परिवर्तन : साहित्य, संस्कृति और सिनेमा की वैचारिकी
ISSN 2455-5169
वर्ष 1 अंक 3 जुलाई-सितम्बर 2016
“सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है. व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्व की कोई चीज उत्पादित करना मुमकिन नहीं. व्यक्तिगत समस्याएं जहां तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं. अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफाश किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके” (गोरख पांडेय)
“हर जगह ऐसी ही जिल्लत / हर जगह ऐसी ही जहालत / हर जगह पर है पुलिस/ और हर जगह है अदालत./ हर जगह पर है पुरोहित, हर जगह नरमेध है, / हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है.” (रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’)
उपर व्यक्त दोनों कवियों के वक्तव्य से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये किस दुनिया के कवि थे ? किन लोगों के बारे में सोचते थे ? किनके लिए लिखते थे ? और किन के लिए जीते थे ? जाहिर है कि गोरख पांडेय और रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जमीन से जुड़े हुए कवि थे. जमीन से जुड़े लोगों के बारे में सोचते थे, उनके लिए लिखते थे और उनके लिए ही जीते थे. जहाँ गोरख पांडेय का एकमात्र कार्य ‘इंकलाब’ था, वहीँ विद्रोही के लिए पूरी दुनियां एक भैंस थी, जिसको पलना, पोसना और दुहना उनका कर्तव्य था.
यह इतना सहज नहीं है जितना दिख रहा है. इंकलाबी होना खुद का साक्षात्कार है और खुद का साक्षात्कार काफी हद तक आध्यात्मिक, जिसमें खुद की इन्द्रियों पर खुद का नियन्त्रण होना प्रथम अनिवार्य शर्त है. इंकलाबी होना एक तरह से दधीचि होना भी है. जो गोरख पांडेय थे. वे अपनी डायरी में लिखते हैं कि- “ दो ऐसी चीजें हैं जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है. प्रेम मुझे समाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ. क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान, मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिये तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिये जगह-जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योग देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ” जो व्यक्ति जमीन से जुड़े हुए लोगों के संघर्ष में योगदान देकर अपने जीने का औचित्य साबित करना चाहता हो वह निश्चित ही कोई आम इन्सान नहीं होगा.
रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ भी कोई आम इन्सान नहीं थे. आज के संदर्भ में अगर उनकी तुलना ‘कबीर’ से की जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कहा जाना चाहिए. क्या आपको लगता है कि भैंस दुहना कोई आसान काम है ? बिलकुल नहीं ! उसके लिए खुद भैंस बनना पड़ेगा तभी जाकर उसका दूध निकला जा सकता है. यहाँ जबकि उनके लिए भैंस, दुनियां का प्रतीक है. तब तो और भी मुश्किल कार्य है इस भैंस रूपी दुनियां का दूध दूहना. लेकिन विद्रोही भी कहाँ कम हैं. उनका दृढ़ संकल्प उनकी कविताओं की पक्तियों में देखा जा सकता है जब वे कहते हैं – “ अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा, या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा, या आसमान में धान जमेगा.” उनकी यह खुली चुनौती अदृश्य रहने वाले भगवान के प्रति तो है ही, आँखों से दीखने वाली इस दुनियां की सत्ताधारी शोषक व्यवस्था को भी उसी प्रकार चुनौती देते हैं- “मैं एक दिन, पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ/ औरतों की अदालत में तलब करूँगा/ और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूंगा.”
‘विद्रोही’ अपने व्यक्तित्व का परिचय अपनी एक कविता की एक पंक्ति में ही दे देते हैं- “और मित्र सब करें दिल्लगी / कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था / कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा”.
सुशील कुमार शैली उनके बारे में लिखते हैं. “ विद्रोही उन विरले कवियों में से हैं.. जो अपने इतिहास को, ऐतिहासिक परिस्थितियों को और उन परिस्थितियों से उपजे वर्तमान और वर्तमान से निकलने वाले भविष्य पर मंथन करते हैं. उनका यह मंथन आशावाद से प्रेरित है. जिसे अपने पर विश्वास अटल है, जन-संघर्षों पर विश्वास है. जन संघर्षों के स्वप्न समतामूलक समाज पर विस्वास है”
सही मायने में कहें तो ये दोनों कवि खुद पर अटल विश्वास करने वाले कवि हैं. लेकिन यह उनका खुद पर विश्वास खुद अपने लिए नहीं है बल्कि, सर्वहारा समाज, शोषित समाज, स्त्री और छात्रों के लिए है. गोरख पांडेय कभी भी अपनी नौकरी को लेकर चिंतित नहीं रहे. वे जीवन पर्यंत छात्रों के बीच में ही रहकर अपनी कविता और विचारों को संप्रेषित करते रहना चाहते थे. ठीक इसी प्रकार रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ भी अपना सब कुछ त्यागकर छात्रों के बीच में अन्तिम साँस तक डंटे रहे.
इन दोनों महान विभूतियों के बारे में अभी बहुत कुछ निकलकर सामने आना बाकी है. जहाँ तक इनकी रचनाओं के विश्लेषण का सवाल है, मैं कुछ नहीं कहूँगा. लेकिन दिलीप मंडल द्वारा, रमाशंकर यादव के लिए कहे गये इस वक्तव्य का जिक्र जरुर करना चाहूँगा. “प्रोफेसरों रमाशंकर यादव नाम का वह मासूम सा लड़का सुल्तानपुर, यूपी से पढ़ाई करने के लिए जेएनयू, दिल्ली आया था. तुमने रमाशंकर यादव को पढ़ाई पूरी नहीं करने दी. वह अपनी डिग्री कभी नहीं ले पाया। क्या विद्रोही प्रतिभा से डरते थे तुम?… विद्रोही बिना डिग्री के तुमसे कोसों आगे निकल गया. छूकर दिखाओ, लिखो वैसी एक रचना, है दम ?” चूँकि यह केवल विद्रोही के लिए ही कहा गया हैं लेकिन इसको आगे बढ़ाते हुए मैं इसे गोरख पांडेय के लिए भी जोड़ना चाहता हूँ. यह अलग बात है कि गोरख पांडेय पढ़े-लिखे थे. लेकिन उनकी कविताओं का तेवर ‘विद्रोही’ से तनिक भी कम न था. यहाँ तक कि यह कहना अधिक उपयुक्त होना चाहिए कि गोरख पांडेय की रचनाओं का प्रभाव विद्रोही पर पड़ा था.
बहरहाल, इस अंक में जमीन से जुड़े इन दोनों कवियों (गोरख पांडेय और रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’) के लिए एक छोटा ही सही, लेकिन सार्थक प्रयास करने का साहस किया गया है. यह प्रयास कहाँ तक सफल रहेगा, पाठकों और साहित्य-चिंतकों, के हाथ में होगा. क्योंकि इस लघु-प्रयास के लिए पत्रिका की पूरी टीम को काफी मशक्कत करनी पड़ी तब जाकर हमें कुछ आलेख मिले. हालांकि कुछ लेखकों ने काफी रूचि और उत्साह के साथ हमारा सहयोग किया. जिससे हमें ‘विद्रोही’ पर आलेख आसानी से उपलब्ध हो गए, लेकिन ‘गोरख पांडेय’ पर हमें पत्रिका के प्रकाशन के अंतिम समय तक कोई भी आलेख नहीं उपलब्ध हो पाया, निसंदेह यह काफी निराशाजनक है.
अतः हमने गुस्ताखी करने में कोई कोताही नहीं बरती और गोरख पाण्डेय से सम्बंधित कई आलेख साभार उठा लिए. हम जानते हैं कि हमारे इस प्रयास में कोई मौलिकता नहीं है, लेकिन एक कवि के सम्मान में उससे सम्बंधित सूचना का संकलन करना और और पाठकों के लिए एक जगह पर सामग्री उपलब्ध करना अपने आप में एक मौलिक कार्य कहा जाना चाहिए. साभार लिए गए सामग्री के लिए उन सभी ब्लॉग लेखकों, पत्रिका के संपादकों को मेल द्वारा सूचित किया गया है, लेकिन कुछ ऐसे लेखक थे जिनका कोई भी संपर्क-सूत्र हमें नहीं मिल पाया. अतः हम उनसे यह उम्मीद करते हैं कि वे भी अपना सहयोग पत्रिका पर बनाये रखेंगे. आप सभी को मैं और अपनी पूरी टीम की तरफ से धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ.
अंत में हम यह उम्मीद करते हैं कि ऐसे कवियों की महानता भविष्य में एक न एक दिन जरुर सिद्ध होगी.
आपके सुझाव, विचार और आलोचना का स्वागत है.
महेश सिंह
17.07. 2016