हर हाल में अपने परिवार के लिये जिंदा रहना चाहता है जबकि एकाकी परिवार वाला या सन्तानहीन यह सोचता है उसके अपने कोई नही उसके आगे पीछे कौन है और आत्महत्या कर लेता है। डॉ. मुखर्जी ने भी लिखा है सामाजिक जिम्मेदारी व्यक्ति को अधिक सहनशील, जिम्मेदार ओर संघर्ष योग्य बनाती है। आज हम छोटे परिवार और साधन सम्पन्नता के कारण बच्चो को जिमेदारी से दूर रखते है सारी सुविधाएं बिना मांगे मिलने से, वे युवा होने पर भी जिम्मेदारी से भागते है यह भी युवाओं में आत्महत्या का बड़ा कारण है।
वर्तमान भारत में हर वर्ष 1.40 लाख लगभग आत्महत्या होती है एन. सी. आर. बी. की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में 1लाख 39हजार123 लोगों ने आत्महत्या की जो 2018 के मुकाबले 3.6% अधिक है, भारत में हर घण्टे 16 लोग आत्महत्या कर रहे है जिसमे 15 से 30 वर्ष की आयु वर्ग वाले अधिक है यानि युवाओं में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है।
राज्यो में आत्महत्या के आकड़ो में महाराष्ट्र प्रथम स्थान पर है उसके बाद क्रमस: तमिलनाडु, प. बंगाल, मध्यप्रदेश, कर्नाटक है आत्महत्या के कारणों में एनसीआरबी रिर्पोट 2019 के अनुसार- 32.4% पारिवारिक मामले, 5.5% वैवाहिक मामले, 12.5% आर्थिक मामले 4.5% प्रेम प्रसंग मामले, 2%बेरोजगारी, 5.6% नशा के मामले उत्तरदायी है इस तथ्यों के समाजशास्त्रीय विश्लेषण करे तो आत्महत्या के लिये मूलरूप से समाज ही जिम्मेदार है पारिवारिक, वैवाहिक, प्रेम प्रसंग, बेरोजगारी, आर्थिक हानि इन सबके पीछे सामाजिक शक्तियां उत्तरदायी है, आज व्यक्तिवादी सोच के कारण पुरानी ओर नई पीढ़ी में संघर्ष, नारी मुक्ति और समाज की रूढ़िवादी सोच, जातीय बाध्यता, धर्म का घटना महत्व, टूटते सयुक्त परिवार, भौतिकवादी सोच के कारण आध्यात्मिकता का ह्रास, सामुदायिक जीवन का पतन, समाज में बढ़ती आदर्शहीनता और पतित होती सामाजिक नियंत्रण की संस्थाओ के कारण, आज व्यक्ति ओर समाज में अलगाव उत्पन्न हो रहा है, युवाओं का मार्गदर्शन ओर नेतृत्व के अभाव के कारण, युवा दिशाहीन ओर अवसाद का शिकार हो है।
भारत के आधुनिक पाश्चात्य मूल्यों और आर्थिक रूप से सम्पन्न राज्यो महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक में सबसे अधिक आत्महत्या की दर इस तथ्यों को प्रमाणित करते है कि भारत में आर्थिक विकास, आधुनिकता व भौतिकवादी दर्शन के कारण व्यक्तिवाद में वृद्धि हो रही है जिससे व्यक्ति और समाज में अलगाव की स्थिति बढ़ती जा रही है युवाओं में आदर्शहीनता के कारण भटकाव बढ़ता जा रहा है, आज परिवार, माता पिता, शिक्षक, धर्मगुरु, नेता, बुद्धिजीवी, ओर सरकार समाज का कुशल नेतृत्व करने में ओर प्रकार्यात्मक दृष्टि से असफल हो रहे है।
ये सब समाज की संरचनात्मक नियंत्रण की इकाइयां है जैसे हमारे शरीर में मष्तिष्क, लिवर, ह्दय शरीर का कुशल संचालन करते है इनके द्वारा प्रकार्य ना करने पर शरीर बीमार या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है वैसे ही समाज की नियामक संस्थाओ के कमजोर होने के कारण समाज में आत्महत्या की दर निरन्तर बढ़ रही है जिसका इलाज सामुदायिक रूप से ही सम्भव है व्यक्तिगत हल सम्भव नही है। हमे आत्महत्या को व्यक्तिगत घटना या केवल अवसाद का परिणाम मानकर कर, व्यक्ति का इलाज नही, समाज का इलाज करने की जरूरत है।
हमे यह स्वीकार करना होगा कि चाहे हम आर्थिक, भौतिक और विज्ञान की दृष्टि में सफल या प्रगतिशील है मगर सामाजिक व सामुदायिक दृष्टि से असफल ओर पिछड़ते जा रहे है जो समाज संस्कृति और सभ्यता के लिये धातक साबित होगा यह किसी देश या क्षेत्र की समस्या नही वैश्विक समस्या है वैश्विक रूप से इसका हल ढूंढना होगा।

डॉ. राजेन्द्र जोशी
सह-आचार्य समाजशास्त्र
श्री जैन कन्या पीजी महाविद्यालय, बीकानेर ।

क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण महिला सुरक्षा के लिए राष्ट्रव्यापी स्तर पर अत्यंत जरूरी है।

प्रियंका सौरभ

(गरीबी और विकास को कम करने के लिए लैंगिक समानता भी एक पूर्व शर्त है। महिलाओं की क्षमता पर अंकुश लगाने के लिए लिंग को अनुचित निर्धारण कारक नहीं होना चाहिए। भारत को इस लक्ष्य का एहसास करना चाहिए कि महिलाओं को अच्छी शिक्षा सुनिश्चित करने से लेकर समान पारिश्रमिक के साथ सुरक्षित कार्य वातावरण प्रदान करे।)

महिलाओं की उन्नति और महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता की उपलब्धि मानव अधिकारों का मामला है और इसे सामाजिक न्याय के लिए महिलाओं के मुद्दे के रूप में अलगाव में नहीं देखा जाना चाहिए। वे एक स्थायी, न्यायपूर्ण और विकसित समाज बनाने का एकमात्र तरीका हैं। हालांकि, लैंगिक समानता के खिलाफ लगातार पितृसत्तात्मक मानसिकता और पूर्वाग्रह महिलाओं के अधिकारों की खराब मान्यता को जन्म देगा; जैसे पीछे होता रहा है।

भारत में महिलाओं के अधिकारों की गहरी-पूर्वाग्रहों और खराब मान्यता के बारे आर्थिक सर्वेक्षण 2018 ने उल्लेख किया है कि एक पुरुष बच्चे की इच्छा ने भारत में 0 से 25 साल के बीच 21 मिलियन “अवांछित” लड़कियों को जन्म दिया है। नीति आयोग  द्वारा जारी नवीनतम स्वास्थ्य सूचकांक के अनुसार, जन्म के समय में भारत की लड़की से लड़के के लिंग अनुपात में 21 बड़े राज्यों में से 17 में गिरावट आई है। यह अवैध सेक्स प्रकटीकरण के बाद महिला चयनात्मक गर्भपात पर अंकुश लगाने की देश की क्षमता में विफलता का संकेत देता है।

हाल ही में मार्च 2020 तक, तमिलनाडु के उसिलामपट्टी में शिशुहत्या के मामले सामने आए। गहरी अंतर्ग्रही पूर्वाग्रह विडंबना यह है कि यह पुरुषों और महिलाओं दोनों के बीच  वास्तविक समानता के खिलाफ मौजूद है। पीआईएसए परीक्षण के आंकड़ों के अनुसार, यह धारणा कि “लड़के गणित में बेहतर हैं” निराधार है। फिर भी यह विश्वास अभी भी मौजूद है।महिलाओं के खिलाफ अपराध एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में अपराध 3,793 प्रति मिलियन से बढ़कर 2017 में 3,886 प्रति मिलियन हो गया। महाराष्ट्र के बाद 56,011 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश शीर्ष पर रहा।

कॉरपोरेट्स जगत में महिलाएं अभी भी पुरुषों की औसत 79 प्रतिशत आय अर्जित करती हैं, जो फॉर्च्यून 500 के सीईओ पदों का केवल 5 प्रतिशत हिस्सा रखती हैं, और वैश्विक बोर्ड के औसतन 17 प्रतिशत पदों का प्रतिनिधित्व करती हैं। महिलाओं को अनौपचारिक नेटवर्क तक पहुंच की कमी है जो उच्च-प्रोफ़ाइल परियोजनाओं में काम करने के अवसर प्रदान करते हैं, जिसमें विदेश में सम्मेलनों में भाग लेना या नौकरी के अवसर शामिल हैं। प्रारंभिक विवाह लड़की की सहमति के साथ या उसके बिना जल्दी शादी, हिंसा का एक रूप है, क्योंकि यह लाखों लड़कियों के स्वास्थ्य और स्वायत्तता को कम करती है।

महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून बनाना और लागू करने के साथ-साथ  विवाह, तलाक और हिरासत कानून, विरासत कानूनों और संपत्ति के स्वामित्व में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करके लिंग समानता को बढ़ावा देने वाली नीतियों को विकसित करना और लागू करना महत्वपूर्ण है। वित्तीय स्वतंत्रता के लिए महिलाओं को सशुल्क रोजगार तक पहुँच में सुधार करना और समान कार्य के लिए समान वेतन सुनिश्चित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

हालाँकि लिंग आधारित बजट के कारण महिला केन्द्रित विकास योजनाएँ बनी हैं। महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर अपराध निगरानी डेटा एकत्र करने की प्रणाली में सुधार के लिए सुरक्षित शहरों की योजना और महिलाओं की बेहतर सुरक्षा के लिए निर्भया फंड का उपयोग करना होगा। महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों को संभालने के लिए सेवा प्रदाताओं और कानून प्रवर्तन अधिकारियों को क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण महिला सुरक्षा के लिए राष्ट्रव्यापी स्तर पर अत्यंत जरूरी है।

दुराचारियों के लिए कार्यक्रम तैयार करने में पुरुष भागीदारी सुनिश्चित करें। जीवन कौशल और व्यापक समान सेक्स शिक्षा पाठ्यक्रम के रूप में समतावादी लिंग मानदंडों को बढ़ावा देना युवा लोगों को सिखाया जाना जरूरी है।  भारत ने एसडीजी गोल 5 के तहत लैंगिक समानता के लिएप्रयास किये है, ताकि सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और हिंसा के सभी प्रकारों को खत्म किया जा सके और महिलाओं को आर्थिक संसाधनों के समान अधिकार और संपत्ति के स्वामित्व तक पहुंच प्रदान करने के लिए सुधार किए जा सकें।

गरीबी और विकास को कम करने के लिए लैंगिक समानता भी एक पूर्व शर्त है। महिलाओं की क्षमता पर अंकुश लगाने के लिए लिंग को अनुचित निर्धारण कारक नहीं होना चाहिए। भारत को इस लक्ष्य का एहसास करना चाहिए कि महिलाओं को अच्छी शिक्षा सुनिश्चित करने से लेकर समान पारिश्रमिक के साथ सुरक्षित कार्य वातावरण प्रदान करे।

प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
उब्बा भवन, शाहपुर रोड, सामने कुम्हार धर्मशाला,
आर्य नगर, हिसार (हरियाणा)
kavitaniketan333@gmail.com

मॉरिशस हिंदी साहित्य पर आधारित नई पुस्तकें

समीक्षक : डॉ. रमेश तिवारी

1- ‘मॉरिशस के लेखक रामदेव धुरंधर की जुबानी’ की सार्थकता

विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी को डॉ. दीपक पाण्डेय की नवीनतम पुस्तक ‘मॉरिशस के लेखक रामदेव धुरंधर की जुबानी’ पुस्तक का लोकार्पण मुंबई के मुक्ति फाउंडेशन, अंधेरी वेस्ट के सभागार में हुआ। मॉरीशस में हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्ध परंपरा है जो भारतीय मजदूरों के मॉरीशस पहुँचने के साथ रोपी गई थी। आज मॉरीशस में हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में लेखन हो रहा है और वैश्विक हिंदी जगत में इसकी विशिष्ट पहचान है। मॉरीशस के कथा-साहित्य में रामदेव धुरंधर अग्रणी पंक्ति के रचनाकार हैं। डॉ.पाण्डेय ने रामदेव धुरंधर के साथ उनकी रचनाधर्मिता पर आधारित जो संवाद किया, वह इस पुस्तक में शामिल है। धुरंधर जी ने दीपक पाण्डेय के प्रश्नों का पूरी सहृदयता और गंभीरता से उत्तर दिए हैं। इस संवाद से प्रख्यात लेखक धुरंधर जी की लेखनी के वैशिष्ट को पहचाना जा सकता है।

इस संवादों को पढ़ने के बाद मैं डॉ. पाण्डेय द्वारा भूमिका में लिखी बात से सहमति रखता हूँ कि  धुरंधर जी का छ्ह खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘पथरीला सोना’ हिंदी साहित्य की अनुपम निधि है जिसकी कथा लगभग 3000 पृष्ठों की है और उसमें 600 के करीब पात्र हैं। धुरंधर जी ने अपनी इस विशालतम कृति के संबंध में जो व्यखात्मक उत्तर दिए हैं वे इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यह उपन्यास भारतीय गिरमिटिया मजदूरों के जीवन की छोटी-बड़ी घटनाओं का दिग्दर्शन कराते हुए मॉरीशस के इतिहास को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया दस्तावेज़ बन गया है। धुरंधर जी की स्वीकारोक्ति है कि ‘ मेरे अतीत ने मेरे लेखन का पिटारा मुझे थमा दिया । ऐसा न हुया होता तो मैं आज कहने की स्थिति में न होता कि मेरे लेखन का सफर मेरे अतीत से शुरू होकर मेरे वर्तमान में पहुंचा है । उम्र के हिसाब से मेरा जीवन जिस पड़ाव पर है उसमें मेरे लेखन में विशेष रूप से मेरा देश हावी रहा है। मैंने उसी के चित्रण में अपने को तपाया है ।’ वास्तव में इस पुस्तक का संवाद जहाँ लेखक के साहित्यकर्म को समझने का अवसर देता है वहीं लेखक के साहित्य के माध्यम से मॉरीशस और भारत-भारतीयता के संबंधों की गहराई में उतरने का द्वार भी खोलता है। डॉ. दीपक का यह प्रयास सराहनीय है और मॉरिशस हिंदी साहित्य के बारे में जानने वालों की इच्छा को अवश्य पूरित करेगा ।

इस पुस्तक में हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार और व्यंग्य विधा को समर्पित विद्वान डॉ. प्रेम जनमेजय का प्राक्कथन पुस्तक की सार्थकता को रेखांकित करता है।

समीक्ष्य कृति : मॉरीशस के लेखक रामदेव धुरंधर की जुबानी
लेखक  : डॉ. दीपक कुमार पांडेय
प्रकाशक : प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, पृष्ठ -152,
मूल्य – हार्डबांड- रु400 /- पेपरबैक रु250/-

2- ‘नींव से निर्माण तक’ की सतत प्रक्रिया से साक्षात्कार

नींव से निर्माण तक’ पुस्तक डॉ. नूतन पाण्डेय की अभिनव कृति है। इस पुस्तक के बहाने डॉ. पाण्डेय ने मॉरिशस के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों से बातचीत करते हुए उनके जीवन और साहित्य कर्म के साथ-साथ उनके अन्य विषयों पर केन्द्रित कुछ विचारों को भी इस पुस्तक में समाहित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। लेखिका ने भूमिका में मॉरिशस के इतिहास, साहित्य और लेखन सभी पर विस्तार से लिखा है, जो उनकी अध्ययनशीलता का प्रमाण है। इस दृष्टि से यह प्रयास सार्थक प्रतीत होता है।

नवीनतम सर्वेक्षणों, गिरमिटिया के संक्षिप्त परिचय, 1834-1924 तक के 90 वर्षों के कालखंड में लगभग साढ़े चार लाख भारतीय मजदूरों की व्यथा-कथा, सारा जहाज, 39 यात्रियों के दल, पोर्टलुईस के इमीग्रेशनस्क्वायर, कुली घाट (अब आप्रवासी घाट) के प्रसंग को जिस रोचक अंदाज में लेखिका ने पाठकों के समक्ष रखा है, वह अद्भुत है। इसमें मजदूरों का जीवन-संघर्ष है तो जीवन-संघर्षों के पार निकलने की उनकी अदम्य जिजीविषा भी। “भारतवंशियों के प्रवासन की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को समेकित रूप से विश्लेषित करने पर कहा जा सकता है कि भारतीय मूल के ये लोग न तो विश्व विजय करने निकले थे, न जबरन धर्म-प्रचार के लिए और न ही अपनी भाषा और संस्कृति के किसी अन्य पर आरोपण के लिए। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक और सुखद संयोग से कम नहीं है कि जहां-जहां ये गए वहाँ-वहाँ अत्यंत सहज और स्वाभाविक ढंग से अपनी भाषा और संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन करते गए।”

इस कृति में मॉरिशस के कुल 21 प्रमुख साहित्यकारों के साक्षात्कारों में पहला साक्षात्कार मॉरिशस के प्रख्यात साहित्यकार अभिमन्यु अनत का है। इस पुस्तक में सम्मिलित मॉरीशस के प्रतिष्ठित साहित्यकारों को अकारादिक्रम में अभिमन्यु अनत, इंद्रदेव भोला, कल्पना लालजी, प्रह्लाद रामशरण, ब्रजलालधनपत, राज हीरामन, रामदेव धुरंधर, विनोद बाला अरुण, सरिता बुद्धु, हनुमान दूबे गिरधारी, हेमराज सुंदर आदि साहित्यकारों के साक्षात्कारों से पाठकों को निश्चय ही अपनी दृष्टि समृद्ध करने में मदद मिलेगी। कुल मिलाकर यह कृति डॉ. नूतन पांडेय के श्रम-संवेदना-समर्पण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

समीक्ष्य कृति : मॉरिशस नींव से निर्माण तक
(मॉरिशस की साहित्यिक सांस्कृतिक परंपरा से संवाद)
लेखिका : डॉ. नूतन पांडेय
प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन्स प्रा.लि.,
4/5-बी, आसफ अली रोड, नई दिल्ली –110002
पृष्ठ-397,  मूल्य – रु 500/-

3- मॉरीशस हिंदी नाट्य साहित्य में बखोरी जी का योगदान

मॉरीशस में हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य का सृजन हो रहा है । मॉरीशस के साहित्य का हिंदी-जगत में स्वागत भी हो रहा है। इसी समृद्ध साहित्यिक परंपरा में सोमदत्त बखोरी की रचनाधर्मिता भी महत्वपूर्ण है। बखोरी जी ने  ‘मुझे कुछ कहना है’, ‘बीच में बहती धारा’, ’सांप भी सपेरा भी’, ’नशे की खोज’ काव्य संग्रह,  यात्रा वृतांत- ‘गंगा की पुकार’, नाटक- ‘सीता स्वयंवर’, ‘पांडव वनवास’ एवं अनेक रेडियो नाटक, एकांकी  व रुपक लिखे हैं। उनका नाट्य साहित्य अप्रकाशित रह गया है ।

डॉ. नूतन पाण्डेय ने मॉरीशस प्रवास के दौरान उनके दस नाटकों की पांडुलिपियों को खोजकर अपेक्षित संशोधन के साथ उनका संकलन तैयार किया है जो ‘मॉरीशसीय हिंदी नाट्य साहित्य और सोमदत्त बखोरी’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इसमें लेखिका ने मॉरीशसीय हिंदी नाट्य साहित्य की बहती धारा के अंतर्गत मॉरीशस में लिखे गए नाटकों पर शोधपरक जानकारी दी है और सोमदत्त बखोरी के नाट्यकर्म पर विस्तार से चर्चा की है और बखोरी जी के नाटकों – बहू, सीता स्वयंवर, बहाना, घर और घरनी, निराश प्रेमी, वसंत बहार, कुर्बानी की रह पर, बिसुनी की सगाई, गुमान की गोली, जंग में रंग, गांधी बलिदान का संपादन किया है। यह साहित्य की सच्ची सेवा है जो अप्रकाशित साहित्य हिंदी संसार को मिला। मॉरीशस हिंदी साहित्य में रुचि लेने वालों और प्रवासी साहित्य पर अनुसंधान करने वालों के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी और संदर्भ के रूप में सहायक सिद्ध होगी।

समीक्ष्य कृति : मॉरीशसीय हिंदी नाट्य हिंदी नाट्य साहित्य और सोमदत्त बखोरी
लेखिका : डॉ. नूतन पांडेय
प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन्स प्रा.लि.,
4/5-बी,आसफ अली रोड, नई दिल्ली –110002                
पृष्ठ -142, मूल्य – रु 200/-

 4- मॉरीशस लेखक : रामदेव धुरंधर साक्षात्कार के आईने में

यह पुस्तक मॉरीशस के प्रख्यात लेखक रामदेव धुरंधर की साहित्यिक रचनाधर्मिता पर आधारित है। इसमें डॉ. दीपक पाण्डेय ने रामदेव धुरंधर के सात साक्षात्कारों को संपादित किया है। इन साक्षात्कारों में शामिल हैं –

डॉ. नूतन पाण्डेय- ‘शब्द ब्रम्ह हैं, जिन्हें श्रम से साधा जा सकता है’   

डॉ. सुधा ओम ढींगरा- ‘भारत में आलोचना को लेकर बहुत खेमेबाजी चलती है’

डॉ. जयप्रकाश कर्दम – ‘लेखक और आलोचक नदी के दो पाट हैं’

डॉ. दीपक पाण्डेय – ‘रामदेव धुरंधर के उपन्यासों के शिल्प कैमरे में कैद चित्र सदृश्य’

गोवर्धन यादव- ‘पूर्वजों की धरोहर संजोये रखता हूँ’

सुश्री शालेहा परवीन- ‘मेरा अंतस मेरे कथा-साहित्य में अभिव्यक्त हुआ है’

डॉ. कुसुमलता सिंह – ‘मानवीय ऊर्जा से भरी रचनाएं’

सभी साक्षात्कारकर्ताओं ने धुरंधर जी से उनकी साहित्य की आधारभूमि की गंभीरता से पड़ताल की है और धुरंधर जी ने बहुत ही गंभीरता और आत्मीयता से उत्तर दिए हैं। निश्चित ही ये संवाद मॉरीशस के हिंदी साहित्य के वैशिष्ट्य को समझने और परखने में सहायक होंगे। रामदेव धुरंधर के साहित्य पर आलोचनात्मक ग्रंथों के अभाव को यह पुस्तक कुछ हद तक दूर करने में बहुत उपयोगी साबित होगी। डॉ. दीपक  ने भूमिका में ‘मॉरीशस का हिंदी साहित्य और रामदेव धुरंधर’ पर धुरंधर जी के साहित्यिक अवदान पर बहुत ही सारगर्भित एवं विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। पुस्तक के लिए शुभाकांक्षा संदेश में डॉ. जयप्रकाश कर्दम ने रामदेव धुरंधर के साहित्यिक वैशिष्ट्य पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा है-“रामदेव धुरंधर ऐसे ही सजग रचनाकार हैं जो अपनी रचनाओं में मनुष्यता बोध की अभिव्यक्ति के साथ पाठकों के समक्ष उपस्थित होते हैं। कथा-वस्तु या कथानक का अपना महत्व होता है किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण होती है रचनाकार की दृष्टि कि वह  कथानक को किस रूप में ढालता है, अपने समय की सच्चाईयों, समस्याओं, चुनौतियों को किस तरह देखता है और उससे किस प्रकार जूझता है कि अंधेरे में भटकते समाज को रास्ता दिखाने के लिए मशाल का काम कर सके। यह कौशल ही किसी रचनाकार को बड़ा बनाता है। रामदेव धुरंधर इस कौशल से संपन्न  लेखक हैं। ‘पथरीला सोना’ उपन्यास की गंभीर विषय-वस्तु से स्पष्ट हो जाता है कि कैसे वे दो सौ सालपहले भारत से बंधुआ मजदूर के रूप में मॉरीशस गए भारतीयों के शोषण और संघर्ष की कथा कहते हुए उनके जीवन की प्रतिकूलताओं और प्रश्नों को वर्तमान के साथ जोड़कर प्रस्तुत करते हैं। मुझे नहीं लगता ‘चंद्रकांता संतति’ के अलावा ‘पथरीला सोना’ जितना वृहद कोई अन्य लिखित उपन्यास हिंदी साहित्य में उपलब्ध है। यह अकेला उपन्यास रामदेव धुरंधर को हिंदी का महान लेखक सिद्ध करने में सक्षम है।”            

 मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक जहाँ मॉरीशस के महान रचनाकार रामदेव धुरंधर साहित्यधर्मिता को समझने में सहायक होगी वहीं मॉरीशस के हिंदी साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी होगी। उत्कृष्ट कार्य के लिए डॉ.  दीपक पाण्डेय और प्रकाशक को बहुत बधाई और साधुवाद ।   

समीक्ष्य कृति : मॉरीशस लेखक : रामदेव धुरंधर साक्षात्कार के आईने में
संपादक  : डॉ. दीपक पाण्डेय
प्रकाशक : स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली –110002
पृष्ठ -152, मूल्य – रु 550/-
संपर्क :
डॉ. रमेश तिवारी, नई दिल्ली
मो. 9868722444,
ईमेल : vyangyarth@gmail.com

नरेश मेहता के प्रबंध काव्यों में मानवीय संवेदना: आधुनिक सन्दर्भ

रेखा सैनी

आधुनिक प्रबंध काव्यों के रचनात्मक आयाम उनके कवियों की सार्थक रचनाधर्मिता के ही प्रमाण है । इन प्रबंध काव्यों का प्रमुख सरोकार युगीन चेतना व मानवीय संवेदना की सशक्त अभिव्यक्ति है । मानवीय व्यक्तित्व, मानवीय प्रकृति व मानवीय सत्ता के संघर्ष व जिजीविषा के मूल्यांकन को प्रबंध काव्यकारों ने विविध रूपों में व्यक्त किया है । पारम्परिक कथाबंधों का नयी अर्थवत्ता के साथ ग्रहण इन आधुनिक प्रबंध काव्यों का महत्वपूर्ण आयाम है । ‘‘इसके अन्तर्गत अतीत के क्रम में वर्तमान को स्थापित करते हुए, परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समकालिकता का मूल्यांकन कर जीवनगत महत्वपूर्ण तथ्य एवं निष्कर्ष प्ररूतुत किये है ।’’[1]

संवेदना ही वह तत्व है जो कि कवि को काव्य रचना हेतु अग्रसर करती है । संवेदन जितना तीव्र होगा, उतना ही उसका तेज असर होगा और उसकी अभिव्यक्ति भी उसकी शक्ति व क्षमता के साथ हो सकेगी ।’’[2] अतः साहित्यकार एक संवेदनशील सृजक है । वह मानवीय अनुभूति को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखता हैं । नरेश मेहता जी का प्रबंध काव्य इसका प्रमाण है । आधुनिक कवि श्रीनरेश मेहता ने प्रबंध काव्यों में मानव के उन चिंरतन भावों की अभिव्यक्ति की है, जो युग परिवर्तन के साथ अपना स्वरूप व संदर्भ तो बदलते जा रहे है, लेकिन इनकी महता व प्रकृति आज भी शाश्वत उपस्थिति का संकेत करती है । नरेश मेहता के प्रबंध काव्य ‘संशय की एक रात’, ‘प्रवाद पर्व’ रामकथा आधारित तथा ‘महाप्रस्थान’ महाभारतीय कथा आधारित है । इन काव्यों का प्रमुख प्रतिपाद्य मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति है । इनका काव्य पाठक को संवेदना से जोड़कर सत्य की अनुभूति कराता है । मेहता जी की रचनाएं पाठक के संवेदन को गहराई और विस्तार प्रदान करती है ।

परम्परागत प्रबंध काव्यों की बाह्यता व स्थूलता को त्यागकर नरेश मेहता ने आधुनिेक चेतना के सूक्ष्म व संश्लिष्ट रूप को ही रचनाओं का आधार बनाया है । सम्पूर्ण कथा के स्थान पर किसी प्रसंग, घटना अथवा संदर्भ विशेष को लेकर ही प्रबंध रचनाएँ अधिक हो रही है । वैचारिक स्थापनाएँ, मनोगत भावों का अन्तर्द्वन्द, आधुनिक भाव दशाएँ आदि की प्रस्तुति ज्यों-ज्यों बढ़ती जा रही है, प्रबंधों की कथागत स्थिति भी स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ रही है ।’’[3] आधुनिक मानव की संवेदनाओं की अभिव्यंजना हेतु कवि नये प्रयोग करता है । युग जीवन के यथार्थ को चित्रित व अभिव्यक्त करना आधुनिक प्रबंध काव्यों का मूल उद्देश्य है ।

नरेश मेहता के प्रबंध काव्य ‘संशय की एक रात’ की रात में न तो ऐतिहासिक राम है और न भविष्य प्रणेता कहे जा सकते है । वे आज के कवि के लिए आधुनिक व्यक्ति की संशयात्मक मानसिकता व संकल्प-विकल्प की द्वन्द्वात्मक स्थिति को अभिव्यक्त करने का माध्यम है । राम के माध्यम से नरेश मेहता ने मानवीय संवेदन को स्पष्ट किया है । लक्ष्मीकान्त वर्मा इस सन्दर्भ में लिखते हैं- ‘‘आधुनिक विसंगतियों का राम में आरोपण तथा उनके माध्यम से अपने युगों की समस्याओं के समाधान के रूप में विपरीत मूल्यों, बोधों ओैर मान्यताओं के बीच एक सही दृष्टि अपनाने की प्रेरणा ही मूल अभीष्ट है ।’’[4] राम जब सीता की मुक्ति चाहते है युद्ध से पूर्व युद्ध जन्य विध्वंस के बारे में पूर्व विचार कर चिंतामग्न है । उस समय स्थिति का चित्रण इस काव्य में हुआ है । विभिन्न समस्याओं की अन्तर्द्वन्दता से जुझता राम स्वयं को सामूहिक निर्णय को सौपने पर भी पूर्ण आश्वस्त नही हो पाता । यही मानवीय संवेदना और वैयक्तिक विसंगति यहां स्पष्ट है जो आधुनिक मानव की भी विसंगति है-

“दो सत्य/दो संकल्प/दो-दो आस्थाएँ/व्यक्ति में ही अप्रमाणित व्यक्ति पैदा हो रहा है ।“[5]

***

“यदि मै मात्र कर्म हूँ/तो यह कर्म का संशय है/ यदि मैं मात्र क्षण हूँ तो यह क्षण का संशय है/

यदि मैं मात्र घटना हूँ / तो यह घटना का संशय है ।“[6]

अतः स्पष्ट है कि मानव की नियति संशयात्मक है । इस काव्य में मन की इस संशयात्मक संवेदना को अभिव्यक्ति मिली है । जो आाधुनिक मानव की मानसिक स्थिति, मनोव्यथा, आत्मसंशय की अभिव्यक्ति है । ‘‘मानस संवेदना और अनुभूति के आधार पर मूल्यों का अन्वेषण करता है । इस कृति के माध्यम से नरेश मेहता ने राम को एक प्रज्ञा प्रतीक के रूप में आधुनिक मानव का प्रतिनिधि बनाकर युगीन संशय वैषम्य और विंसगतियों के द्वारा युगानुरूप नयी धारणाए और नए मूल्य खोजने की चेष्टा की है आधुनिकता संस्कृति का एक नया दौर है । इस दौर में राम का मिथक अलग-अलग संवेदनात्मक और विचारात्मक संदर्भों से जुड़कर अभिव्यक्त हुआ है, नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’ में प्रस्तुत किया है । ‘संशय की एक रात’ मूल्यों और मान्यताओं के उहापोह को प्रस्तुत करने वाला काव्य है । परस्पर संघर्ष, विपरीत मूल्यों और मान्यताओं को समकालीन मूल्यों की कसौटी पर कसते हुए एक फेर-बदल किया है ।’’[7]

नरेश मेहता का ‘महाप्रस्थान’ प्रबंध काव्य महाभारत के युद्धोपरांत पाँडवों द्वारा द्रौपदी सहित स्वर्गारोहण हेतु प्रस्थान के प्रसंग पर आधारित है । इस प्रबंध काव्य में मेहता जी ने मानवीय संवेदनाओं को महाभारतीय समाज और युद्ध की पृष्ठभूमि में चित्रित किया है । ‘‘प्रत्येक मनुष्य के भीतर आरत्रिक रामायण सम्पन्न होती है तो आक्षण अपनक परिवेश में वह महाभारत का साक्षात करता है । अपनी प्रकृति, संस्कार, गुण, धर्म तथा स्वत्व के अनुरूप् हर इन कथा गाथाओं में हम अपना पक्ष निर्धारित करते है ।’’[8] राजव्यवस्था, युद्ध जनित परिस्थितियां व उसके कारण, राज्य की गरिमा के समक्ष मानव का अस्तित्व, जीवन मूल्य आदि भी काव्य में अभिव्यक्त हुए है । ‘‘युधिष्ठिर के महाप्रस्थापिक आख्यानक के माध्यम से कवि ने जिन संदर्भों को उठाया है उसमें चाहे अन्धे धृतराष्ट्र की कुटिलता हो या भीष्म और द्रोण जैसे आचार्यों का असत्य का पक्षधर होना हो या दुर्योधन का कुटिल दंभ अठारह दिन का महायुद्ध जिसमें विजयी और पराजित सभी अकिंचन से हो गए । आज के संदर्भ में उतना ही प्रांसगिक है ।’’[9] आधुनिक सन्दर्भ में ‘महाप्रस्थान’ जिस कथ्य को चित्रित करता है वह विशिष्ट होते हुए भी साधारण मानव की संवेदनाओं की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति ही कही जा सकती है । उदाहरणार्थ-

‘‘किसी भी साम्राज्य ये बड़ा है/ एक बंधु/ एक अनाम मनुष्य! /मुझे मनुष्य में विराजे देवता में/ सदा विश्वास रहा है ।’’[10]

‘‘सारे मानवीय दुःखों का आधार/ यह राज्य है/ राज्य व्यवस्था है और राज्य व्यवस्था का दर्शन है ।’’[11]

राज्य के नहीं धर्म के नियमों पर समाज आधारित है/ राज्य पर अंकुश बने रहने के लिए/ धर्म और विचार को/ स्वतंत्र रहने दो पार्थ!’’[12]

मेहता जी ने महाप्रस्थान में व्यक्ति की आन्तरिक भावाभिव्यक्ति, सुख-दुःख, धर्म, व्यवस्था, नियम, समाज आदि को आधुनिक स्वरूप प्रदान किया है । मानव मन की उद्गार, संवेदना को सहजता से अभिव्यक्त किया है । ‘‘राज्य व्यवस्था की अमानवीय क्रूरता निरंकुशता युद्धों की विनाशकारी भयावहता और व्यक्ति की महत्ता पर कवि ने सम्यक प्रकाश डाला है । इस पर्व में मूल महाभारत और व्यक्ति की महत्ता पर कवि ने सम्यक प्रकाश डाला है ।’’[13] इस कृति के चिन्तन का मूल केन्द्र बिन्दु युधिष्ठिर है जिसके द्वारा कवि ने तत्कालीन संवेदना और स्थिति को स्पष्ट किया है साथ ही समकालीन बोध भी प्रस्तुत किया है इस प्रकार युधिष्ठिर मूल्यान्वेषी व्यक्ति है ।

‘प्रवाद पर्व’ नरेश मेहता का तीसरा प्रबंध काव्य है । इस काव्य मे कवि ने व्यक्ति की अभिव्यक्तिजन्य स्वतंत्रता के मूल अधिकार के संरक्षण हेतु राज्य एवं व्यक्ति संबंधों को प्रस्तुत किया है । रामायण के सीता निर्वासन के प्रसंग का कारण एक धोबी का प्रवाद था । आधुनिकता के सन्दर्भ में कवि ने व्यक्ति की इयत्ता, मानवीय गरिमा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व उसके मूल्य आदि के रूप् में अनेक समसामयिक संदर्भों को कृति का कथ्य बनाया है । वर्तमान मानव की संवेदनात्मक समस्याओं की अभिव्यक्ति कवि ने इस प्रबंध काव्य में की है । मानव आपातकालीन स्थितियों, दबावों, तनावों और नियंत्रणों में अक्षुण्ण रह सके, इस हेतु प्रवाद पर्व का सर्जन हुआ । उदाहरणार्थ-

‘‘जब भी/ ऐसी तर्जनी उठती है/ तब/ राजतंत्र और इतिहास कोलाहल से भर उठते है/ क्योंकि/ वह मात्र अंगुली नहीं होती राम! उसका एक प्रतिऐतिहासिक व्यक्तित्व होता है/ महत्व भी ।’’[14]

‘‘मनवीय स्वातंत्र्य/ मानवीय भाषा और/ मानवीय अभिव्यक्ति के प्रतिइतिहास का सामना/ वैसी ही / मानवीय प्रतिगरिमा के साथ करना होगा लक्ष्मण!’’[15]

‘‘राज्य और न्याय को / प्रतिष्ठापित होने दो भरत! यदि ये तत्वदर्शी नहीं होते तो एक दिन/ निश्चय ही ये भय के प्रतीक बन जायेंगें ।’’[16]

नरेश मेहता के आधुनिक राम ने मानव की प्रत्येक अभिव्यक्ति को महत्व प्रदान किया है । मानव के राज्य के प्रति भय का निष्कासन कर निर्भय बनाया है । जो अपनी संवेदनाओं को राजा के समक्ष प्रकट कर सके तथा राज्य उसके कथनों को, अभिव्यक्ति को सम्मान प्रदान करे । इस हेतु श्री राम को अपने दाम्पत्य संबंधों की बलि भी देनी पड़ी है । केवल एक साधारण मानव के स्वतंत्र कथन को सम्मान अर्थात प्रजा के अभिव्यक्ति के सम्मान हेतु । नरेश जी ने इन प्रसंगों मे महामानव को साधारण मानव की संवेदना का संस्पर्शी घोषित किया है ।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि युग जीवन के यथार्थ एवं मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति आधुनिक प्रबंध काव्यों का प्रमुख उद्देश्य है । आधुनिकता ने सर्वप्रथम युग व युग की आवश्यकता व मांग को आंकलित किया है । वर्तमान प्रबंध काव्य रचनाओं का स्वरूप जितना सूक्ष्म व लघु हुआ है उतना ही विस्तृत विशद व गहन अभिव्यक्ति ये काव्य कर रहे है । नरेश मेहता ने प्रबंध काव्यों में युगीन संवेदना, संघर्षशील मानवास्था, मूल्यगत संक्रमण, युगीन यथार्थ व नवनिर्मित मूल्यबोध आदि संदभों में चित्रित किया है । मानवीय संवेदन की इस परिचर्चा में मानवीय नियति को किसी संकुचित भाग्यवादी दृष्टि से नहीं अपितु व्यापक आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखा गया है ।

संपर्क:
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
वनस्थली विद्या पीठ (राजस्थान)

[1] डॉ. उर्वशी शर्मा, नव्य प्रबंध काव्यों में आधुनिक बोध, प्र.स. 15, बोहरा प्रकाशन, जयपुर, 1997

[2]डॉ. नवीन चन्द्र लोहनी, अज्ञेय की काव्य चेतना के आयाम, पृष्ठ  सं. 91, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 1996

[3] डॉ. उर्वशी शर्मा, नव्य प्रबंध काव्यों में आधुनिक बोध, प्र.स. 9, बोहरा प्रकाशन, जयपुर, 1997

[4]लक्ष्मीकांत वर्मा, नयी कविता के प्रतिमान, पृष्ठ  सं. 259

[5]नरेश मेहता, संशय की एक रात, प्र.सं. 22-23

[6]वही,  पृष्ठ  सं. 51

[7]अनीता कुमारी, कविता में नरेश मेहताः एक अनुशीलन, पृष्ठ  स. 75, लोकवाणी संस्थान, दिल्ली, 1997

[8]नरेश मेहता, समीधा भाग-2, भूमिकाएं, पृ.सं.537, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994

[9]अनीता कुमारी, कविता में नरेश मेहताः एक अनुशीलन, पृ.स. 83, लोकवाणी संस्थान, दिल्ली, 1997

[10]नरेश मेहता, महाप्रस्थान, पृष्ठ  सं. 98

[11]अनीता कुमारी, कविता में नरेश मेहताः एक अनुशीलन, पृ.स. 86, लोकवाणी संस्थान, दिल्ली, 1997

[12] वही , पृष्ठ  सं. 110

[13] वही , पृष्ठ  सं. 110

[14]नरेश मेहता, प्रवाद पर्व, प्र.सं. 13

[15] वही ‘‘      ‘‘ पृष्ठ  सं. 38

[16]वही ‘‘      ‘‘ पृष्ठ  सं. 30    

अज्ञेय की काव्य संवेदना और असाध्यवीणा

रामचन्द्र पाण्डेय

प्रयोगवादी कवियों में अग्रगण्य सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय शब्दों में नये अर्थ का अनुसन्धान करने वाले बल्कि यूँ कहें कि अर्थों मे नयी चेतना की जीवन्त झंकृति भरने वाले स्वर साधक रचनाकार हैं । उनकी रचनाओं का दायरा बहुत विस्तीर्ण है जिसमें प्रमुखतया अपने देश की माटी की सोंधी सी गन्ध सर्वत्र व्याप्त है। एक ओर उनके काव्य में आशा की ज्योति का और अदम्य उत्साह का प्रवाह है तो दूसरी ओर जीवनजन्य अनुभवों की व्यापकता भी चित्रित है। एक ओर वे मृत होते हुए शब्दों में नयी जान फूंक  देते हैं तो दूसरी ओर शब्दों को एक नवीन अर्थ भी प्रदान करते चलते हैं। वे सच्चे अर्थों में शब्द-संधित्सु साहित्यकार हैं। पं0 विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में- ‘‘वे शब्द की खोज के लिए परेशान नहीं हैं, परिचित शब्दों मे नये अर्थ की खोज करना चाहते हैं, परिचित प्रत्ययों में नये प्रत्यय की खोज करना चाहते हैं। वे परायें देशों की बेदर्द हवाओं और उनके नंगे अंधेरे से खिन्न विकल और संत्रस्त हैं, केवल अपनी छोटी सी ज्योति से आश्वस्त हैं क्योंकि यह ज्योति उनकी अपनी है, अपने प्रयत्न से अर्जित है, अपने अनुभवों से दीप्त है”।[1]

वस्तुतः वे एक साथ जीवन में अर्थ का सन्धान करने वाले रचनाकार हैं और रचना में अर्थ का अनुसंधान करने वाले आलोचक भी और साथ ही साथ वे आधुनिक भारतीय चिन्तकों की उस शीर्षस्थ श्रेणी में भी परिगणित हैं जो अपनी साहित्य साधना से वास्तविक जीवन में समरसता की वीणा के स्वरों की मधुर झंकृति सुनना चाहता है और उनकी इसी साधना की परिणिति है ‘असाध्यवीणा‘। असाध्यवीणा वस्तुतः समष्टि में व्यष्टि के विलयन का विश्व-वीणा के स्वर की झंकृति में अपने अहम् के बलिदान की मानवीय रचनात्मकता की अदम्य जीवनी शक्ति का जीवन्त दस्तावेज है। तभी तो केशकम्बली प्रियंवद के आगमन पर राजा के विश्वस्त कण्ठ से यह स्वतः प्रस्फुटित होता है कि-

‘‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।

भरोसा है अब मुझको

साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी”।[2]

इन पंक्तियों के माध्यम से अज्ञेय यह कहना चाहते हैं कि जनसमुदाय ऐसे व्यक्तियों पर ही विश्वास कर सकता है जिसने निरन्तर साधना के द्वारा अपने अहं का विसर्जन कर दिया हो, स्वत्व का विलयन कर दिया हो, ऐसा व्यक्ति ही, ऐसा साधक ही विश्व-वीणा में मानवीय स्वरों की, समरसता की झंकृति को भर सकता है, उसकी छुअन से ही विश्व-वीणा की रागिनी प्रकट हो सकती है। अब तक के सारे कलावन्तों की असफलता का कारण भी यही था कि उनमें अकारण दर्प और अहंकार विद्यमान था। राजा का यह कथन इस बात का प्रबल साक्ष्य भी प्रस्तुत करता है-

“मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,

सब की विद्या हो गयी अकारण, दर्पचूरः

कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।

अब यह असाध्यवीणा ही ख्यात हो गयी।

पर मेरा अब भी है विश्वास

कृच्छ् तप बज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।

वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी

इसे जब सच्चा स्वरसिद्ध गोद में लेगा”।[3]

अज्ञेय का मानना है कि कोई कलाकार सच्चे अर्थों में कलाकार तभी होगा जब उसने अपनी कला में अपने व्यक्तित्व को घोल दिया हो, वह अपनी साधना में इस प्रकार डूब जाय कि साध्य और साधक का भेद ही मिट जाय और बचे तो सिर्फ साधना जो अपने ही प्रकाश से भाष्यमान होकर जगत् में फैली हुई कालिमा को भस्मीभूत कर सके।

असाध्यवीणा का नायक प्रियंवद भी अपने व्यक्तित्व को अपनी साधना में घोलकर इस प्रकार एकतान हो जाता है कि उसके स्वत्व का कहीं पता ही नहीं चलता। वह जानता है कि साधना समर्पण माँगती है और समर्पित व्यक्ति ही अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। हिन्दी के भक्तिकालीन कवियों ने भी परमात्मा के चिन्तन में अपने आपको इस प्रकार संलग्न करने की शिक्षा दी कि स्वयं ‘आत्म‘ में ही ‘परमात्मभाव‘ जाग उठे- ‘जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होइ जाई, मानुष प्रेम भयऊ बैकुण्ठी, हरिजन ऐसा चाहिए जैसा हरि ही होय‘ जैसी पंक्तियाँ इस बात की साक्षी हैं। प्रियंवद भी तो वीणा से यही निवेदन करता है-

‘‘मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!/ओ रे तरु! ओ वन!

ओ स्वर-सम्भार?/नादमय संस्कृति!/ओ रस प्लावन!

मुझे क्षमाकर- भूल अकिंचनता को मेरी-

मुझे ओट दे-ढँक ले- छा ले-/ओ शरण्य!

मेरे गूंगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!

आ मुझे भुला,/तू उतर बीन के तारों में

अपने से गा/अपने को गा-

अपने खग कुल को मुखरित कर

अपनी छाया में पले मृगों की चैकडि़यों को ताल बाँध,

अपनी छाया तप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर

अपने जीवन-संचय को कर छन्दयुक्त,

अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!/तू गा, तू गा-

तू सन्निधि पा- तू खो/ तू आ- तू हो- तू गा! तू गा”![4]

और इसी का परिणाम है कि प्रियंवद सदियों से न साधी गयी वीणा में एक ऐसे स्वर को गुंजायमान बना देता है जो सबको अपना लगता है-

‘‘किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल ध्वनि

किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।

किसी एक को जाल फँसी मछली की तड़पन-

एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिडि़या की”।[5]

क्या ये पंक्तियाँ कामायनीकार जयशंकर प्रसाद की इन पंक्तियों की याद नहीं दिलाती-

‘‘समरस थे जड़ या चेतन सुन्दर साकार बना था

चेतनता एक विलसती आनन्द अखण्ड घना था।‘‘

वस्तुतः ‘जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी‘ कलावन्त विश्व-वीणा में ऐसे ही स्वरों की झंकृति भरना चाहता है जिससे सभी सुखी, सम्पन्न और आनन्दपूरित हों। इन्हीं अर्थों में अज्ञेय सच्चे स्वर साधक से सच्चे जीवन साधक रचनाकार बन जाते हैं। खासियत यह कि सारी ऊर्जस्वित साधना के बावजूद श्रेय स्वयं न लेकर उसी सर्वशक्तिमान, समष्टि के आराध्य को समर्पित कर देता है-

‘‘श्रेय नहीं कुछ मेराः

मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-

वीणा के माध्यम से अपने को मैनें

सब कुछ को सौप दिया था”।[6]

यही समष्टिभाव की आराधना और विश्व-वीणा में अपने स्वर को विलीन कर देना ही ‘असाध्यवीणा‘ को साध्य बना देता है और अज्ञेय को जीवन के विविध अनुभवों की वास्तविकता का साक्षी भी। अस्तु वे एक सच्चे जीवन-साधक रचनाकार बन जाते हैं।

संपर्क:
शोधछात्र,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी, उत्तर प्रदेश

[1] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 32

[2] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 94      

[3] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 95

[4] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 101-102

[5] मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय, पृ0सं0 104

[6]मिश्र, विद्यानिवास, अज्ञेय प्रतिनिधि कविताएँ एवं जीवन परिचय पृ0सं0 105

भगवती देवी की कविताएँ

कैद के अन्दर कैद  

देखा सड़कों को उदास 

गलियों को रोते हुए 

मैंने देखा 

सड़कों को सुबकते हुए 

समय बिलकुल थम गया

हमें घर में कैद 

होना पड़ा 

और छोड़ना पड़ा

सड़कों को सड़कों पर उदास।

यह ऐसा समय था 

जिसमें सड़कों पर 

नहीं थे स्कूल जाते बच्चे

न ही अख़बार बेचते बच्चे

नहीं था ठेले वाला 

नहीं था रिक्शे वाला 

नहीं थी गाड़ी 

नहीं थी रेलगाड़ी

हवाई जहाज़ के पहिए भी 

रुक गए

ये ऐसा समय था 

जब योगी गेट*  की सांसे भी 

फूल चुकी थी 

अन्तिम यात्रा को कंधा नहीं था

सड़कों के साथ 

पूरा संसार उदास था 

ये संदेह से भरा समय था 

डर को और ज़्यादा महसूस किया

यह कैद के अन्दर 

एक और कैद की यातना का समय था।  

*(योगी गेट – जम्मू में एक शमशान घाट)

उसकी आँख

मुझमें वह ढूँढ़ा गया

जो मुझमें था ही नहीं

मीलों चलकर भी 

वह मुझ तक कभी न पहुँच सका

वह जिस दिशा में चलता रहा

वहाँ मेरी तलाश का एक बीज तक न था

वहाँ तो उसकी अपनी आँख टंगी थी।

नाप

जीवन जीना सबके हिस्से में कहाँ

बेहतर सोचना सबके हिस्से में कहाँ

मन की पतंगे उड़ाना सबके बस में कहाँ

सबकी छाप में कहाँ-

भीड़ छोड़कर

सामूहिक गीत गाना सबके गलों की नाप में कहाँ !

 

दिलवाला ना मिला

सुबह से शाम

महीने से साल

साल भर से साल भर

घूमा गया शहर

 कोई रूह में

उतरता ना मिला

ठग मिले

लोभी मिले

बातों में बातें डालने वाले मिलें

कान के कच्चे मिलें

बने बनाएं दिमाग  के मिलें

 हाथ से तंग मिलें 

कईं बेढंग मिलें

कोई बड़े  दिल वाला ना मिला …

एक दूसरे को

चूसने वाले मिलें

नोचने वाले मिलें

रीड की हड्डी

तोड़ने वाले मिलें …

टूटते घर मिलें

टूटे व्यक्ति मिलें

बिखरे-बिखरे

पल मिलें

कोई अपना ना मिला ।

माँ

मैं देख रही थी

चुपके से

खिड़की के झरोखे से

मां के माथे पर

उभर आ‌‌ईं सिलवटें …

वहां नहीं थी वह

जहां दिख रही थी

वह पढ़ रही थी

खोज रही थी खुद को

65 की उम्र में…

जो बहुत पहले थी

इस समय हरगिज़ नहीं थी वह

उसके द्वारा बुने गए

तमाम सपने,

तमाम उड़ानें और आकांक्षाएं हवा में ही थीं…

कहां गया उसका समय

जो उसकी मुट्ठी में था

कहीं फिसलता ही चला गया

रेत की भांति

जीवन की पगडंडी पर

चलते-चलते…

माथे की सिलवटें बताती

वह भरे पूरे घर में

अकेलेपन का दंश झेल रही है

सबकी ज़िंदगियां बनाने के बाद

अब वह कहीं नहीं थी…

उसी दिन निहार रही थी शीशा

तलाश रही थी वह  खुद को

झुर्रियों से भरे चेहरे में…

आज वह थकी हुई

बैठी थी चूल्हे के पास…

बस चूल्हा ही था

जो उसे भीतर तक समझ पाया

भरे पूरे घर में…

वही एक खास साथी निकला

जिससे मां

जीवन के गूढ़ रहस्य

साझा करती

और तृप्त रहती…

कर भी क्या सकते हो

जो रास्ते में हैं

मंज़िल पा ही लेंगें

यू भ्रमित करने से

थोड़ा ही घबराती हूं

होले होले से

तोड़ने की कोशिश…

यह सब बेकार है

तुम्हारी चिकनी चुपड़ी बातों में

थोड़ा ही आने वाली हूँ

तमाम  साजिशों को

मिट्टी में मिलाने वाली हूँ।

यह मेरी पीठ के निशान

मिटाने से तो नहीं मिटेंगे

रचा है तुमने अपने कर्मो का इतिहास

तुम्हारी चालाकियों से थोड़े ही मिट जाएगा।

अहं से चूर कर भी क्या कर सकते हो

यही कर सकते हो ।

इस शहर से…

यहाँ  तो 

बड़े-बड़े लोगों की 

छोटी-छोटी बातें हैं 

यह चाहिए क्या…

यहाँ तो 

छोटे-छोटे लोगों के 

बड़े-बड़े सपनें 

फैक्टरी से निकलते धुंएं में ही 

धुआंधार हो जाते हैं

यहाँ एक्सक्यूज मी कहकर

बदले जाते हैं इरादे 

खचाखच शहर में

चींखें नहीं देती सुनाई कहीं भी 

मन की भयंकर पीड़ा

मन में ही घूमतीं है यहां 

मन में ही लड़े जाते हैं युद्ध

और हिल जाती  हैं 

व्यक्ति की ही पसलियां …

यहाँ तो 

अच्छा भला व्यक्ति 

या तो 

मनोरोगी हो जाता है 

या फिर 

भोगी हो जाता है

इस शहर से 

तुम्हें चाहिए क्या…

संपर्क :
भगवती देवी
लेक्चरर, हिंदी विभाग
जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू
जम्मू – कश्मीर
drbhagwativ@gmail.com

बदलते परिदृश्य में स्त्री का स्वरूप

-स्वाति सौरभ

वक्त के साथ सोच और भारत में स्त्रियों की स्थिति में बहुत बदलाव हुए हैं। आज जहाँ नारी पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है, वहीं किसी-किसी क्षेत्र में तो पुरूषों को पीछे छोड़ती भी नजर आ रही हैं। पुरुष प्रधान समाज में प्राचीन काल से ही नारी कई रूढ़िवादी परम्पराओं की बेड़ियों में बंधी रही है। जो आज कम जरूर हुई हैं परन्तु खत्म नहीं। कल भी नारी पर ही उंगली उठती थी और आज भी कटघरे में नारी ही खड़ी रहती है। चुनौतियां खत्म नहीं हो रही बल्कि बदलते परिदृश्य में नए नए रूपों में सामने खड़ी हो रही हैं।

ये भी कटु सत्य है कि वक्त चाहे कितना भी बदल जाए लेकिन औरत को अपने हक के लिए पहले खुद को साबित ही करना पड़ा है। रामायण में जहाँ सीता के चरित्र पर ही उंगली उठी, राम पर नहीं। सीता को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और धरा में समाकर खुद को पवित्र साबित करना पड़ा। महाभारत में भी द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया गया, बिना उनकी मर्ज़ी के। क्योंकि शायद औरत होने के कारण उनसे उनकी मर्ज़ी जानना जरूरी नहीं समझा गया। आज भी वक्त जरूर बदला है, नारी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति में सुधार हुई है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नारी की क्षमता पर आज भी सवाल खड़े किए जाते हैं। जिसका एक ताज़ा उदाहरण है अभी हाल में 17 वर्षों से चल रही लंबी कानूनी लड़ाई के बाद महिलाओं को सेना में बराबरी का हक मिला है। इस कानूनी लड़ाई में विपक्ष की ओर से दलील में महिलाओं की शारीरिक, मानसिक क्षमताओं पर सवाल उठाए गए थे। जिसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी कि सरकार अपनी मानसिकता बदले। हम महिलाओं पर एहसान नहीं कर रहे, उन्हें उनका हक दे रहे हैं। अजीब बात है न ! नारी की क्षमता पर ही सवाल क्यों? सुप्रीम कोर्ट द्वारा मिली इस जीत ने ये तो जरूर साबित कर दिया कि महिलाओं को कमजोर समझने वाली मानसिकता में अब बदलाव लाने की जरूरत है।

आज नारीशक्ति ने लगभग हर क्षेत्र में अपना परचम लहराया है। सिर्फ घर की ही शोभा बनकर आज नारी नहीं रह गई है, जिस भी क्षेत्र में काम करती हैं अपनी निष्ठा पूर्वक काम करने के तरीके से, अपनी मेहनत से खुद की अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं। आईएमएफ जैसी संस्था की चीफ भी बनकर नारी ने दिखाया दिया है कि कोई भी क्षेत्र या कार्य उनसे अछूता नहीं है। बैंक, रेलवे, टीचिंग जैसे क्षेत्रों में सेवा देकर अपनी पहचान बना चुकी हैं वहीं अब खेल के क्षेत्र में भी अपना दमखम दिखाया है। एवरेस्ट की चोटी पर भी फतह करने वाली नारी की शारीरिक क्षमता पर सवाल उठाया जाना कितना सही है! जो स्त्री 25-30 वर्षों तक अपने घर रहकर जब शादी कर दूसरे के घर जाती है तो उस परिवार को भी अपना बनाने का प्रयास करती है। जो स्त्री दूसरे परिवार में खुद को शामिल कर लेती है, उन्हें अपना बना लेती है, उनकी मानसिक क्षमता पर सवाल उठना क्या सही है?

नारी मां बनकर अपनी जिम्मेदारियां संभालती हैं तो पत्नी बनकर अपना धर्म भी निभाती हैं। बेटी बनकर घर की शोभा बढ़ाती हैं तो बहन बनकर साथ भी निभाती हैं और जब जरूरत पड़ती है तो यही नारी शस्त्र भी उठाती हैं। अगर नारी ने हाथ में चूड़ी, गले में मंगलसूत्र और मांग पर सिंदूर लगा कर अपने संस्कारों का परिचय देती हैं तो यही नारी रानी लक्ष्मीबाई बनकर अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए तलवार भी उठाती हैं। सावित्री बनकर यमराज से पति के प्राण भी वापस मांगकर लाने की क्षमता रखती हैं। अगर नारी की सहनशक्ति धरा स्वरूप है तो यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी का भी रूप धारण करती है।

इस पुरुष प्रधान समाज ने कई तरह के कुरीतियों और अंधविश्वासों को संस्कार और परम्परा का नाम देकर महिलाओं को हमेशा से ही जंजीरों में बांधे रखने की कोशिश की है। जैसे – जैसे महिलाएं शिक्षित होती गईं खुद को इन जंजीरों से तोड़कर बाहर निकालने में सफल हुई हैं। लेकिन आज के दौर में भी कई परम्पराओं की बेड़ियों से बंधी महिलाएं, अंधविश्वास को आस्था का नाम देती नजर आती हैं। परन्तु वक्त में काफी हद तक बदलाव हुए हैं और होते भी रहेंगे। महिलाएं हर क्षेत्र में खुद को साबित कर चुकी हैं और अपना परचम भी लहरा रही हैं और लहराती रहेंगी।

स्वाति सौरभ
भोजपुर, बिहार
sourabh.swati6@gmail.com

आदिवासी विरासत और जीवन-यथार्थ का प्रतिनिधि स्वर: कोनजोगा

समीक्षक : पुनीता जैन

आदिवासी गीत-परंपरा के वाचिक रूप में उनका सहज जीवन-बोध, प्रकृति-प्रेम, संस्कृति, स्थानीयता की मौलिक गंध मौजूद है जो उनकी आत्मा के संगीत और जीवन की स्वाभाविक लय के साथ अभिव्यक्त होती रही है। जबकि वर्तमान परिवेश में लिखी जा रही आदिवासी कविता उनकी गरिमा को पहुँचाए गए आघात के विरूद्ध प्रतिरोध की आवाज़ है। साथ ही इसमें अतीत और वर्तमान परिस्थितियों के अन्तर्विरोध, सांस्कृतिक संक्रमण, सामाजिक विद्रूप, संघर्ष और यातना के चित्र भी उत्कीर्ण हुए हैं। अपने मूल निवास से बार-बार के विस्थापन का त्रास केवल पीड़ा को ही नहीं वरन् भविष्य के प्रति एक गहरी चिंता को भी जन्म देता है, जिसमें जंगल ही नहीं सम्पूर्ण प्रकृति, आदिवासी संस्कृति, भाषा और अस्मिता के लिए विकलता निहित है। इसी विकल स्वर को अभिव्यक्ति देने हेतु आदिवासी कवि हिन्दी में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। अपने स्थान से विच्छिन आदिवासी समुदाय जड़विहीन होकर जिन भीषण स्थितियों का सामना करने को विवश हुआ, दमन, हिंसा और यातना से गुजरता रहा, हिन्दी जगत को उसके विशद रूप से परिचित होना अभी शेष है। अपने मूलभूत परिवेश से उखड़ा यह समुदाय नैसर्गिक आर्थिक आत्मनिर्भरता से ही विच्छिन्न नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश, जीवन-शैली और स्वाभाविक पर्यावरण से ही विलग कर दिया जाता है, ऐसी स्थिति में उनकी पहचान का संघर्ष, पहचान के नित खंडित होते जाने का भी संघर्ष है। वर्चस्वशाली संस्कृति, भाषा और जीवन-शैली की अधीनता की स्थिति में अस्मिता के संकट की चिंता का अधिक प्रखर हो जाना स्वाभाविक है। वस्तुतः सांस्कृतिक और सामाजिक दमन, उत्पीड़न और अन्याय की स्थिति में कविता ही वह जगह है जहाँ यातना के सत्य की आवाज़ को विस्तार मिलता है। वर्तमान आदिवासी कविता अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अन्याय को स्वर देते हुए प्रकृति और मानव के संबंधों पर पुनर्विचार के लिए जगह बनाने का कार्य करती है। वंदना टेटे इसी स्वर की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, वे न केवल आदिवासी विचार और दृष्टि को दृढ़़तापूर्वक हिन्दी जगत के सम्मुख रखती हैं बल्कि अपनी रचनाशीलता द्वारा भी प्रभावित करती हैं। वंदना टेटे का आदिवासियत विषयक चिंतन अत्यंत मौलिक और प्रखर है। वे स्पष्टता से अपना मन्तव्य रखते हुए आपत्तियाँ दर्ज कराती हैं।

खड़िया भाषी वंटना टेटे की प्रथम कविता ‘समझौता’ आदिवासी’ पत्रिका में सन् 1984-85 में छपी थी। ‘कोनजोगा’ (2015) उनका प्रथम काव्य-संग्रह है। ‘कोनजोगा’ ‘एक पहाड़ है जो खड़िया आदिवासी समुदाय का सांस्कृतिक स्थल है तथा झारखंड के गुमला जिले में स्थित है। आदिवासी कवि कविता विधा को किस रूप में देखते हैं, तद्विषयक विचार जानना आवश्यक है। वंदना टेटे का साहित्य के स्थापित मानदंडों को अस्वीकार करने व कविता को अपने नज़रिए से देखने का सुस्पष्ट तर्क व दृष्टिकोण है- “मैंने कभी ये नहीं सोचा कि लिखी गयी कविता अच्छी है या नहीं। कविता है भी या कि नहीं। मुझे लगता है कि जैसे पेड़-पौधों पर नैसर्गिक रूप से फूल खिलते हैं, आसमान में सूरज, चाँद-सितारे और बादल मनोहारी कलाएँ रचते हैं वैसे ही व्यक्ति की भावनाएँ और विचार शब्दों के जरिए कोरे पन्नों पर टंग जाया करते हैं। कविता के प्रतिमान कैसे होने चाहिए या काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कविता में किन-किन लक्षणों का होना जरूरी है, ये सब वर्चस्ववादी बाधाएँ हैं। गैर आदिवासी काव्य-परंपरा से ऐसे सामंती और आलोचकीय वर्चस्व को छिनवा कर ही कविता के नैसर्गिक विश्व की रक्षा की जा सकती है। जैसे कि आदिवासी काव्य -परंपरा है जहाँ कोई आलोचक नहीं होता बस एक सामूहिक जीवन-दृष्टि होती है जिसमें निजता और सामूहिकता इस तरह से गुंथे हुए होते हैं कि दोनों को गैर आदिवासी विश्व के ‘दूध और पानी’ दर्शन की तरह अलग ही नहीं किया जा सकता। इसीलिए मेरी कविता मुझे ‘कोरोया’ सी लगती है। कोरोया जंगल का सफेद रंग का एक फूल है जो गुच्छे में खिलता है। बहुत आकर्षित करने वाली सुगंध उसमें नहीं होती पर वह हमें प्रिय है।“ (कोनजोगा, पृष्ठ-6) वस्तुतः प्रभुत्वशाली काव्यशास्त्रीय आग्रहों से विलग आदिवासी लोक-स्वर की अत्यंत सहज-सरल और सीधी कहन परंपरा है, बिना साज-सिंगार और बनावट की। इस सहज स्वाभाविक काव्य-कर्म में स्थानीयता की लोक-गंध है, आदिवासी जीवन-जगत है, जंगल और प्रकृति के बीच रचे-बसे आदिम संस्कृति के सहज स्वर हैं, वृक्ष, फल-फूल, नदी, पहाड़ के सान्निध्य में डूबे पर्व, त्योहार और ज्ञान परंपराएँ तथा उसके विलुप्त होते जाने का त्रास और चिंताएँ हैं, सामाजिक न्याय की स्वाभाविक आवाज़ है।

आदिवासी विचारक वंदना टेटे के काव्य-कर्म में कविता के प्रतिमानों और हिन्दी काव्य मुहावरे की जगह आदिवासी सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और चुनौतियों की अनलंकृत और स्वाभाविक प्रस्तुति पर दृष्टि डाली जाए तो उसमें एक सजग आदिवासी चिंतन-दृष्टि और आत्मानुभूति से संपृक्त एक प्रखर स्वर मिलेगा। वे हिन्दी में प्रस्तुत कविता में बेहिचक खड़िया भाषा और उसकी गीतात्मकता को उसकी स्थानीयता के साथ संयोजित करके एक स्वाभाविक कला-कर्म द्वारा अभिव्यक्त होती हैं – “हां, हम सुन रहे हैं लोहे का गीत/ नेतरहाट के पाट पर ए दीदी लसय लसय… /हाँ, हम सब भी कमान तान रहे हैं /डोम्बारी पहाड़ पर ए संगी रियो रियो /हाँ, हमारे भी पैर थिरक रहे हैं /बीरू दिसुम में ए सांगो धिरोम धिरोम।“ (वही पृष्ठ-85) इस काव्याभिव्यक्ति में आदिवासी गीत-परंपरा की ध्वन्यात्मकता, संगीत के साथ अत्यंत कुशलता से विरोध को भी जगह मिल गयी है। आदिवासी संस्कृति, परपंरा, भाषा व पहचान की गंभीर चिंता के साथ उनकी कविता में भूमंडलीकरण से आदिवासी क्षेत्रों में हुई घुसपैठ से उत्पन्न अस्तित्व-संकट का तीव्र बोध है। उनकी काव्य-चेतना में आदिवासी सांस्कृतिक मूल्यों, प्रतीकों को बचाने की दृढ़ता तथा आदिवासी अस्मिता और आत्मसम्मान की रक्षा का प्रबल भाव भी है। प्रकृति की उपस्थिति यहाँ सौन्दर्यवादी दृष्टि के अनुरूप नहीं है बल्कि जीवन में घुली-मिली, उसके स्वाभाविक सान्निध्य और आस्था के केन्द्र के रूप में है। ‘कोनजोगा’ की कविताएँ इसी नयी अनुभव-भूमि व भाव-दृष्टि द्वारा आदिवासी जीवन-यथार्थ से परिचय कराती हैं। आदिवासी काव्य-लेखन में अनुज लुगुन, निर्मला पुतुल, जसिंता केरकेट्टा जैसे हिन्दी द्वारा अपनाए गए हस्ताक्षरों के बीच वंदना टेटे अपनी स्वतंत्र और प्रखर भंगिमा के साथ उपस्थित हैं जहाँ वे एक कवयित्री से अधिक एक प्रखर आदिवासी स्वर होने का बोध कराती हैं। बेशक अपनी शर्तों पर टिका यह काव्य-कर्म मौलिकता का परिचय देने में सक्षम है।

वंदना टेटे को साहित्यिक संस्कार विरासत में अपने नाना प्यारा केरकेट्टा तथा माँ रोज केरकेट्टा से मिले। इन्हीं से प्राप्त सामाजिक, राजनीतिक दृष्टि और आदिवासी संस्कार ने उन्हें आदिवासियत और आधुनिक जीवन-बोध को साथ रखकर समझने की वह दृष्टि दी जिसके द्वारा वे वर्तमान परिदृश्य में आदिवासी जीवन-दर्शन, संस्कृति तथा उसके समक्ष उपस्थित संकट और चुनौतियों को संतुलित रूप से विश्लेषित करने की योग्यता अर्जित करती रही हैं। इस दृष्टि का परिचय उनकी कविताएँ भी कराती हैं। सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में वे बाह्य प्रभाव के साथ आंतरिक स्थितियों पर भी पैनी दृष्टि रखती हैं। भौतिकवादी जीवन-शैली में डूबी आधुनिकता ने आदिवासी समाज की नयी पीढ़ी को उनकी मूल संस्कृति से दूर किया है जिसके प्रति एक गहरी चिंता उनकी कविता ‘हमारे बच्चे नहीं जानते तोतो-रे नोनो-रे’ में दिखाई देती है। वस्तुतः  आदिवासी समाज उन्मुक्त प्रकृति के सान्निध्य में स्वतंत्र विचरण करता हुआ अपनी ज्ञान-परंपरा, पर्व-त्योहार, और उस जीवन-दृष्टि को प्राप्त करता रहा है जिसकी बुनियाद सहजीविता, सहअस्तित्व है। प्रकृति व संपूर्ण सृष्टि के साथ जीवन जीने की यह दृष्टि उन परिस्थितियों में कैसे विकसित हो सकती है जब तकनीक से घिरी पीढ़ी अपने संकुचित संसार में सीमित हो- ‘और बंद कमरे में सारे मौसम/ गुजर जाते हैं।’ (पृष्ठ-11) आदिवासी जीवन-दृष्टि और नवशिक्षित वर्ग की आधुनिक जीवन-शैली के मध्य-बिन्दु पर अपने बच्चों के माध्यम से आदिवासी परंपरा के अस्तित्व और भविष्य को लेकर गहरी चिंता और पीड़ा इन पंक्तियों में अभिव्यक्त की गयी है- “सच में /मैं चिंतित और उदास हूँ /कि नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे / डोरी, कुसुम से तेल निकालने की /मछली और चिड़िया पकड़ने की /देशज तकनीक /महुआ लट्ठा, इमली के बीज के साथ /औटाया गया खाने का स्वाद /सरहुल पर्व से पहले /जंगल के फल फूल को तोड़ने खाने की मनाही /करमा के बाद खेतों में खड़ी / भेलवा की टहनियों का राज /आह! नहीं जान पाएंगे मेरे बच्चे ।“ (पृष्ठ-12)

नयी पीढ़ी को तकनीकों की बहुत सी जानकारियाँ हैं किन्तु ‘बारिश से पहले चीटियाँ अपने अंडे लेकर क्यों भागती है इसकी कोई जानकारी नहीं है। आधुनिक समाज यथार्थ से ज्यादा आभासी दुनिया की जानकारी रखता है। परिणामस्वरूप प्रकृति और जीवन-यथार्थ के साथ सहज संबंध खंडित हुए हैं तथा मनुष्य के स्वार्थ ने प्रकृति का अपार दोहन किया। आदिवासी जीवन-शैली जमीनी यथार्थ और प्रकृति से गहरी जुड़ी है तथा उसके अनुभव-जगत में प्रकृति और जीव-जगत से जुड़ी अनगिनत जानकारियाँ है, जिसका लिखित इतिहास नहीं है। इस ज्ञान-परंपरा से वंचित पीढ़ी प्रकृति और जैव विविधता के गूढ़ ज्ञान से विहीन होकर सृष्टि के कई रहस्यों से दूर चली जायेगी, यह चिंता संपूर्ण मानव जगत के लिए है – “छूट जाएगी चीजें मेरे बच्चों से /छूट जाएगी दुनिया हमारे बच्चों से !”

इस ब्रह्मांड में जिस प्रकृति से हम घिरे हैं उसके एक जीवंत अंश से कट जाने की पीड़ा और बेचैनी वंदना टेटे की कविताओं में कई तरह से अभिव्यंजित हुई है। आदिवासी-परंपरा की इस चिंतन-दृष्टि में प्रकृति की समग्रता की चिंता निहित है। इसलिए इसे केवल अस्मितागत दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। कोविड 19 जैसी महामारी से जूझती दुनिया के लिए प्रकृति के अस्तित्व की चिंता उतनी ही जरूरी है जितनी मानव अस्मिता की। बल्कि मनुष्य और प्रकृति के अन्योन्याश्रित संबंध तथा आदिवासी संस्कृति और परंपरा को सूक्ष्म रूप से समझकर उसके महत्त्व को निरूपित करने का यह सर्वाधिक उचित समय है। वंदना टेटे अपने चिंतन द्वारा इसे मुखरता से प्रतिपादित करती हैं। आदिवासी जीवन-शैली में प्रकृति का आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक आधार भी है। नदी, पहाड़, पेड़-पौधे, फल-फूल, जीव-जंतु, उनकी सांस्कृतिक परंपरा में अभिन्न रूप से जुड़े हैं। प्रकृति के वे रूप जो उनके सांस्कृतिक चिह्न व धरोहर है उनकी विलुप्ति, क्षति के विरूद्ध भी एक गहरी चिंता इन कविताओं में मुखरित है- “पुरखा कथाओं में दर्ज /कोनजोगा टूट रहा है /पुरखा कथाओं में दर्ज /जतरा के ढोल की आवाज /दफन हो रही है।“ (पृष्ठ-93)

‘कोनजोगा’ खड़िया सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा एक पहाड़ है, यह एक आदिवासी दृष्टि का कथन है किन्तु दूसरी तरफ विकासवादी, विस्तारवादी भूमंडलीकरण की आर्थिक दृष्टि के लिए ऐसे कई पहाड़ (जैसे नियमगिरि के पहाड़) खनिजों के अकूत भंडार हैं और विकास की इसी दृष्टि के कारण कितने हरसूद डूब गए किन्तु प्रकृति को बचाने वाले प्रयासों के पक्ष में न्याय विलंबित रहा, ये पीड़ा आदिवासी क्षेत्रों की आम पीड़ा है- “पर हरसूद को अब भी /न्याय की उम्मीद है /उस न्यायालय से /जो बुत बने देवालय की बगल में /मौन खड़ा है /सर झुकाए हुए।“ (पृष्ठ-74) पहाड़ जंगल पर विकास की कुदृष्टि ने आदिवासी जीवन की सरल जिंदंगी को न केवल लील लिया बल्कि उनके खेत-दर-खेत ऊँची इमारतों में बदलते चले गए। इस कृत्य ने आदिवासी जीवन के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक स्वरूप को आमूलचूल क्षति पहुँचाई। आदिवासी कविता ही नहीं संपूर्ण आदिवासी लेखन में विकास के इस विनाशकारी पक्ष को सूक्ष्मतापूर्वक चित्रित किया गया है। आदिवासी समाज को पिछड़ा, असभ्य समझ कर अवहेलित ही नहीं किया गया है, वे अन्याय और शोषण के भी शिकार होते गए हैं। देश के आदिम निवासी के सवालों और पीड़ा को इन कविताओं में प्रखर स्वर मिला है- “रची जा रही है /साजिशें गहरी- गहरी /हमारे ही खात्मे के लिए /बिछाए जा रहे हैं फंदे /ताकि /तुम्हारे विकास की गाड़ी /दौड़ सके रौंदती हुई हमारे / भूत वर्तमान और भविष्य को।“ (पृष्ठ-78)  विकास की नीतियों को प्रश्नों के घेरे में लेने वाली यह काव्य-दृष्टि अत्यंत सजग है। यह दृष्टि आदिवासी समाज की हितचिंतक है जो उसकी सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के साथ आधुनिक जीवन का संतुलित संस्पर्श चाहती है। वे अपने क्षेत्रों में पुल, स्कूल, अस्पताल और सुविधाएँ चाहते हैं ताकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनिवार्य जरूरतों तक उनकी पहुँच बन सके, किन्तु जब यही नीतियाँ उन्हें उनके स्वाभाविक आर्थिक स्वावलंबन- खेतों, जंगलों से बेदखल कर उन्हें मजदूर बना देती है, तब ये डर उचित है- ‘‘डरता भी हूँ /पुल बनने से /कि घूमता हूँ जिस जंगल में निर्भय /पुल के बनते ही /तुम बेदखल कर दोगे मुझे भी”  …….  “मैं रिक्शापुलर कुली /मेरी बेटियाँ आया, रेजा /मेरी पत्नी धंगरीन /के नाम से पहचानी जाएंगी /और मेरा एम.ए. पास जवान बेटा /अपने प्रतिरोध के कारण /नक्सली बनाकर मार दिया जाएगा /और इसलिए मैं दुविधा में हूँ, /पुल बने या नहीं !” (पृष्ठ-72)

वंदना टेटे के समग्र लेखन में आदिवासी जीवन के अस्तित्व को लेकर गहन विकलता है। वे बेबाकी व स्पष्टता से अपना पक्ष रखती हैं जिसमें प्रायः तनिक आक्रोश भी प्रकट होता है। वर्तमान परिदृश्य में यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि एक आदिवासी द्वारा की गयी प्रकृति की चिंता में पूरी मानवता की रक्षा के सूत्र निहित हैं। आदिवासी संस्कृति, भाषा और उसके वाचिक साहित्य में वह जीवन-बोध है जो प्रकृति में रमा-रचा-बसा है और उसके प्रत्येक अंग का आदर करता है। जीव-जंतुओं की भांति वे भी प्रकृति से आवश्यकतानुसार ही लेते हैं तथा उसे हानि नहीं पहुँचाते हैं। एक आदिवासी जब किसी विपरीत स्थिति में वृक्ष पर कुल्हाड़ी से प्रहार करता है तो उससे पूर्व उससे क्षमा-याचना करता है। इसलिए आदिवासी जीवन-दर्शन में प्रकृति के प्रति आस्था का भाव है। इसी प्रकृति के आंगन में विकास के नाम पर विनाश-लीला के प्रति आदिवासी कविताएँ आपत्ति दर्ज कराती हैं। वंदना टेटे की कविताओं में आदिवासी क्षेत्रों, जनजीवन में सतत हो रहे परिवर्तन व प्रभाव को चिह्नित किया गया है तथा आदिवासी संस्कृति के विलुप्त होते जाने की विकल चिंता अभिव्यक्त हुई है। प्रकृति के सौन्दर्य को एक आदिवासी की दृष्टि जिस तरह से देखती है वह हिन्दी कविता के रूढ़ दृश्यों से सर्वथा भिन्न है –“लाल धवई के फूल /खिल रहे हैं /जंगल में फूलचीभी /रस जोभ रही है रासे रासे/ जिरहुल के छोटे फूल /खुश हैं बहुत खुश /परास हांकवा कर रहा /डंपर के पैरों तले रौंदी धूल /जंगल से निकली हवा से मिल /जदूर खेल रही है /कुजाम पाट झूम रहा है।“ (पृष्ठ-81) आदिवासी-दृष्टि से उन्हीं के भाषिक-सौन्दर्य के साथ प्रकृति का यह रूप निश्चित ही हिन्दी कविता के लिए नया ही है। ‘रासे रासे’, “लसय लसय’,  ‘रियो रियो’ शब्दों का आदिम सौन्दर्य आदिवासी गीत-परंपरा के संगीत व ध्वनि की देन है जो उनकी वाचिक-परंपरा के मौलिक स्वरूप से परिचय कराती है। प्रकृति और भाषा का समवेत सौन्दर्य इन पंक्तियों में भी दर्शनीय है, जिसके सहज रूप में आदिवासी चेतना की गूंज भी ध्वनित है- “छउवा समय है संगी /आओ खेलेंगे पहाड़-पहाड़ /आओ गाएंगे नदी-नदी /आओ नाचेंगे जंगल-जंगल /छउवा समय है सहिया /आओ बतियाएंगे संग-संग /…….. / आओ संगी /आओ सहिया /आओ गुइया /हम बनाए मिलकर /इस दुर्दांत समय को /छउवा समय /निद्र्वन्द्व निडर निर्मल।“ (पृष्ठ-82-83)

स्पष्टतः वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी पहचान और आवाज की कविताएँ हैं। वे किसी हिन्दी मुहावरे या रूढ़ सांचे का अनुकरण नहीं करती। उनके पास कहने को अपनी बात है और अपना भाषिक लहजा। इसलिए उनकी काव्याभिव्यक्ति में विविधता है। वे अपनी जड़ों से जुड़ी रहकर हिन्दी में सृजनशीलता का परिचय देती हैं। हिन्दी में इस खड़ियाभाषी कवयित्री की उपस्थिति अपने आदिवासी वैशिष्टय के साथ है जो उनके स्वतंत्रचेता काव्य-व्यक्तित्व का उदाहरण है। एक ईमानदार और सघन अनुभूति की अभिव्यक्ति का मार्ग स्वतःस्फूर्त रूप से अपने लिए एक सांचा, एक रास्ता चुनता है जिसमें व्यंजना, बिम्ब या प्रतीक स्वाभाविक रूप से आते हैं। वंदना टेटे जिस काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों को खारिज करती हैं उनकी काव्याभिव्यक्ति के सहज प्रवाह में वे स्वाभाविक उपस्थिति दर्ज कराते हैं, उसे अधिक व्यंजक बनाते हैं। किन्तु ये बिंब आदिवासी जीवन-यथार्थ का अभिन्न हिस्सा हैं। इस जीवन को खंडित करते बाह्य हस्तक्षेपों के चित्रण में बिम्बधर्मिता व रूपक की स्वाभाविकता ही इन पंक्तियों का वैशिष्टय बनकर सम्मुख आता है- “कविताओं वाली नदी /सूखने लगी है /गीतों के पहाड़ /उजाड़ है /जटंगी के खेतों में /हिंडाल्को की माइंस खुदी है /सूख गए हैं पोखरे /बादल पहाड़ों से /आँख चुरा रहे हैं /और जंगल से गुजरती हवा /गुनगुनाना गुदगुदाना भूल गयी है।“ (पृष्ठ-16)  इस अभिव्यक्ति में प्रकृति और बिम्बधर्मिता की उपस्थिति सायास नहीं है। विसंगतियों और विडंबनाओं को ये कविताएँ इसी तरह अपने परिवेश में डूबकर प्रस्तुत करती हैं। यही कारण है कि एक आदिवासी की पीड़ा और आवाज संपूर्ण उपेक्षित, अन्याय और शोषण की शिकार मानवता की आवाज बन जाती है- “और कविताओं की नदियों में /डूबने की इच्छा /बंदूक की बटों /और बूटों के नीचे /कराहती रहती है /दिन रात।“ (पृष्ठ-16)

 वंदना टेटे की कविता में खड़िया भाषा के शब्दों का सहज प्रयोग हुआ है। अर्थ न जानते हुए भी वे कविता को जो प्रवाह और लय देते हैं उसका सौन्दर्य प्रभावित करता है। रासे-रासे, लसय-लसय, रियो-रियो, धइरे-धइरे जैसे शब्दयुग्म की आवृत्तियों का संगीत हो या सीमधने, फोंफड़ने, रसजोभ, रूसुम, छउवा, पिछलन, ओगरा, कुंबो, डूबोः, हिलिर, हिलिर जैसे शब्द प्रयोग – ये एक विशिष्ट ध्वनि के कारण भाषा को प्रभावी बनाते हैं। कवयित्री की आदिवासी-चेतना व दृष्टि का विस्तार उसके जीवन-द्रश्यों, विसंगतियों, सांस्कृतिक पक्ष, भाषा के साथ साथ उसकी वर्तमान स्थिति तक जाता हैं इसलिए ‘कोनजोगा’ की कविताएँ आदिवासी जीवन के यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। इसमें यदि ‘सलवा जुडुम के डर से फुसफुसाती जिंदगी’ के दृश्य हैं तो वहीं ‘बोरसी की आग के पास नानी दादी से कहानी सुनने का मजा’ भी है, साथ ही आदिवासी दैनंदिन में रचे बसे निसर्ग के अनुभवों का जीवंत रूप भी, उसके खो जाने की चिंता भी- “पहली तेज बारिश का पानी जब /सूखी नदी में उतरता है /तो अपने आने की सूचना कैसे देता है /और पातर काका /क्यों जुते बैलों को तोतो-रे नोनो-रे कहते हैं /पथराई धरती /क्यों सोंधी महक से लबरेज हो जाती है।“ (पृष्ठ-12) इन कविताओं की जड़ें आदिवासी जीवन-शैली व संस्कृति में है इसी कारण उनकी काव्याभिव्यक्ति में मौलिकता है। सामान्य चीजें भी यहाँ जगह बनाती हैं-  “नींबू की तरह /निचोड़ दिया है /और भर दिया है /मिर्च की तरह बेचैनी /सच बहुत अजीब सी /शांति है !” (पृष्ठ-45)

वंदना टेटे का काव्येतर लेखन आदिवासी समाज की चिंताओं और चुनौतियों से निरंतर मुठभेड़ करता है। उनकी सचेत दृष्टि आदिवासी जन को अपने अस्तित्व की लड़ाई खुद लड़ने हेतु निरंतर प्रेरित करती है। आसन्न संकट और संघर्ष की प्रेरणा के बीच आदिवासी मिथक पुरूष तिलका मांझी की स्मृतियाँ व उम्मीद के स्वर भी उनके काव्य-जगत को समृद्ध करते हैं- “कब तक जोहते रहोगे /अपनी पहचान जानने /के लिए दूसरे का मुंह /और कब तक आसरे में /रहोगे कि कोई आए /और तुम्हारे लिए लड़े।“ (पृष्ठ-68) अतीत और वर्तमान के संघर्ष-चित्र उकेरते हुए वे पूंजीवादी विकास के तले रौंदे जा रहे विस्थापितों को उनकी पहचान, अधिकार और श्रम के लिए सचेत करती हैं- “पूंजी के उड़न खटोले पर /सवार होकर वह /ले जाएगा तुम्हारी /जमीन, श्रम और पहचान।“ (पृष्ठ-79)  समृद्ध सांस्कृतिक अतीत और जंगल, खेतों के उजड़ते चले जाने से वर्तमान पर संकट की चिंता आदिवासी लेखन की प्रत्येक विधा में मुखर हुई है। आदिवासी विद्रोह और उलगुलान का अपना इतिहास है। आदिवासी चेतना में उसकी जीवंत स्मृतियाँ हैं। ‘कोनजोगा’ की कविताओं में भी पुरखा पुरूष तिलका मांझी की स्मृति और उलगुलान की तड़प मौजूद है- “जमा कर रहा अपने भीतर /बोरसी की गरमी /जुटा रहा पोर पोर में /पुरखों सी ताकत /कंपनी के बड़े  बड़े डूबोः के खिलाफ।“ (पृष्ठ-90) (डूबो :: भूत-प्रेत) ….. “दर्द अपमान और आक्रोश से आँखें /कोयल कारो सी ऊब डूब हो रही है /छातियों में पहाड़ फूल रहे हैं/कोख में सरसरा रहा है उलगुलान।“ (पृष्ठ-92)  आदिवासी-चेतना में आशा, उम्मीद और खुशी के स्वर भी इन कविताओं में जगह बनाते हैं। आदिवासी जन में जागरूकता और शोषण के विरूद्ध उठाये गये स्वर के द्वारा वे भविष्य के प्रति उम्मीद से देखती हैं- “क्योंकि असुर और उरांव/झंडा लेते हुए /धइरे-धइरे आ रहे हैं।“ (पृष्ठ-81)   ….. “मुस्कुराएगा चांद /घोटुल में गूजेगी हंसी /ये उम्मीद /कौंधती रहती हैं /बिजली की तरह।“ (पृष्ठ-14) 

वंदना टेटे की कविताएँ आदिवासी संस्कृति, परंपरा, जीवन-दर्शन, भाषा और उनके जीवन में विकासवादी हस्तक्षेप से हुए परिवर्तन को दिखाते हुए एक पुख्ता जमीन तैयार करती हैं जिसके आधार पर वे अपना पक्ष रखते हुए सटीक विरोध दर्ज कराती हैं। आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करती नीतियों के प्रति ये कविताएँ आवाज़ उठाती हैं तो साथ ही प्रकृति और पुरखों से चली आ रही परंपराओं को लेकर भी सजग है। किन्तु इन चिंताओं और विरोधी तेवर के बावजूद जमीनी हकीकत से वे वाकिफ हैं। पूंजीवादी प्रसार और मानव के स्वार्थ और अहंकार ने हाशिए के समुदायों का न केवल शोषण किया है बल्कि निरंतर धर्म, नस्ल, रंग, जाति, धनबल  के नाम पर उनकी घोर उपेक्षा की है। प्रकृति का गुस्सा कई तरह से प्रकट हो रहा है। तूफान और भूकंप उस प्रकृति के कुपित स्वर हैं, जिसके प्रति पूंजीवादी दुराग्रहों ने अति की है। आदिवासी जीवन इसी प्रकृति के आंगन में फलने -फूलने वाली सांस्कृतिक पहचान का नाम है। प्रकृति के विनाश में आदिवासी जीवन-जगत और पहचान के भी खोने की चिंता, उदासी और डर को इन पंक्तियों में मार्मिक रूप से ध्वनि मिली है- “जैसे सूख गयी दामोदर सुवर्ण रेखा /जैसे आसमान में बिला गयी सुगंधित हवाएँ /जैसे चूर-चूर हो गए मजबूत पहाड़ /जैसे छंटते कटते चले गए जंगल /हम भी जा रहे हैं /हम जा रहे हैं /जैसे चले गए पुरखे /जैसे जा रही है ये धरती /सबकी पहुँच से बाहर /धीरे धीरे हर क्षण।“  (पृष्ठ-95-96)

आदिवासी समाज के सहजीवी, सामूहिकता और सहअस्तित्व के सिद्धांत में समानता का भाव निहित है। फलस्वरूप वंदना टेटे के आदिवासी समुदाय विषयक चिंतन में यह बात बार-बार दोहराई गयी है कि आदिवासी समाज में लैंगिक असमानता नहीं है और न ही पितृसत्तात्मकता की प्रभुताशाली व्यवस्था। किन्तु उनकी कविताओं में आदिवासी‘ चेतना के समानांतर स्त्री-चेतना के जो स्वर हैं वे स्पष्ट करते हैं कि कथित सभ्य समाज में शामिल आदिवासी समाज भी लैंगिक भेदभाव के दुष्प्रभाव को भोगता है। आदिवासी समाज के संघर्ष के भीतर स्त्री को एक निजी संघर्ष का भी सामना करना होता है जो उसके स्त्रीत्व को लेकर है। शिक्षित समाज के वर्तमान स्वरूप में स्त्री की भूमिका और स्थिति उसे कई तरह के संघर्ष की ओर ले जाती हैं। वंदना टेटे के काव्य-कर्म में आदिवासियत के बरअक्स स्त्री को लेकर भी सर्वथा अलहदा किस्म का संघर्ष भाव है, जिसको अभिव्यक्ति देने में भी वे स्पष्ट और मुखर हैं- “तुम्हारी खिंची लक्ष्मण रेखा /के खिलाफ /उसने बो दिए हैं संघर्ष बीज।“ …..   “मिटाने को आतुर हैं उसके हाथ /हर उस लकीर को /जो बांधते हैं उसकी सीमा।“ (पृष्ठ-35)  घर-परिवार के दैनंदिन कार्य-कलापों के भीतर स्त्री के कसमसाते अनुभवों, उसके मौन के भीतर की चिंगारी को वे रसोई के एक दृश्य के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोती हैं- “वह उठती है /चूल्हा सुलगाती है /और साथ ही /सुलगते हैं /उसके विचार /चूल्हें में चढ़े बर्तन की तरह /गर्म होते हैं, खदबदाते, ठंडे होते हैं /फिर राख की तरह /एक चिंगारी दबाए/ चुप हो जाती है।“ ……. “वह /अनाज बीनने बैठती है /और बीनती है अपनी सोच /जो उसके लिए अहम है।“ (पृष्ठ-48)  वंदना टेटे की काव्याभिव्यक्ति में विरोध और तीक्ष्ण प्रश्न वाचकता के पीछे उनके ऊर्जावान विचार है, जिसके बारे में वे स्पष्ट है कि ये विचारशीलता उनके लिए ‘अहम’ है। इसी के कारण वे सामाजिक असंगतियों को प्रश्न के घेरे में लेती हैं। आदिवासी चेतना के साथ ही स्त्री-चेतना उनके काव्य-कर्म में प्रमुखता से स्थान प्राप्त करती है- “तुम जला दी जाती हो /रूप कुंवर की तरह /समाज कत्ल कर देता है तुम्हें /जब तुम प्रेम करती हो /संस्कृति की गर्म सलाखों से /फोड़ दी जाती हैं तुम्हारी आँखें /और जब जबान खुलती है तुम्हारी /तुम्हें बदचलन करार दे दिया जाता है।“ (पृष्ठ-51) सामाजिक विद्रूप से मुठभेड़ करती स्त्री अपने लिए एकांत चुनती है जिसमें विघ्न उसे पसंद नहीं। एकांत का एकालाप उसे नयी ऊर्जा देता है। जीवन-यथार्थ से प्राप्त अनुभवों को वैचारिक फलक से जोड़कर एक सटीक दिशा प्राप्त करने में यह एकांत एक कवि मन को सहयोग देता है- “मेरे एकालाप में /विघ्न अब सहन नहीं /बारिश की बूंदों /की हठधर्मिता /हवाओं से आते /पदचापों के स्वर /तोड़ते हैं मेरा एकालाप।“ (पृष्ठ-53)

आदिवासी जीवन-शैली तड़क-भड़क पूर्ण नहीं वरन् अत्यंत सरल, सादगी पूर्ण है, किन्तु स्त्री होने के नाते घर से मिलने वाली सीधे चलने की हिदायतों की मंशा भिन्न है। सामाजिक विसंगतियों के इस परिवेश में सीधे चलने की इच्छा कितनी दुष्कर है इसे बड़ी सहजता से यह कविता अभिव्यंजित करती है- “माँ ने कहा /पिता ने भी कहा /सीधे रास्ते पर चलना /सामने देखना /इधर उधर नहीं /सीधा रास्ता पकड़ना।“ …..  “और रास्ते ही रास्ते /पिछलन ही पिछलन /कहाँ जाऊँ माँ जोई /सीधी कैसे चलूं ।“ (पृष्ठ-56-57) आदिवासी समाज लैंगिक भेदभाव को नहीं मानता तथा स्त्रियों के महत्त्व को स्वीकार करता है। यद्यपि कथित सभ्य समाज में ऐसी स्थिति नहीं है। यहाँ स्त्री का संघर्ष कई मोर्चे पर है। आदिवासी समाज सहअस्तित्व के विचार को प्रत्येक स्तर पर स्वीकार करता है। ऐसे में कवयित्री का यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है जहाँ वे साधारण चीजों के बीच स्त्री के असाधारण महत्त्व को निरूपित कर जाती हैं- “लड़कियाँ /घर की छप्पर /खेत की लहलहाती फसल /चूल्हे की आग /बूढ़े आँखों की रोशनी /और झुकी कमर की लाठी होती हैं /दोस्त ! /क्या तुम्हारे यहाँ भी लड़कियाँ ऐसी होती हैं।“ (पृष्ठ-62) वंदना टेटे का  हिन्दी में अभी तक केवल एक ही कविता संग्रह सम्मुख आया है किन्तु उनकी काव्य-दृष्टि व मूल्यों में किसी तरह की अस्पष्टता नहीं है। उनकी चिन्तन-दृष्टि ने ‘आदिवासियत’ शब्द का प्रयोग करते हुए आदिवासी जीवन-मूल्यों, वैचारिक पक्ष, जीवन-यथार्थ से हिन्दी-जगत को परिचित कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य सतत रूप से किया है। उनका काव्य-कर्म भी अत्यंत सचेत रूप से समुदाय की पीड़ा, शोषण, अन्याय के साथ आदिवासी जन की जिजीविषा व संघर्ष-चेतना को रूपायित करता है। उनके काव्य-स्वर में एक तरफ चिंता है तो दूसरी ओर जूझने की अदम्य क्षमता भी। काल्पनिकता की जगह ठोस यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती ये कविताएँ आत्मविश्लेष्ण की क्षमता भी रखती हैं। निजी जगत से व्यापक विष्व चेतना तक वे अत्यंत सहजता से पहुँच बनाती है। वस्तुतः इसके पीछे भी आदिवासी जीवन-दर्शन का सहअस्तित्व का विचार क्रियाशील है। आदिवासी जीवन‘दृष्टि व संस्कृति के वैषिष्ट्य के साथ कथित सभ्य समाज की संकीर्ण और एकांगी दृष्टि विकास की एकपक्षीय नीतियों पर नज़र रखते हुए वे बेबाकी से प्रश्न करती हैं और आपत्तियाँ सम्मुख लाती हैं। आदिवासी समाज की जातीय स्मृतियों को जीवंत रखते हुए सांस्कृतिक संक्रमण की स्थिति में अस्तित्व की रक्षा हेतु सचेत रहने का भाव भी उनमें प्रखर है। नवशिक्षित आदिवासी समुदाय में सांस्कृतिक पहचान की चिंता के साथ परिवेश की विडंबनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि है। आदिवासी जीवन के अपरिहार्य अंग पर्व-त्योहार, सांस्कृतिक प्रतीक, गीत-संगीत-नृत्य परंपरा, देशज ज्ञान, भाषा और प्रकृति से गहन संपृक्ति को लेकर उनका चिंतन कविता में सृजनशील होकर हिन्दी को एक नव-आस्वाद-भूमि उपलब्ध कराता है, जो आदिवासी कवि के रूप में उनकी पहचान को पुष्ट करता है। आदिवासी कविता पर वैमर्शिक राजनीति का कोई प्रभाव नहीं है उनके विद्रोही भाव में भी जीवन-जगत की विसंगत स्थितियों की स्वाभाविक उपस्थिति है। वंदना टेटे की मुखरता और आदिवासी-चेतना भी जीवन के अनुभवों से उत्पन्न है, आरोपित नहीं। जीवन-यथार्थ से नैकट्य के परिणामस्वरूप ही वे आदिवासी विरासत और आधुनिक दृष्टि-बोध को संतुलित रूप से साधती हैं। आदिवासी जनजीवन, परिवेश और समाज से उपजा काव्य-बोध आदिवासी-लोक के यथार्थ का प्रतिनिधि स्वर बनने में सक्षम हैं, वंदना टेटे  का काव्य-कर्म इसी का उदाहरण है।  

किताब : कोनजोगा (कविता संग्रह)
लेखिका : वंदना टेटे
प्रकाशक : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन (2015)
समीक्षक : पुनीता जैन
प्राध्यापक -हिन्दी
शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
भेल, भोपाल
मो. 94250-10223
rajendraj823@gmail.com